श्री राम रक्षा स्तोत्रम् (Shri Ram Raksha Stotra)
हिन्दू धर्म में प्रत्येक भगवान की पूजा अर्चना करने का अलग अलग विधान है। इसी तरह हर भगवान की स्तुति करने के लिए अलग अलग मंत्र और स्त्रोत भी है। इन स्रोतों का अपना महत्व है। ऐसा माना जाता है कि इन स्रोतों का पाठ करने से जातक को पापों से मुक्ति मिलती है। साथ ही मोक्ष प्राप्ति के मार्ग खुल जाते हैं। ऐसा ही एक स्त्रोत है "राम रक्षा स्त्रोत "। ऐसा माना जाता है कि इस स्त्रोत का पाठ करने से परिवार में सुख समृद्धि रहती है।
श्री राम रक्षा स्तोत्र का महत्व (Importance of Shri Ram Raksha Stotram)
ऋषि बुध कौशिक द्वारा रचित यह राम रक्षा स्त्रोत कई तरह के रोगों से मुक्ति दिलाता है। ऐसा माना जाता है कि राम रक्षा स्तोत्र का नियमित पाठ करने से हर मनोकामनाएं पूर्ण होती है। इसके लिए इस पाठ को दिन में 11 बार करना चाहिए और 41 दिनों तक प्रतिदिन नियमित रूप से करना चाहिए। इतना ही नहीं इस पाठ से धन की प्राप्ति भी होती है। अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्ति के लिए भी यह स्त्रोत अत्यंत लाभकारी होता है।
श्री राम रक्षा स्तोत्रम् पढ़ने के फायदे (Benefits of reading Shri Ram Raksha Stotra)
- यदि अचानक कोई विपत्ति आ जाये या फिर ऐसा लगने लगे कि सफलता की कोई उम्मीद नहीं है। तो ऐसे समय में राम रक्षा स्त्रोत का पाठ करना चाहिए।
- संतान प्राप्ति के लिए भी इस स्त्रोत का पाठ करना अच्छा माना गया है। इसके लिए दम्पति को नियमित रूप से इसका पाठ करना चाहिए।
- इस स्त्रोत का नियमित रूप से पाठ करने से जातक को सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाती है।
- यदि किसी की कुंडली में मंगल का दुष्प्रभाव है तो इस स्त्रोत का पाठ करने से मंगल के दुष्प्रभाव को कम किया जा सकता है।
श्री राम रक्षा स्तोत्रम् का हिंदी अर्थ (Hindi meaning of Shri Ram Raksha Stotram)
श्री गणेशायनम:
ॐ अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य बुधकौशिक ऋषि: श्रीसीतारामचंद्रोदेवता अनुष्टुप्छन्द: सीता शक्ति: श्रीमद्हनुमान् कीलकम् श्रीरामचंद्रप्रीत्यर्थे रामरक्षास्तोत्रजपे विनियोग:॥
अर्थात - राम रक्षा स्तोत्र मंत्र के रचयिता बुध कौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमान जी कीलक है तथा श्री रामचंद्र जी की प्रसन्नता हेतु राम रक्षा स्तोत्र के जप में विनियोग किया जाता हैं |
॥ अथ ध्यानम् ॥
ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्मासनस्थं । पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम् ॥ वामाङ्कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं । नानालङ्कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम् ॥
अर्थात - जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं, बद्दपद्मासन की मुद्रा में विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दल के समान स्पर्धा करते हैं, जो बाईं तरफ स्थित सीता जी के मुख कमल से मिले हुए हैं उन आजानु बाहु, मेघश्याम, विभिन्न अलंकारों से विभूषित तथा जटाधारी श्रीराम का ध्यान करें |
॥ स्तोत्रम् ॥
चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् । एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ॥1॥
अर्थात - श्री रघुनाथजी का चरित्र सौ करोड़ विस्तार वाला हैं। उसका एक-एक अक्षर महापातकों को नष्ट करने वाला है।
ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम् । जानकीलक्ष्मणॊपेतं जटामुकुटमण्डितम् ॥2॥
अर्थात - नीले कमल के श्याम वर्ण वाले, कमल नेत्र वाले, जटाओं के मुकुट से सुशोभित, जानकी तथा लक्ष्मण सहित ऐसे भगवान् श्री राम का स्मरण करके।
सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम् । स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम् ॥3॥
अर्थात - जो अजन्मा एवं सर्वव्यापक, हाथों में खड्ग, तुणीर, धनुष-बाण धारण किए राक्षसों के संहार तथा अपनी लीलाओं से जगत रक्षा हेतु अवतीर्ण श्रीराम का स्मरण करके,
रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञ: पापघ्नीं सर्वकामदाम् । शिरो मे राघव: पातु भालं दशरथात्मज: ॥4॥
अर्थात - मैं सर्वकामप्रदा और पापों को नष्ट करने वाले राम रक्षा स्तोत्र का पाठ करता हूँ। राघव मेरे सिर की और दशरथ के पुत्र मेरे ललाट की रक्षा करें।
कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती । घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल: ॥5॥
अर्थात - कौशल्या नंदन मेरे नेत्रों की, विश्वामित्र के प्रिय मेरे कानों की, यज्ञरक्षक मेरे घ्राण की और सुमित्रा के वत्सल मेरे मुख की रक्षा करें।
जिव्हां विद्दानिधि: पातु कण्ठं भरतवंदित: । स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक: ॥6॥
अर्थात - मेरी जिह्वा की विधानिधि रक्षा करें, कंठ की भरत-वंदित, कंधों की दिव्यायुध और भुजाओं की महादेव जी का धनुष तोड़ने वाले भगवान् श्री राम रक्षा करें।
करौ सीतपति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित् । मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय: ॥7॥
अर्थात - मेरे हाथों की सीता पति श्री राम रक्षा करें, हृदय की जमदग्नि ऋषि के पुत्र (परशुराम) को जीतने वाले, मध्य भाग की खर (नाम के राक्षस) के वध कर्ता और नाभि की जांबवान के आश्रयदाता रक्षा करें।
सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: । ऊरू रघुत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत् ॥8॥
अर्थात - मेरे कमर की सुग्रीव के स्वामी, हड्डियों की हनुमान के प्रभु और रानों की राक्षस कुल का विनाश करने वाले रघु श्रेष्ठ रक्षा करें।
जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्घे दशमुखान्तक: । पादौ बिभीषणश्रीद: पातु रामोSखिलं वपु: ॥9॥
अर्थात - मेरे जानुओं की सेतुकृत, जंघाओं की दशानन वध कर्ता, चरणों की विभीषण को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले और सम्पूर्ण शरीर की श्रीराम रक्षा करें |
एतां रामबलोपेतां रक्षां य: सुकृती पठॆत् । स चिरायु: सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत् ॥10॥
अर्थात - शुभ कार्य करने वाला जो भक्त भक्ति एवं श्रद्धा के साथ रामबल से संयुक्त होकर इस स्तोत्र का पाठ करता हैं, वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता है।
पातालभूतलव्योम चारिणश्छद्मचारिण: । न द्र्ष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभि: ॥11॥
अर्थात - जो जीव पाताल, पृथ्वी और आकाश में विचरते रहते हैं अथवा छद्दम वेश में घूमते रहते हैं, वे राम नामों से सुरक्षित मनुष्य को देख भी नहीं पाते।
रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन् । नरो न लिप्यते पापै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥12॥
अर्थात - राम, रामभद्र तथा रामचंद्र आदि नामों का स्मरण करने वाला रामभक्त पापों से लिप्त नहीं होता। इतना ही नहीं वह अवश्य ही भोग और मोक्ष दोनों को प्राप्त करता है।
जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम् । य: कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्द्दय: ॥13॥
अर्थात - जो संसार पर विजय प्राप्त करने वाले मंत्र राम-नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेता है, उसे संपूर्ण सिद्धियां प्राप्त हो जाती है।
वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत् । अव्याहताज्ञ: सर्वत्र लभते जयमंगलम् ॥14॥
अर्थात - जो मनुष्य वज्रपंजर नामक इस राम कवच का स्मरण करता हैं, उसकी आज्ञा का कहीं भी उल्लंघन नहीं होता तथा उसे सदैव विजय और मंगल की ही प्राप्ति होती हैं।
आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हर: । तथा लिखितवान् प्रात: प्रबुद्धो बुधकौशिक:॥15॥
अर्थात - भगवान् शंकर ने बुध कौशिक ऋषि को स्वप्न में इस रामरक्षा स्तोत्र का आदेश दिया था, उन्होंने प्रातः काल जागने पर उसे वैसा ही लिख दिया।
आराम: कल्पवृक्षाणां विराम: सकलापदाम् । अभिरामस्त्रिलोकानां राम: श्रीमान् स न: प्रभु: ॥16॥
अर्थात - जो कल्प वृक्षों के बगीचे के समान विश्राम देने वाले हैं, जो समस्त विपत्तियों को दूर करने वाले हैं और जो तीनो लोकों में सुंदर हैं, वही श्रीमान् राम हमारे प्रभु हैं।
तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ । पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥17॥
अर्थात - जो युवा,सुन्दर, सुकुमार,महाबली और कमल (पुण्डरीक) के समान विशाल नेत्रों वाले हैं, मुनियों की तरह वस्त्र एवं काले मृग का चर्म धारण करते हैं।
फलमूलशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ । पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥18॥
अर्थात - जो फल और कंद का आहार ग्रहण करते हैं, जो संयमी , तपस्वी एवं ब्रह्मचारी हैं , वे दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें।
शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम् । रक्ष:कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघुत्तमौ ॥19॥
अर्थात - ऐसे महाबली – रघु श्रेष्ठ मर्यादा पुरूषोतम समस्त प्राणियों के शरणदाता, सभी धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षसों के कुलों का समूल नाश करने में समर्थ हमारा त्राण करें।
आत्तसज्जधनुषा विषुस्पृशा वक्षया शुगनिषङ्ग सङिगनौ । रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा वग्रत: पथि सदैव गच्छताम्॥20॥
अर्थात - संघान किए धनुष धारण किए, बाण का स्पर्श कर रहे, अक्षय बाणों से युक्त तूणीर लिए हुए राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिए मेरे आगे चलें।
संनद्ध: कवची खड्गी चापबाणधरो युवा । गच्छन्मनोरथोSस्माकं राम: पातु सलक्ष्मण: ॥21॥
अर्थात - हमेशा तत्पर, कवचधारी, हाथ में खडग, धनुष-बाण तथा युवावस्था वाले भगवान् राम लक्ष्मण सहित आगे-आगे चलकर हमारी रक्षा करें।
रामो दाशरथि: शूरो लक्ष्मणानुचरो बली । काकुत्स्थ: पुरुष: पूर्ण: कौसल्येयो रघुत्तम: ॥22॥
अर्थात - भगवान का कथन है कि श्री राम, दाशरथी, शूर, लक्ष्मनाचुर, बली, काकुत्स्थ , पुरुष, पूर्ण, कौसल्येयो, रघुत्तम,
वेदान्तवेद्यो यज्ञेश: पुराणपुरुषोत्तम: । जानकीवल्लभ: श्रीमानप्रमेय पराक्रम: ॥23॥
अर्थात - वेदान्त्वेघ, यज्ञेश,पुराण पुरूषोतम, जानकी वल्लभ, श्रीमान और अप्रमेय पराक्रम आदि नामों का
इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्भक्त: श्रद्धयान्वित: । अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशय: ॥24॥
अर्थात - नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करने वाले को निश्चित रूप से अश्वमेध यज्ञ से भी अधिक फल प्राप्त होता हैं |
रामं दूर्वादलश्यामं पद्माक्षं पीतवाससम् । स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नर: ॥25॥
अर्थात - दूर्वादल के समान श्याम वर्ण, कमल-नयन एवं पीतांबर धारी श्री राम की उपरोक्त दिव्य नामों से स्तुति करने वाला संसार चक्र में नहीं पड़ता।
रामं लक्ष्मण पूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम् । काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम् राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथनयं श्यामलं शान्तमूर्तिम् । वन्दे लोकभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम् ॥26॥
अर्थात - लक्ष्मण जी के पूर्वज, सीताजी के पति, काकुत्स्थ, कुल-नंदन, करुणा के सागर, गुण-निधान, विप्र भक्त, परम धार्मिक, राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथ के पुत्र, श्याम और शांत मूर्ति, सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर, रघुकुल तिलक, राघव एवं रावण के शत्रु भगवान् राम की मैं वंदना करता हूँ।
रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे । रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम: ॥27॥
अर्थात - राम, रामभद्र, रामचंद्र, विधात स्वरूप , रघुनाथ, प्रभु एवं सीता जी के स्वामी की मैं वंदना करता हूँ।
श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम । श्रीराम राम भरताग्रज राम राम । श्रीराम राम रणकर्कश राम राम । श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥28॥
