विष्णु सहस्रनाम स्तोत्रम् | Vishnu Sahasranama Stotram
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विष्णु सहस्रनाम स्तोत्रम् | Vishnu Sahasranama Stotram

विष्णु सहस्रनाम स्तोत्रम् के पाठ से जीवन में सुख, शांति, समृद्धि और पापों से मुक्ति प्राप्त होती है। यह स्तोत्र भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त करने का सर्वोत्तम मार्ग है, जो मन, बुद्धि और आत्मा को शुद्ध करता है। जानिए इसका सम्पूर्ण पाठ और महत्व।

विष्णु सहस्रनाम स्तोत्रम् के बारे में

विष्णु सहस्रनाम स्तोत्रम् भगवान विष्णु के हजार नामों से युक्त एक पवित्र स्तोत्र है। इसके पाठ से मन की शुद्धि, पापों का क्षय और जीवन में सुख-समृद्धि प्राप्त होती है। श्रद्धा और नियमितता से जप करने पर भगवान विष्णु की कृपा मिलती है और सभी बाधाएँ दूर होती हैं। इस लेख में जानिए विष्णु सहस्रनाम स्तोत्रम् का महत्व और इसके पाठ से मिलने वाले लाभ।

विष्णु सहस्रनाम (Vishnu Sahasranamam)

हिंदू धर्म में तीन देवताओं को मुख्य रूप से पूजा जाता है। सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा जी, विध्वंसक के रूप में भगवान शिव को और सृष्टि के संचालक के रूप में भगवान विष्णु जी की पूजा अर्चना की जाती है। भगवान विष्णु को सृष्टि के पालनकर्ता के रूप में भी जाना जाता है। मान्यता है कि इनकी पूजा-उपासना से मनुष्य के जीवन में सभी प्रकार की परेशानियां दूर हो जाती हैं।

ईश्वर से जुड़ने के सबसे सरल और प्रभावी तरीकों में से एक है, उनकी भक्ति के साथ श्लोक, स्तोत्र और मंत्रों का पाठ करना। विष्णु सहस्रनाम हिंदू धर्म के प्राचीन स्तोत्रों में से एक है। इसमें भगवान विष्णु के 1,000 नामों के द्वारा उनकी आराधना, उपासना की गई है। यह महाकाव्य महाभारत के एक भाग के रूप में है। इसे संस्कृत के विद्वान ऋषि व्यास जी ने लिखा है, जो कि कालातीत महाकाव्यों के लेखक भी हैं, जिसमें अध्यात्म रामायण, महाभारत, भगवद गीता, पुराण और अन्य स्तोत्र शामिल हैं।

विष्णु सहस्रनाम की पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार पांडवों में सबसे बड़े युधिष्ठिर धर्म को लेकर भ्रमित थे। वे भगवान श्रीकृष्ण के पास गए, श्री कृष्ण जी ने युधिष्ठिर को गीता का ज्ञान देने के बजाय उन्हें युद्ध के मैदान में मृत्यु की शैय्या पर लेटे महान योद्धा भीष्म पितामह के पास ले गए, जो अर्जुन के बाणों से घायल थे। कृष्ण की सलाह पर, युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से 6 सवालों के साथ जीवन के सभी पहलुओं पर मार्गदर्शन मांगा। अपने उत्तर में भीष्म पितामह ने कहा, जिसने भी युधिष्ठिर को जीवनदान दिया है उसके समक्ष सभी को समर्पण कर देना चाहिए। उनके हजार नामों का ध्यान व्यक्ति को सभी पापों से मुक्त करेगा और भीष्म ने भगवान विष्णु के एक हजार नाम बताए। कुरुक्षेत्र युद्ध के मैदान में ऋषि व्यास और भगवान श्रीकृष्ण इस क्षण के साक्षी थे। महाभारत के इस भाग को विष्णु सहस्रनाम कहा गया।

