क्या आप जानते हैं वराह कवच के पाठ से जीवन के संकट दूर होते हैं और आत्मविश्वास में वृद्धि होती है? जानें इसकी पाठ विधि और अद्भुत फायदे।
वराह कवच। यह कवच स्वयं भगवान विष्णु के वराह अवतार का शक्ति-स्वरूप है, जो पृथ्वी को पाताल से निकाल लाए थे। इसी तरह वराह कवच भी आपके जीवन के संकटों को हरकर आपको स्थिरता, सुरक्षा और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग देता है। इस लेख में जानिए वराह कवच का रहस्य, इसकी पाठ विधि, इसके लाभ और किन परिस्थितियों में यह कवच चमत्कारी रूप से काम करता है।
वराह कवच भगवान विष्णु के वराह अवतार का एक शक्तिशाली स्तोत्र (कवच) है, जिसे संकटों से रक्षा, शत्रुओं पर विजय और आध्यात्मिक उन्नति के लिए पढ़ा जाता है। यह कवच साधक को नकारात्मक ऊर्जा, भय और बाधाओं से सुरक्षा प्रदान करता है।
आद्यं रङ्गमिति प्रोक्तं विमानं रङ्गसंज्ञितम् ।
श्रीमुष्णं वेङ्कटाद्रिं च साळग्रामं च नैमिशम् ॥
तोयाद्रिं पुष्करं चैव नरनारायणाश्रमम् ।
अष्टौ मे मूर्तयः सन्ति स्वयं व्यक्ता महीतले ॥
श्रीसूतः -
श्रीरुद्रमुखनिर्णीतमुरारिगुणसत्कथा ।
सन्तुष्टा पार्वती प्राह शङ्करं लोकशङ्करम् ॥ १॥
श्रीपार्वत्युवाच -
श्रीमुष्णेशस्य माहात्म्यं वराहस्य महात्मनः ।
श्रुत्वा तृप्तिर्न मे जाता मनः कौतूहलायते ।
श्रोतुं तद्देवमाहात्म्यं तस्माद्वर्णय मे पुनः ॥ २॥
श्रीशङ्कर उवाच -
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि श्रीमुष्णेशस्य वैभवम् ।
यस्य श्रवणमात्रेण महापापैः प्रमुच्यते ।
सर्वेषामेव तीर्थानां तीर्थराजोऽभिधीयते ॥ ३॥
नित्यपुष्करिणी नाम्नी श्रीमुष्णे या च वर्तते ।
जाता श्रमापहा पुण्या वराहश्रमवारिणा ॥ ४॥
विष्णोरङ्गुष्ठसंस्पर्शात्पुण्यदा खलु जाह्नवी ।
विष्णोः सर्वाङ्गसम्भूता नित्यपुष्करिणी शुभा ॥ ५॥
महानदीसहस्त्रेण नित्यदा सङ्गता शुभा ।
सकृत्स्नात्वा विमुक्ताघः सद्यो याति हरेः पदम् ॥ ६॥
तस्या आग्नेयभागे तु अश्वत्थच्छाययोदके ।
स्नानं कृत्वा पिप्पलस्य कृत्वा चापि प्रदक्षिणम् ॥ ७॥
दृष्ट्वा श्वेतवराहं च मासमेकं नयेद्यदि ।
कालमृत्युं विनिर्जित्य श्रिया परमया युतः ॥ ८॥
आधिव्याधिविनिर्मुक्तो ग्रहपीडाविवर्जितः ।
भुक्त्वा भोगाननेकांश्च मोक्षमन्ते व्रजेद्ध्रुवम् ॥ ९॥
अश्वत्थमूलेऽर्कवारे नित्यपुष्करिणीतटे ।
वराहकवचं जप्त्वा शतवारं जितेन्द्रियः ॥ १०॥
क्षयापस्मारकुष्ठाद्यैः महारोगैः प्रमुच्यते ।
वराहकवचं यस्तु प्रत्यहं पठते यदि ॥ ११॥
शत्रुपीडाविनिर्मुक्तो भूपतित्वमवाप्नुयात् ।
लिखित्वा धारयेद्यस्तु बाहुमूले गलेऽथ वा ॥ १२॥
भूतप्रेतपिशाचाद्याः यक्षगन्धर्वराक्षसाः ।
शत्रवो घोरकर्माणो ये चान्ये विषजन्तवः ।
नष्टदर्पा विनश्यन्ति विद्रवन्ति दिशो दश ॥ १३॥
