नरक चतुर्दशी कथा 2024 | Narak Chaturdashi Katha
नमस्कार दोस्तों!
दीपावली से पहले नरक चतुर्दशी यानी छोटी दीपावली भी पूरे धूम-धाम से मनाई जाती है। इसे रूप चौदस के नाम से भी जाना जाता है। लोग इसे पूरे उल्लास के साथ मनाते हैं, लेकिन बहुत ही कम लोगों को पता है कि इसे मनाने के पीछे की पौराणिक कथा क्या है और इसे नरक चतुर्दशी क्यों कहते हैं?
पौराणिक कथाओं के अनुसार, इसका संबंध श्रीकृष्ण और नरकासुर की कहानी से है, चलिए इस लेख के माध्यम से हम लोग उस कथा के बारे में जानते हैं
नरक चतुर्दशी की कहानी (Narak Chaturdashi Ki Kahani)
कहते हैं कि भूदेवी समस्त प्राणियों का कल्याण करती हैं और पोषण करती है, लेकिन चिरकाल में एक समय ऐसा आया जब उनके ही पुत्र ने समस्त सृष्टि में दहशत मचा दी। हर तरफ उसने अपना आतंक फैला दिया, जब देवतागण भी उसके समक्ष कमज़ोर पड़ने लगे तो देवराज इंद्र ने श्रीकृष्ण की शरण में जाने का फैसला किया।
घबराए हुए इंद्रदेव श्रीकृष्ण के महल में पहुंचे। श्रीकृष्ण ने उनका स्वागत किया, उन्हें आसन ग्रहण करने के लिए कहा और फिर उनसे वहां आने का कारण पूछा।
इसपर इंद्रदेव बोले, “हे प्रभु, पूरे देवलोक में हाहाकार मचा हुआ है। नरकासुर नामक एक पापी के अत्याचारों के कारण समस्त देवता गणों पर भय के बादल छाएं हुए हैं। मैं यहां आपसे ह मारी रक्षा की प्रार्थना लेकर आया हूँ। उसने हमारी देवमाता अदिति का भी अपमान करते हुए, उनके कुण्डल चुरा लिए हैं।”
यह सुनकर श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा बोलीं कि, “परंतु देवता तो स्वयं सबकी रक्षा करते हैं और अत्यंत शक्तिशाली होते हैं, फिर आप लोगों को किसी असुर ने इस प्रकार प्रताड़ित कैसे कर दिया?”
“देवी, इसके पीछे का कारण ब्रह्मा जी का वरदान है, जो कि उन्होंने नरकासुर की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे दिया था। इस वरदान के अनुसार, कोई भी देवता नरकासुर का वध नहीं कर सकता। इसलिए ब्रह्म देव ने हमें आपकी शरण में आने के लिए कहा है।”
यब सुनकर श्रीकृष्ण ने इंद्रदेव की सहायता करने का आश्वासन दिया और नरकासुर की नगरी की ओर युद्ध करने के लिए जाने लगे। जाते समय उनकी पत्नी बोलीं, हे प्रभु, कृपया मुझे भी अपने साथ ले चलें। तो श्रीकृष्ण बोले, इस युद्ध में साथ चलना तुम्हारे लिए सुरक्षित नहीं है। यह सुनकर सत्यभामा बोलीं, आप स्त्री को कमज़ोर न समझें, मैं इस युद्ध में आपकी सहायता करूंगी। श्रीकृष्ण बोले, जैसी आपकी इच्छा।
इसके पश्चात् श्रीकृष्ण अपनी पत्नी के साथ नरकासुर से युद्ध करने निकल पड़े।
नरक चतुर्दशी पौराणिक कथा
श्रीकृष्ण जी गरुण पक्षी पर सवार होकर नरकासुर की नगरी में पहुंचे और वहां उन्होंने आकाश से ही उनकी सेना पर वार करना शुरू कर दिया। उनके आक्रमण से नरकासुर की पूरी सेना समाप्त हो गई और एक दूत ने नरकासुर को इसकी जानकारी दी। नरकासुर गुस्से में आग-बबुला होकर श्रीकृष्ण के समक्ष गया और बोला, “ग्वाले, तुझे अपने प्राण प्रिय नहीं हैं क्या? तेरा इतना दुस्साहस कि तूने मेरी ही सेना पर आक्रमण कर, मेरे सैनिकों को मार दिया। तूने अकारण मेरी सेना का वध क्यों किया?”