विष्णु सहस्रनाम का महत्व

भगवान विष्णु जी को जीवन का संरक्षक कहा जाता है। विष्णु जी की आराधना में कई पवित्र श्लोकों का पाठ किया जाता है, जिसमें सबसे प्रभावी विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र है। विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र में विष्णु जी के एक हजार नाम शामिल हैं। विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र एक शोधक व उद्धारकर्ता है। कहते हैं कि निष्ठापूर्ण भक्ति के साथ नियमित रूप से विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करना चाहिए, जो परम विश्वास के साथ भगवान की राह दिखाता है। विष्णु सहस्रनाम का पाठ करना या सिर्फ रोजाना सुनना, हमारी मानसिक शांति और स्थिरता को बनाए रखने में मदद करता है।

कोई भी व्यक्ति विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ रोजाना किसी भी समय अपनी सुविधानुसार कर सकता है, लेकिन इसे सूर्योदय के समय पढ़ना सबसे सर्वोत्तम माना जाता है। इस दौरान एक बात का अवश्य ध्यान रखें कि विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करते समय तन और मन दोनों साफ होना चाहिए। सूर्योदय के समय पूरी श्रद्धा भाव से विष्णु जी और माता लक्ष्मी का आह्वान करते हुए इसका पाठ शुरू कर सकते हैं। कहते हैं कि सूर्योदय के समय इसका पाठ करने से भगवान विष्णु की कृपा हमेशा घर के सभी सदस्यों पर बनी रहती है।

विष्णु सहस्रनाम पढ़ने के फायदे

  • विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र में भगवान विष्णु जी के एक हजार नामों का उल्लेख है। कहते हैं, इसमें जो श्लोक हैं वो व्यक्ति के लिए बहुत ही प्रभावी साबित होते हैं। प्रभु के एक हजार नामों का ध्यान व्यक्ति को सभी पापों से मुक्त करता है।

  • मान्यता है कि अगर किसी लड़के या लड़की का विवाह नहीं हो पा रहा है तो विष्णुसहस्रनाम का पाठ करने से उसे लाभ मिलता है, योग्य जीवन साथी मिलने में मदद मिलती है।

  • नियम के साथ विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति के मन से भय और तनाव दूर हो जाता है।

  • विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र के पाठ से मनुष्य की कई गंभीर बीमारियां ठीक हो जाती है।

  • इस स्तोत्र के अद्भुत श्लोकों से ग्रह, नक्षत्र को नियंत्रित किया जा सकता है।

  • मनुष्य के जीवन में बृहस्पति की पीड़ा दूर करने के लिए विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करना अति फलदायी माना जाता है।

  • कहते हैं कि अगर मनुष्य का बुध ग्रह उसे परेशान कर रहा हो तो विष्णु सहस्रनाम का पाठ उसके लिए अचूक होता है।

  • मान्यता है कि जिन लोगों का गुरु ग्रह नीच का हो या राहु के साथ विराजमान हो, उन्हें विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ नियमित रूप से अवश्य करना चाहिए।

  • इसके नियमित पाठ से धन संबंधी सभी परेशानी ख़त्म हो जाती है और धन के नए मार्ग खुलते हैं।

  • विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से मन शांत रहता है। संतान की प्राप्ति के लिए प्रतिदिन विष्णु सहस्रनाम का पाठ करना चाहिए।

विष्णु सहस्रनाम का हिंदी अर्थ

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विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः । भूतकृद्भूतभृद्भावो भूतात्मा भूतभावनः ॥

अर्थ: जो खुद में ब्रह्मांड हों, जो हर जगह विद्यमान हों, जिसका यज्ञ और आहुतियों के समय आवाहन किया जाता हो, भूत, वर्तमान और भविष्य के स्वामी, सब जीवों के निर्माता, सब जीवों के पालनकर्ता, भावना, सब जीवों के परमात्मा, सब जीवों की उत्पत्ति और पालन के आधार।

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पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः । अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च ॥

अर्थ: पवित्रात्मा, सभी आत्माओं के लिए पहुंचने वाले आंतिम लक्ष्य, अविनाशी, पुरुपुषोत्तम, बिना किसी व्यवधान के सब कुछ देखने वाले, क्षेत्र अर्थात समस्त प्रकृति रूप शरीर को जानने वाले, कभी क्षीण न होने वाले