श्रीपार्वत्युवाच -
तद्ब्रूहि कवचं मह्यं येन गुप्तो जगत्त्रये ।
सञ्चरेद्देववन्मर्त्यः सर्वशत्रुविभीषणः ।
येनाप्नोति च साम्राज्यं तन्मे ब्रूहि सदाशिव ॥ १४॥
श्रीशङ्कर उवाच -
शृणु कल्याणि वक्ष्यामि वाराहकवचं शुभम् ।
येन गुप्तो लभेन्मर्त्यो विजयं सर्वसम्पदम् ॥ १५॥
अङ्गरक्षाकरं पुण्यं महापातकनाशनम् ।
सर्वरोगप्रशमनं सर्वदुर्ग्रहनाशनम् ॥ १६॥
विषाभिचारकृत्यादि शत्रुपीडानिवारणम् ।
नोक्तं कस्यापि पूर्वं हि गोप्याद्गोप्यतरं यतः ॥ १७॥
वराहेण पुरा प्रोक्तं मह्यं च परमेष्ठिने ।
युद्धेषु जयदं देवि शत्रुपीडानिवारणम् ॥ १८॥
वराहकवचाद्गुप्तो नाशुभं लभते नरः ।
वराहकवचस्यास्य ऋषिर्ब्रह्मा प्रकीर्तितः ॥ १९॥
छन्दोऽनुष्टुप् तथा देवो वराहो भूपरिग्रहः ।
प्रक्षाल्य पादौ पाणी च सम्यगाचम्य वारिणा ॥ २०॥
कृतस्वाङ्गकरन्यासः सपवित्र उदङ्मुखः ।
ओं भूर्भुवःसुवरिति नमो भूपतयेऽपि च ॥ २१॥
नमो भगवते पश्चाद्वराहाय नमस्तथा ।
एवं षडङ्गं न्यासं च न्यसेदङ्गुलिषु क्रमात् ॥ २२॥
नमः श्वेतवराहाय महाकोलाय भूपते ।
यज्ञाङ्गाय शुभाङ्गाय सर्वज्ञाय परात्मने ॥ २३॥
स्रवतुण्डाय धीराय परब्रह्मस्वरूपिणे ।
वक्रदंष्ट्राय नित्याय नमोऽन्तैर्नामभिः क्रमात् ॥ २४॥
अङ्गुलीषु न्यसेद्विद्वान् करपृष्ठतलेष्वपि ।
ध्यात्वा श्वेतवराहं च पश्चान्मन्त्रमुदीरयेत् ॥ २५॥
ॐ श्वेतं वराहवपुषं क्षितिमुद्धरन्तं
शङ्खारिसर्ववरदाभययुक्तबाहुम् ।
ध्यायेन्निजैश्च तनुभिः सकलैरुपेतं
पूर्णं विभुं सकलवाञ्छितसिद्धयेऽजम् ॥ २६॥
वराहः पूर्वतः पातु दक्षिणे दण्डकान्तकः ।
हिरण्याक्षहरः पातु पश्चिमे गदया युतः ॥ २७॥
उत्तरे भूमिहृत्पातु अधस्ताद्वायु वाहनः ।
ऊर्ध्वं पातु हृषीकेशो दिग्विदिक्षु गदाधरः ॥ २८॥
प्रातः पातु प्रजानाथः कल्पकृत्सङ्गमेऽवतु ।
मध्याह्ने वज्रकेशस्तु सायाह्ने सर्वपूजितः ॥ २९॥
प्रदोषे पातु पद्माक्षो रात्रौ राजीवलोचनः ।
निशीन्द्रगर्वहा पातु पातूषः परमेश्वरः ॥ ३०॥
अटव्यामग्रजः पातु गमने गरुडासनः ।
स्थले पातु महातेजाः जले पात्ववनीपतिः ॥ ३१॥
गृहे पातु गृहाध्यक्षः पद्मनाभः पुरोऽवतु ।
झिल्लिकावरदः पातु स्वग्रामे करुणाकरः ॥ ३२॥
रणाग्रे दैत्यहा पातु विषमे पातु चक्रभृत् ।
रोगेषु वैद्यराजस्तु कोलो व्याधिषु रक्षतु ॥ ३३॥
तापत्रयात्तपोमूर्तिः कर्मपाशाच्च विश्वकृत् ।
क्लेशकालेषु सर्वेषु पातु पद्मापतिर्विभुः ॥ ३४॥
हिरण्यगर्भसंस्तुत्यः पादौ पातु निरन्तरम् ।
गुल्फौ गुणाकरः पातु जङ्घे पातु जनार्दनः ॥ ३५॥
जानू च जयकृत्पातु पातूरू पुरुषोत्तमः ।
रक्ताक्षो जघने पातु कटिं विश्वम्भरोऽवतु ॥ ३६॥
पार्श्वे पातु सुराध्यक्षः पातु कुक्षिं परात्परः ।
नाभिं ब्रह्मपिता पातु हृदयं हृदयेश्वरः ॥ ३७॥
महादंष्ट्रः स्तनौ पातु कण्ठं पातु विमुक्तिदः ।