श्रीकृष्ण बोले, “मैं कोई भी कार्य अकारण नहीं करता, यह सभी हर पाप और अधर्म में तुम्हारे साथी थे।” नरकासुर झुंझला कर बोला, मैंने कौन से अधर्म किए हैं?
इसपर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, “तेरे पापों की सूची अंतहीन है। तूने माता अदिति के कुण्डल छीने, तूने लोक हित के लिए तपस्या करने वाले ऋषि मुनियों की तपस्या भंग की, तूने देवताओं को और मनुष्यों को प्रताड़ित किया, तूने ब्रह्मा जी के वरदान का दुरुपयोग कर, उनका अपमान किया, राजाओं, ब्राह्मणों और राजकुमारियों का बलपूर्वक अपहरण किया और उन्हें बंदी बनाया।”
नरक चतुर्दशी प्रचलित कथा
नरकासुर बीच में बोला, शांत हो जा ग्वाले, मैं ही धर्म की परिभाषा हूँ, मैं जो करता हूँ, वही धर्म कहलाता है। तू किस अधर्म की बात कर रहा है। मैं अपने हिसाब से धर्म का पालन करता हूँ।
श्रीकृष्ण ने उसे समझाते हुए कहा, “यह तू नहीं, तेरा अहंकार बोल रहा है। पापों के अंधकार में तू धर्म और अधर्म के बीच का अंतर ही भूल गया। मैं तेरा वध करके धर्म की स्थापना करूँगा।”
अपने वध की बात सुनते ही, नरकेश्वर क्रोध की ज्वाला में जलने लगा और उसने श्रीकष्ण पर अस्त्र चलाकर, युद्ध प्रारंभ कर दिया।
इस प्रचंड युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण और नरकासुर के बीच तीरों की बौछार होने लगी, और दोनों ही तरफ से अत्यंत विनाशकारी अस्त्र-शस्त्र चलने लगे। इस भयंकर युद्ध के बीच श्रीकृष्ण जब धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा रहे थे, तो वह डोरी टूट गई।
नरकासुर ने इस मौके का फायदा उठाते हुए, तुरंत उनपर वार किया। यह देखकर, श्रीकृष्ण की पत्नी अपना हाथ आगे कर देती हैं, और उस प्रहार को अपने हाथों से रोक देती हैं।
अपनी पत्नी पर किए गए प्रहार को देखकर, श्रीकृष्ण अपना सुदर्शन चक्र निकालते हैं और नरकासुर का वध कर, उसे दो हिस्सों में काट देते हैं। तभी धरती फट जाती है और उस पापी असुर के शरीर के हिस्से उसमें समा जाते हैं।
इसके पश्चात्, भूदेवी वहां प्रकट होती हैं और हाथ जोड़ते हुए श्रीकृष्ण को प्रणाम करती हैं। जब श्रीकृष्ण उनका परिचय पूछते हैं तो वह बताती हैं कि, “मैं भूदेवी हूं, यह नरकासुर मेरा ही पुत्र था, भगवन, आपने अपने वराह रूप में इस पुत्र को मुझे वरदान के रूप में दिया था, अच्छा हुआ आज इसे मुक्ति भी आपके ही हाथों से मिल गई।”
श्रीकृष्ण बोलते हैं कि, “देवी आपका पुत्र असत्य और अधर्म के मार्ग पर चलने लगा था और उसके पापों का घड़ा भर चुका था, इसलिए मुझे उसका वध कर, उसे मुक्ति देनी पड़ी।”
इसके बाद, भूदेवी बोली कि मेरे ऊपर से पापों का भार कम करने के लिए तो आप आएं हैं, वह मेरा पुत्र ज़रूर था, लेकिन उसके पापों का बोझ मेरे लिए असहनीय हो गया था। इस कारण मुझे उसकी मृत्यु का कोई शोक नहीं है।
इसके पश्चात वह नरकासुर के कानों से निकाले हुए माता अदिति के कुंडल श्रीकृष्ण को लौटा देती हैं और पुनः धरती में समाहित हो जाती हैं।
श्रीकृष्ण इस प्रकार नरकासुर का वध कर, देवताओं को उसके भय से मुक्त करते हैं। साथ ही नरकासुर द्वारा बंदी बनाई गईं सोलह हज़ार एक सौ कन्यायों को भी कैद से मुक्ति दिलाते हैं और उन्हें सम्मान प्रदान करते हैं।
श्रीकृष्ण ने कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी के दिन ही नरकासुर का वध किया था और इसलिए इसे नरक चतुर्थी के नाम से भी जाना जाता है।
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