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योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः । नारसिंहवपुः श्रीमान् केशवः पुरुषोत्तमः ॥

अर्थ: जिसे योग द्वारा पाया जा सके, योग को जानने वाले योगवेत्ताओं के नेता, प्रकृति और पुरुष के स्वामी, मनुष्य और सिंह दोनों के जैसे शरीर धरण करने वाले नरसिंह स्वरूप, जिसके वक्ष स्थल में सदा श्री बसती है, जिसके केश सुंदर हों, पुरुषों में उत्तम।

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सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुर्भूतादिर्निधिरव्ययः । संभवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः ॥

अर्थ: हमेशा सब कुछ जानने वाले, विनाशकारी या पवित्र, सदा शुद्ध, स्थिर सत्य, पंच तत्वों के आधार, अविनाशी निधि, अपनी इच्छा से उत्पन्न होने वाले, समस्त संसार का पालन करने वाले, पंच महाभूतों को उत्पन्न करने वाले, सर्व शक्तिमान भगवान्, जो बिना किसी के सहायता के कुछ भी कर सकते हैं।

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स्वयम्भूः शम्भुरदित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः । अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ॥

अर्थ: जो सबके ऊपर और स्वयं होते हैं, भक्तों के लिए सुख की भावना की उत्पत्ति करने वाले हैं, अदिति के पुत्र (वामन), जिनके नेत्र कमल के समान हैं, अति महान स्वर या घोष वाले, जिनका आदि और निधन दोनों ही नहीं है, शेष नाग के रूप में विश्व को धारण करने वाले, कर्म और उसके फलों की रचना करने वाले, अनंतादि अथवा सबको धारण करने वाले हैं।

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अप्रमेयो हृशीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः । विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ॥

अर्थ: जिन्हें जाना न जा सके, इन्द्रियों के स्वामी, जिसकी नाभि में जगत का कारण रूप पद्म स्थित है, देवता जो अमर हैं उनके स्वामी, विश्व जिसका कर्म अर्थात क्रिया है, मनन करने वाले, अतिशय स्थूल, प्राचीन एवं स्थिर।

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अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः । प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम् ॥

अर्थ: जो कर्मेन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं किए जा सकते, जो सब काल में हों, जिसका वर्ण श्याम हो, जिनके नेत्र लाल हों, जो प्रलयकाल में प्राणियों का संहार करते हैं, जो ज्ञान, ऐश्वर्य आदि गुणों से संपन्न हैं, ऊपर, नीचे और मध्य तीनों दिशाओं के धाम हैं, जो पवित्र करें, जो सबसे उत्तम हैं और समस्त अशुभों को दूर करते हैं।

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ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः । हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः ॥

अर्थ: सर्वभूर्वतों के नियंता, जो सदा जीवित हैं, सबसे अधिक वृद्ध या बड़े हैं, सबसे प्रशंसनीय, ईश्वररूप से सब प्रजाओं के पति, ब्रह्माण्डरूप अंडे के भीतर व्याप्त होने वाले, पृथ्वी जिनके गर्भ में स्थित है, मां अर्थात लक्ष्मी के धव अर्थात पति, मधु नामक दैत्य को मारने वाले।

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ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः । अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञ कृतिरात्मवान् ॥

अर्थ: सर्वशक्तिमान, धनुष धारण करने वाले, बहुत से ग्रंथों को धारण करने का सामर्थ्य रखने वाले, जगत को लांघ जाने वाले या गरुड़ पक्षी द्वारा गमन करने वाले, क्रमण (लांघना, दौड़ना) करने वाले या क्रम (विस्तार) वाले, जिससे उत्तम और कोई न हो, जो दैत्यादिकों से दबाया न जा सके, प्राणियों के किए हुए पाप पुण्यों को जानने वाले, सर्वात्मक, अपनी ही महिमा में स्थित होने वाले।

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सुरेशः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः । अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ॥