प्रभञ्जनपतिर्बाहू करौ कामपिताऽवतु ॥ ३८॥
हस्तौ हंसपतिः पातु पातु सर्वाङ्गुलीर्हरिः ।
सर्वाङ्गश्चिबुकं पातु पात्वोष्ठौ कालनेमिहा ॥ ३९॥
मुखं तु मधुहा पातु दन्तान् दामोदरोऽवतु ।
नासिकामव्ययः पातु नेत्रे सूर्येन्दुलोचनः ॥ ४०॥
फालं कर्मफलाध्यक्षः पातु कर्णौ महारथः ।
शेषशायी शिरः पातु केशान् पातु निरामयः ॥ ४१॥
सर्वाङ्गं पातु सर्वेशः सदा पातु सतीश्वरः ।
इतीदं कवचं पुण्यं वराहस्य महात्मनः ॥ ४२॥
यः पठेच्छृणुयाद्वापि तस्य मृत्युर्विनश्यति ।
तं नमस्यन्ति भूतानि भीताः साञ्जलिपाणयः ॥ ४३॥
राजदस्युभयं नास्ति राज्यभ्रंशो न जायते ।
यन्नामस्मरणाद्भीताः भूतवेताळराक्षसाः ॥ ४४॥
महारोगाश्च नश्यन्ति सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ।
कण्ठे तु कवचं बद्ध्वा वन्ध्या पुत्रवती भवेत् ॥ ४५॥
शत्रुसैन्यक्षयप्राप्तिः दुःखप्रशमनं तथा ।
उत्पातदुर्निमित्तादि सूचितारिष्टनाशनम् ॥ ४६॥
ब्रह्मविद्याप्रबोधं च लभते नात्र संशयः ।
धृत्वेदं कवचं पुण्यं मान्धाता परवीरहा ॥ ४७॥
जित्वा तु शाम्बरीं मायां दैत्येन्द्रानवधीक्षणात् ।
कवचेनावृतो भूत्वा देवेन्द्रोऽपि सुरारिहा ॥ ४८॥
भूम्योपदिष्टकवचधारणान्नरकोऽपि च ।
सर्वावध्यो जयी भूत्वा महतीं कीर्तिमाप्तवान् ॥ ४९॥
अश्वत्थमूलेऽर्कवारे नित्यपुष्करिणीतटे ।
वराहकवचं जप्त्वा शतवारं पठेद्यदि ॥ ५०॥
अपूर्वराज्यसंप्राप्तिं नष्टस्य पुनरागमम् ।
लभते नात्र सन्देहः सत्यमेतन्मयोदितम् ॥ ५१॥
जप्त्वा वराहमन्त्रं तु लक्षमेकं निरन्तरम् ।
दशांशं तर्पणं होमं पायसेन घृतेन च ॥ ५२॥
कुर्वन् त्रिकालसन्ध्यासु कवचेनावृतो यदि ।
भूमण्डलाधिपत्यं च लभते नात्र संशयः ॥ ५३॥
इदमुक्तं मया देवि गोपनीयं दुरात्मनाम् ।
वराहकवचं पुण्यं संसारार्णवतारकम् ॥ ५४॥
महापातककोटिघ्नं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् ।
वाच्यं पुत्राय शिष्याय सद्वृत्ताय सुधीमते ॥ ५५॥
श्रीसूतः -
इति पत्युर्वचः श्रुत्वा देवी सन्तुष्टमानसा ।
विनायकगुहौ पुत्रौ प्रपेदे द्वौ सुरार्चितौ ।
कवचस्य प्रभावेन लोकमाता च पार्वती ॥ ५६॥
य इदं शृणुयान्नित्यं यो वा पठति नित्यशः ।
स मुक्तः सर्वपापेभ्यो विष्णुलोके महीयते ॥ ५७॥
इति श्रीवराहकवचं सम्पूर्णम् ।
वराह कवच व्यक्ति को नकारात्मक ऊर्जाओं, बुरी शक्तियों और तंत्र-मंत्र के प्रभाव से बचाता है। यह कवच हर प्रकार की बुरी दृष्टि (नज़र दोष) और बुरी आत्माओं से सुरक्षा प्रदान करता है।
जो व्यक्ति इसे नित्य पढ़ता है, उसे किसी भी प्रकार के भय का सामना नहीं करना पड़ता। शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में सहायक होता है और जीवन में निर्भीकता आती है।