अर्थात - हे रघुनंदन श्री राम ! हे भरत के अग्रज भगवान् राम! हे रणधीर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ! आप मुझे शरण दीजिए।
श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥29॥
अर्थात - मैं एकाग्र मन से श्री रामचंद्र जी के चरणों का स्मरण और वाणी से गुणगान करता हूँ, वाणी द्वारा और पूरी श्रद्धा सहित भगवान् रामचंद्र के चरणों को प्रणाम करते हुए मैं उनके चरणों की शरण लेता हूँ।
माता रामो मत्पिता रामचंन्द्र: । स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र: । सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु । नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥30॥
अर्थात - श्री राम मेरे माता, मेरे पिता, मेरे स्वामी और मेरे सखा हैं। इस प्रकार दयालु श्री राम मेरे सर्वस्व हैं। उनके सिवा मैं किसी दूसरे को नहीं जानता।
दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा । पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनंदनम् ॥31॥
अर्थात - जिनके दाईं और लक्ष्मण जी, बाईं और जानकी जी और सामने हनुमान ही विराजमान हैं, मैं उन्हीं रघुनाथ जी की वंदना करता हूँ।
लोकाभिरामं रनरङ्गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम् । कारुण्यरूपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥32॥
अर्थात - मैं सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर तथा रणक्रीड़ा में धीर, कमलनेत्र, रघुवंशी नायक, करुणा की मूर्ति और करुणा के भंडार श्री राम की शरण में हूँ।
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् । वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥33॥
अर्थात - जिनकी गति मन के समान और वेग वायु के समान (अत्यंत तेज) है, जो परम जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, मैं उन पवन-नंदन वानारग्रगण्य श्री राम दूत की शरण लेता हूँ।
कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम् । आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥34॥
अर्थात - मैं कवितामयी डाली पर बैठकर, मधुर अक्षरों वाले ‘राम-राम’ के मधुर नाम को गूंजते हुए वाल्मीकि रुपी कोयल की वंदना करता हूँ। आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम् । लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥35॥
अर्थात - मैं इस संसार के प्रिय एवं सुन्दर उन भगवान् राम को बार-बार नमन करता हूँ, जो सभी आपदाओं को दूर करने वाले तथा सुख-संपत्ति प्रदान करने वाले हैं।
भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम् । तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम् ॥36॥
अर्थात - ‘राम-राम’ का जप करने से मनुष्य के सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं। वह समस्त सुख-सम्पति तथा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता हैं। राम-राम की गर्जना से यमदूत सदा भयभीत रहते हैं।
रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे। रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: । रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोस्म्यहम् । रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥37॥
अर्थात - राजाओं में श्रेष्ठ श्रीराम सदा विजय को प्राप्त करते हैं। मैं लक्ष्मीपति भगवान् श्रीराम का भजन करता हूँ। सम्पूर्ण राक्षस सेना का नाश करने वाले श्रीराम को मैं प्रणाम करता हूँ। श्रीराम के समान कोई अन्य आश्रयदाता नहीं। मैं उन शरणागत वत्सल का दास हूँ। मैं हमेशा श्रीराम मैं ही लीन रहूँ। हे श्री राम, आप मेरा उद्धार करें।
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे । सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥38॥
अर्थात - (शिव पार्वती से बोले –) हे सुमुखी ! राम नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ के समान है। मैं सदा राम का स्तवन करता हूँ और राम नाम में ही रमण करता हूँ।
इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम् ॥
॥ श्री सीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