अर्थ: देवताओं के ईश, दीनों का दुख दूर करने वाले, परमानन्दस्वरूप, विश्व के कारण, जिनसे सम्पूर्ण प्रजा उत्पन्न होती है, प्रकाश स्वरूप, कालस्वरूप से स्थित हुए, व्याल (सर्प) के समान ग्रहण करने में न आ सकने वाले, प्रतीति रूप होने के कारण, सर्व स्वरूप होने के कारण सभी के नेत्र हैं।

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अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादिरच्युतः । वृषाकपिरमेयात्मा सर्वयोगविनिःसृतः ॥

अर्थ: अजन्मा, ईश्वरों का भी ईश्वर, नित्य सिद्ध, सर्व भूतों के आदि कारण, अपनी स्वरूप शक्ति से च्युत न होने वाले, वृष (धर्म) रूप और कपि (वराह) रूप, जिनके आत्मा का परिच्छेद न किया जा सके, सम्पूर्ण संबंधों से रहित।

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वसुर्वसुमनाः सत्यः समात्माऽसम्मितः समः । अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ॥

अर्थ: जो सब भूतों में बसते हैं और जिनमें सब भूत बसते हैं, जिनका मन प्रशस्त (श्रेष्ठ) है, सत्य स्वरुप, जो राग द्वेषादि से दूर हैं, समस्त पदार्थों से परिच्छिन्न, सदा समस्त विकारों से रहित, जो स्मरण किए जाने पर सदा फल देते हैं, हृदयस्थ कमल में व्याप्त होते हैं, जिनके कर्म धर्म रूप हैं, जिन्होंने धर्म के लिए ही शरीर धारण किया है।

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रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिः शुचिश्रवाः । अमृतः शाश्वत स्थाणुर्वरारोहो महातपाः ॥

अर्थ: दुख को दूर भगाने वाले, बहुत से सिरों वाले, लोकों का भ्रमण करने वाले, विश्व के कारण, जिनके नाम सुनने योग्य हैं, जिनका मृत अर्थात मरण नहीं होता, जिनका आरोह (गोद) वर (श्रेष्ठ) है, जिनका तप महान है।

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सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित् कविः ॥

अर्थ: जो सर्वत्र व्याप्त हैं, जो सर्ववित् हैं और भानु भी हैं, जिनके सामने कोई सेना नहीं टिक सकती, दुष्टजनों को नरकादि लोकों में भेजने वाले, वेदरूप, वेद जानने वाले, जो किसी प्रकार ज्ञान से अधूरा न हो, वेद जिनके अंगरूप हैं, वेदों को विचारने वाले, सबको देखने वाले।

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लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृताकृतः । चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्दंष्ट्रश्चतुर्भुजः ॥

अर्थ: समस्त लोकों का निरीक्षण करने वाले, सुरों (देवताओं) के अध्यक्ष, धर्म और अधर्म को साक्षात देखने वाले, कार्य रूप से कृत और कारणरूप से अकृत, चार पृथक विभूतियों वाले, चार व्यूहों वाले, चार दाढ़ों या सींगों वाले, चार भुजाओं वाले।

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भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः । अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ॥

अर्थ: एकरस प्रकाशस्वरूप, प्रकृति रूप भोज्य माय, दैत्यों को भी सहन करने वाले, जगत के आदि में उत्पन्न होने वाले, जिनमें अघ (पाप) न हो, विजय ज्ञान, वैराग्य व ऐश्वर्य से विश्व को जीतने वाले, समस्त भूतों को जीतने वाले, विश्व और योनि दोनों वही हैं, बार बार शरीरों में बसने वाले।

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उपेन्द्रो वामनः प्रंशुरमोघः शुचिरूर्जितः । अतीन्द्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ॥

अर्थ: अनुज रूप से इंद्र के पास रहने वाले, भली प्रकार भजने योग्य हैं, तीनों लोकों को लांघने के कारण प्रांशु (ऊंचे) हो गए, जिनकी चेष्टा मोघ (व्यर्थ) नहीं होती, स्मरण करने वालों को पवित्र करने वाले, अत्यंत बलशाली, जो बल और ऐश्वर्य में इंद्र से भी आगे हों, प्रलय के समय सबका संग्रह करने वाले, जगत रूप और जगत का कारण, अपने स्वरुप को एक रूप से धारण करने वाले, प्रजा को नियमित करने वाले, अन्तः करण में स्थित होकर नियम करने वाले।