यह कवच पारिवारिक सुख-शांति और आर्थिक समृद्धि को बढ़ाने में मदद करता है। व्यापार, नौकरी और अन्य कार्यों में सफलता दिलाने में सहायक होता है।
वराह कवच का पाठ करने से शरीर स्वस्थ और रोगमुक्त रहता है। यह दीर्घायु और अच्छी सेहत प्रदान करने वाला माना जाता है।
भगवान विष्णु के वराह रूप की कृपा से साधक को भक्ति, आत्मविश्वास और ध्यान में लाभ मिलता है। यह कवच मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को प्रशस्त करता है।
वराह अवतार को भूमि (धरती) का रक्षक माना जाता है, इसलिए इस कवच का पाठ करने से भूमि संबंधी समस्याओं से मुक्ति मिलती है। संपत्ति और धन से जुड़ी कठिनाइयों से बचाने में सहायक होता है।
यह कवच व्यक्ति के मन को शांत और स्थिर करता है, जिससे मानसिक तनाव कम होता है। निर्णय लेने की क्षमता और आत्मविश्वास को बढ़ाता है।
· सुबह ब्रह्ममुहूर्त (4-6 बजे) या संध्या काल (शाम) को पाठ करना श्रेष्ठ होता है।
· स्वच्छ और शांत स्थान का चयन करें, जहाँ कोई बाधा न हो।
· यदि संभव हो तो पूजा कक्ष या भगवान विष्णु/वराह देव की मूर्ति या चित्र के सामने बैठें।
· पाठ करने से पहले स्नान कर लें फिर उसके बाद स्वच्छ वस्त्र धारण कर लें।
· पवित्रता बनाए रखें।
· भगवान विष्णु या वराह देव का चित्र/मूर्ति
· दीपक (घी का दीप जलाना उत्तम)
· अगरबत्ती या धूप
· पुष्प और तुलसी पत्र
· फल व नैवेद्य
· जल से भरा कलश
पाठ प्रारंभ करने से पहले संकल्प लें- "ॐ विष्णवे नमः। मैं भगवान वराह की कृपा प्राप्ति हेतु इस कवच का पाठ कर रहा/रही हूँ। प्रभु मुझे बल, बुद्धि, भक्ति, शांति और समृद्धि प्रदान करें।" इसके बाद ‘ॐ’ का 3 बार उच्चारण करें।
भगवान वराह देव का ध्यान करें। "ॐ नमो भगवते वराहाय।" मंत्र का जाप करें। भगवान वराह के स्वरूप और शक्ति का स्मरण करें।
· अब श्रद्धा और भावपूर्वक वराह कवच स्तोत्र का पाठ करें।
· यदि पाठ संस्कृत में करें तो उच्चारण शुद्ध रखें।
· एकाग्रता और मन से पढ़ें, जल्दीबाजी न करें।
· पाठ पूर्ण होने पर भगवान वराह देव को धन्यवाद दें।
· "हे वराह भगवान! आपकी कृपा से मेरी रक्षा हो। मुझे शक्ति और सद्बुद्धि प्रदान करें।"
· अंत में भगवान को पुष्प अर्पित करें और प्रसाद ग्रहण करें।
· नित्य पाठ करें, विशेष रूप से मंगलवार और शनिवार को करने से विशेष फल मिलता है।
· संख्या: यदि विशेष सिद्धि चाहिए तो 7, 11, 21, 51, या 108 बार पाठ करें।
· अखंड पाठ: यदि कोई बड़ा कार्य करना हो तो परिवार या समूह में मिलकर अखंड पाठ करें।
पाठ के बाद "ॐ नमो भगवते वराहाय" मंत्र का 108 बार जप करें। अगर भूमि-संपत्ति की रक्षा के लिए कर रहे हैं तो पाठ के बाद जल में तुलसी डालकर चारों दिशाओं में छिड़कें।
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