समुद्र मंथन कहाँ हुआ था? इस लेख में आप जानेंगे समुद्र मंथन की प्रक्रिया और उसका महत्व।
समुद्र मंथन हिंदू पुराणों में वर्णित एक महत्वपूर्ण घटना है, जिसमें देवताओं और असुरों ने अमृत प्राप्त करने के लिए क्षीर सागर का मंथन किया था। मंदराचल पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को रस्सी बनाया गया। मंथन से 14 रत्न निकले, जिनमें लक्ष्मी माता, कामधेनु, पारिजात वृक्ष और अमृत प्रमुख थे।
सनातन धर्म में सबसे महत्वपूर्ण पुराणों में से एक विष्णु पुराण में समुद्र मंथन का विस्तार से वर्णन किया गया है। समुद्र मंथन में देवताओं और असुरों ने मिलकर अमृत की प्राप्ति के लिए समुद्र का मंथन किया था। इस मंथन में जहाँ एक और हलाहल जैसा विनाशकारी विष का उद्गम हुआ, वहीं देवों को कामधेनु और कल्पवृक्ष की भी प्राप्ति हुई। इसी समुद्र मंथन से माँ लक्ष्मी प्रकट हुई, और आरोग्य के देवता धन्वंतरि का जन्म हुआ। इस समुद्र मंथन से जुड़े अवशेष अभी भी भारत में एक ऐसे स्थान पर देखने को मिलते हैं, जो भक्तों के लिए विशेष महत्व रखता है।
समुद्र मंथन का स्थान पौराणिक कथाओं में क्षीरसागर (दूध का समुद्र) बताया गया है । भौगोलिक दृष्टि से, बिहार के बांका जिले में स्थित मंदरांचल पर्वत श्रृंखला या मंदार पर्वत को समुद्र मंथन का स्थान माना जाता है। यह पर्वत बिहार और झारखंड की सीमा पर स्थित बौंसी नामक क्षेत्र में है। यहां पापहारिणी तालाब के पास समुद्र मंथन से संबंधित कई प्रमाण और कथाएं प्रचलित हैं, जो इस स्थान की पौराणिक महत्ता को दर्शाते हैं। ऐसी मान्यता है कि बौंसी का पौराणिक नाम बासुकि अथवा वासुकि ही है। समुद्र मंथन के समय जिन वासुकि नाग ने मंदार पर्वत के ऊपर लिपटी रस्सी का रूप धारण किया था, उन्हीं के नाम पर इस स्थान का नाम वासुकि पड़ा। आगे चलकर यह बासुकि और अब बौंसी के नाम से जाना जाता है। यह स्थान भागलपुर से लगभग 50 किलोमीटर की दुरी पर है।
एक पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार महर्षि दुर्वासा ने स्वर्ग के स्वामी देवराज इंद्र को एक दिव्य पुष्प से बनी माला भेंट स्वरूप दी। इस माला से बहुत ही तीव्र सुगंध आ रही थी, जो पृथ्वी पर कहीं और नहीं मिल सकती थी। इसकी दिव्यता के कारण ऋषि दुर्वासा ने इसे स्वर्ग के योग्य समझा, लेकिन इंद्रदेव ने उस भेंट का उचित सम्मान नहीं किया, उल्टा इसका उपहास करने लगे। इससे क्रोधित होकर दुर्वासा ऋषि ने इंद्र को 'श्री' अर्थात लक्ष्मी से हीन होने का शाप दे दिया। इस शाप के परिणामस्वरूप, स्वर्गलोक धन, वैभव और ऐश्वर्य से विहीन हो गया, और सभी देवताओं की शक्ति क्षीण हो गई।
इस स्थिति का लाभ उठाकर असुरों के राजा दैत्यराज बलि ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और देवताओं को पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार जमा लिया। ऐसी विकट परिस्थिति से निपटने के लिए देवता भगवान विष्णु के पास पहुंचे। भगवान विष्णु ने देवों और असुरों के बीच युद्ध को रोकने और देवताओं को उनकी शक्ति लौटाने के लिए उन्हें समुद्र मंथन करने का सुझाव दिया, जिससे वे पुनः अपनी शक्तियाँ और वैभव प्राप्त कर सकें। जब दैत्यगुरु शुक्राचार्य को यह बात पता चली तो उन्होंने असुरों के भी इस समुद्र मंथन का हिस्सा बनने की अपनी इच्छा श्री हरि के समक्ष रखी, ताकि देवताओं और असुरों में संतुलन बना रहें।
इस तरह समद्र मंथन में देवों और असुरों दोनों को सम्मिलित किया गया।
समुद्र मंथन के लिए मंदराचल पर्वत ने मथनी और वासुकि नाग ने रस्सी का रूप धारण किया। इस मंथन में भगवान विष्णु ने कूर्म का रूप धारण कर समुद्र के तल में मंदराचल पर्वत को स्थिर रखा, ताकि मंथन सुचारू रूप से हो सके। एक ओर देवता और दूसरी ओर असुर, दोनों ने मिलकर इस समुद्र मंथन को संपन्न किया।
समुद्र मंथन के दौरान 14 दिव्य रत्नों का उद्गम हुआ जो इस प्रकार हैं:
कहा जाता है कि समुद्र मंथन के निशान मंदार पर्वत पर अब भी देखने को मिल सकते हैं, जो असल में वासुकि नाग के शरीर से बने हैं। इस स्थान पर आज भी लाखों भक्त आकर अपने पापों से मुक्ति पाते हैं। अपने जीवनकाल में एक बार इस स्थान के दर्शन अवश्य करें, और ऐसी ही अन्य धार्मिक जानकारियों के लिए जुड़े रहिये श्री मंदिर के साथ।
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