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वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः । अतीन्द्रयो महामायो महोत्साहो महाबलः ॥

अर्थ: कल्याण की इच्छा वालों द्वारा जानने योग्य, सब विद्याओं को जानने वाले, धर्म की रक्षा के लिए असुर योद्धाओं को मारते हैं, विद्या के पति, मधु (शहद) के समान प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले, इन्द्रियों से परे, मायावियों के भी स्वामी, जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिए तत्पर रहने वाले, सर्वशक्तिमान।

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महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः । अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृक् ॥

अर्थ: सर्वबुद्धिमान, संसार के उत्पत्ति का रणरूप, अति महानशक्ति और सामर्थ्य के स्वामी, जिनकी बाह्य और अंतर दयुति (ज्योति) महान है, जिसे बताया न जा सके, जिनमें श्री हैं, जिनकी आत्मा समस्त प्राणियों से अमेय (अनुमान न की जा सकने योग्य) है, मंदराचल और गोवर्धन पर्वतों को धारण करने वाले।

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महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः । अनिरुद्धः सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां पतिः ॥

अर्थ: जिनका धनुष महान है, प्रलयकालीन जल में डूबी हुई पृथ्वी को धारण करने वाले, श्री के निवास स्थान, संतजनों के पुरुषार्थ धन हेतु, प्रादुर्भा के समय किसी से निरुद्ध न होने वाले, सुरों (देवताओं) को आनंदित करने वाले, गौ (वाणी) पति।

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मरीचिर्दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः । हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः॥

अर्थ: तेजस्वियों के परम तेज, राक्षसों का दमन करने वाले, संसार भय को नष्ट करने वाले, धर्म और अधर्म रूप सुंदर पंखों वाले, भुजाओं से चलने वालों में उत्तम, हिरण्य (स्वर्ण) के समान नाभि वाले, सुंदर तप करने वाले, पद्म के समान सुंदर नाभि वाले, प्रजाओं के पिता।

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अमृत्युः सर्वदृक् सिंहः सन्धाता सन्धिमान् स्थिरः । अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा॥

अर्थ: जिसकी मृत्यु न हो, प्राणियों के सब कर्म आदि को देखने वाले, हनन करने वाले हैं, मनुष्यों को उनके कर्मों के फल देते हैं, फलों के भोगने वाले हैं, सदा एक रूप हैं, भक्तों के ह्रदय में रहने वाले और असुरों का संहार करने वाले, दानवादिकों से सहन नहीं किए जा सकते, श्रुति स्मृति से सबका अनुशासन करते हैं, सत्यज्ञानादि रूप आत्मा का विशेष रूप से श्रवण करने वाले, सुरों (देवताओं) के शत्रुओं को मारने वाले।

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गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यः सत्यपराक्रमः । निमिषोऽनिमिषः स्रग्वी वाचस्पतिरुदारधिः॥

अर्थ: सब विद्याओं के उपदेष्टा और सबके जन्मदाता, परम ज्योति, सत्य-भाषणरूप, धर्मस्वरूप, जिनका पराक्रम सत्य अर्थात अमोघ है, जिनके नेत्र योगनिद्रा में मूंदे हुए हैं, मत्स्यरूप या आत्मारूप, वैजयंती माला धारण करने वाले, विद्या के पति, सर्व पदार्थों को प्रत्यक्ष करने वाले।

अग्रणीर्ग्रामणीः श्रीमान् न्यायो नेता समीरणः ।

सहस्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात्॥

आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः सं-प्रमर्दनः।

अहः संवर्तको वह्निः अनिलो धरणीधरः।।

सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृक्-विश्वभुक्-विभुः।

सत्कर्ता सकृतः साधु: जह्नु:-नारायणो नरः।।

असंख्येयो-अप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्ट-कृत्-शुचिः।

सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः।।

वृषाही वृषभो विष्णु: वृषपर्वा वृषोदरः।

वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुति-सागरः।।

सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेंद्रो वसुदो वसुः।

नैक-रूपो बृहद-रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः।।

ओज: तेजो-द्युतिधरः प्रकाश-आत्मा प्रतापनः।

ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मंत्र: चंद्रांशु: भास्कर-द्युतिः।।

अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिंदुः सुरेश्वरः।

औषधं जगतः सेतुः सत्य-धर्म-पराक्रमः।।

भूत-भव्य-भवत्-नाथः पवनः पावनो-अनलः।

कामहा कामकृत-कांतः कामः कामप्रदः प्रभुः।।

युगादि-कृत युगावर्तो नैकमायो महाशनः।

अदृश्यो व्यक्तरूपश्च सहस्रजित्-अनंतजित।।

इष्टो विशिष्टः शिष्टेष्टः शिखंडी नहुषो वृषः।

क्रोधहा क्रोधकृत कर्ता विश्वबाहु: महीधरः।।

अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः।

अपाम निधिरधिष्टानम् अप्रमत्तः प्रतिष्ठितः।।

स्कन्दः स्कन्द-धरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः।

वासुदेवो बृहद भानु: आदिदेवः पुरंदरः।।

अशोक: तारण: तारः शूरः शौरि: जनेश्वर:।

अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः।।

पद्मनाभो-अरविंदाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत।

महर्धि-ऋद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुड़ध्वजः।।

अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः।

सर्वलक्षण लक्षण्यो लक्ष्मीवान समितिंजयः।।

विक्षरो रोहितो मार्गो हेतु: दामोदरः सहः।

महीधरो महाभागो वेगवान-अमिताशनः।।

उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः।

करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः।।

व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो-ध्रुवः।

परर्रद्वि परमस्पष्टः तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः।।

रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयो-अनयः।

वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठ: धर्मो धर्मविदुत्तमः।।

वैकुंठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः।

हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः।।

ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः।

उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्व-दक्षिणः।।

विस्तारः स्थावर: स्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम।

अर्थो अनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः।।

अनिर्विण्णः स्थविष्ठो-अभूर्धर्म-यूपो महा-मखः।

नक्षत्रनेमि: नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः।।

यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः।

सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमं।।

सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत।

मनोहरो जित-क्रोधो वीरबाहुर्विदारणः।।

स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत।

वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः।।

धर्मगुब धर्मकृद धर्मी सदसत्क्षरं-अक्षरं।

अविज्ञाता सहस्त्रांशु: विधाता कृतलक्षणः।।

गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः।

आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद गुरुः।।

उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः।

शरीर भूतभृद्भोक्ता कपींद्रो भूरिदक्षिणः।।

सोमपो-अमृतपः सोमः पुरुजित पुरुसत्तमः।

विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्वतां पतिः।।

जीवो विनयिता-साक्षी मुकुंदो-अमितविक्रमः।

अम्भोनिधिरनंतात्मा महोदधिशयो-अंतकः।।

अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः।

आनंदो नंदनो नंदः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः।।

महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः।

त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाश्रृंगः कृतांतकृत।।

महावराहो गोविंदः सुषेणः कनकांगदी।

गुह्यो गंभीरो गहनो गुप्तश्चक्र-गदाधरः।।

वेधाः स्वांगोऽजितः कृष्णो दृढः संकर्षणो-अच्युतः।

वरूणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः।।

भगवान भगहानंदी वनमाली हलायुधः।

आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णु:-गतिसत्तमः।।

सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः।

दिवि: स्पृक् सर्वदृक व्यासो वाचस्पति: अयोनिजः।।

त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक।

संन्यासकृत्-छमः शांतो निष्ठा शांतिः परायणम।।

शुभांगः शांतिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः।

गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः।।

अनिवर्ती निवृत्तात्मा संक्षेप्ता क्षेमकृत्-शिवः।

श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतां वरः।।

श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः।

श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमान्-लोकत्रयाश्रयः।।

स्वक्षः स्वंगः शतानंदो नंदिर्ज्योतिर्गणेश्वर:।

विजितात्मा विधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः।।

उदीर्णः सर्वत: चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः।

भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः।।

अर्चिष्मानर्चितः कुंभो विशुद्धात्मा विशोधनः।

अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः।।

कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः।

त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः।।

कामदेवः कामपालः कामी कांतः कृतागमः।

अनिर्देश्यवपुर्विष्णु: वीरोअनंतो धनंजयः।।

ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृत् ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः।

ब्रह्मविद ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः।।

महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः।

महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः।।

स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः।

पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः।।

मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः।

वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः।।

सद्गतिः सकृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः।

शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः।।

भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयो-अनलः।

दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरो-अथापराजितः।।

विश्वमूर्तिमहार्मूर्ति: दीप्तमूर्ति: अमूर्तिमान।

अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः।।

एको नैकः सवः कः किं यत-तत-पद्मनुत्तमम।

लोकबंधु: लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः।।

सुवर्णोवर्णो हेमांगो वरांग: चंदनांगदी।

वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरऽचलश्चलः।।

अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक।

सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः।।

तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः।

प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकश्रृंगो गदाग्रजः।।

चतुर्मूर्ति: चतुर्बाहु: श्चतुर्व्यूह: चतुर्गतिः।

चतुरात्मा चतुर्भाव: चतुर्वेदविदेकपात।।

समावर्तो-अनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः।

दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा।।

शुभांगो लोकसारंगः सुतंतुस्तंतुवर्धनः।

इंद्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः।।

उद्भवः सुंदरः सुंदो रत्ननाभः सुलोचनः।

अर्को वाजसनः श्रृंगी जयंतः सर्वविज-जयी।।

सुवर्णबिंदुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः।

महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधः।।

कुमुदः कुंदरः कुंदः पर्जन्यः पावनो-अनिलः।

अमृतांशो-अमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः।।

सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः।

न्यग्रोधो औदुंबरो-अश्वत्थ: चाणूरांध्रनिषूदनः।।

सहस्रार्चिः सप्तजिव्हः सप्तैधाः सप्तवाहनः।

अमूर्तिरनघो-अचिंत्यो भयकृत्-भयनाशनः।।

अणु: बृहत कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान्।

अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः।।

भारभृत्-कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः।

आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः।।

धनुर्धरो धनुर्वेदो दंडो दमयिता दमः।

अपराजितः सर्वसहो नियंता नियमो यमः।।

सत्त्ववान सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः।

अभिप्रायः प्रियार्हो-अर्हः प्रियकृत-प्रीतिवर्धनः।।

विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग विभुः।

रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः।।

अनंतो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः।

अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकधिष्ठानमद्भुतः।।

सनात्-सनातनतमः कपिलः कपिरव्ययः।

स्वस्तिदः स्वस्तिकृत स्वस्ति स्वस्तिभुक स्वस्तिदक्षिणः।।

अरौद्रः कुंडली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः।

शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः।।

अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणां वरः।

विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः।।

उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः।

वीरहा रक्षणः संतो जीवनः पर्यवस्थितः।।

अनंतरूपो-अनंतश्री: जितमन्यु: भयापहः।

चतुरश्रो गंभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः।।

अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मी: सुवीरो रुचिरांगदः।

जननो जनजन्मादि: भीमो भीमपराक्रमः।।

आधारनिलयो-धाता पुष्पहासः प्रजागरः।

ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः।।

प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत प्राणजीवनः।

तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्यु जरातिगः।।

भूर्भवः स्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः।

यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञांगो यज्ञवाहनः।।

यज्ञभृत्-यज्ञकृत्-यज्ञी यज्ञभुक्-यज्ञसाधनः।

यज्ञान्तकृत-यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च।।

आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः।

देवकीनंदनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः।।

शंखभृन्नंदकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः।

रथांगपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः।।

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Published by Sri Mandir·November 11, 2025

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