शैलपुत्री देवी की कहानी- उत्पत्ति की कहानी

शैलपुत्री देवी की कहानी- उत्पत्ति की कहानी

माँ आदिशक्ति के जन्म से जुड़ी कथा


शैलपुत्री देवी की कहानी- उत्पत्ति की कहानी (Story of Shailputri Devi – Story of Origin)

आदिशक्ति माँ दुर्गा की भक्ति के महा-अनुष्ठान नवरात्रि का प्रथम दिन पूर्ण रूप से देवी शैलपुत्री को समर्पित होता है। नवदुर्गा के सभी नौ स्वरूपों में देवी शैलपुत्री की उपासना प्रथम दुर्गा के रूप में की जाती है। समस्त लोकों में माता शैलपुत्री ही जगत-जननी आदिशक्ति माँ पार्वती के नाम से जानी जाती हैं। अपने भक्तों के बीच मातारानी ‘गौरी एवं उमा’ के नाम से भी अत्यंत लोकप्रिय हैं।

**माँ शैलपुत्री का अद्भुत स्वरूप ** शास्त्रों में माँ शैलपुत्री का स्वरुप चंद्र के समान बताया गया है। माँ के मस्तक पर स्वर्ण मुकुट में अर्धचंद्र उनकी शोभा बढ़ाता है। देवी जी वृष अर्थात बैल की सवारी करती हैं, अतः इन्हें वृषारूढ़ा भी कहा जाता है। माँ के दाहिने हाथ में त्रिशूल व बाएं हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है, साथ ही चमेली का पुष्प भी माँ को अतिप्रिय है।

आइये माँ शैलपुत्री की उत्पत्ति की कथा शुरू करने से पहले एक साथ मिलकर माँ के इस पवित्र मंत्र का उच्चारण करें -

ॐ देवी शैलपुत्र्यै नमः॥

इस प्रकार माँ के स्वरुप के बारे में तो आपने जान लिया। आइये, अब मां शैलपुत्री की उत्पत्ति की मार्मिक कथा का पाठ करते हैं -

**कथा ** शिव महापुराण के अनुसार, एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया था । इस यज्ञ में उन्होंने सभी देवी-देवताओं एवं ऋषियों को अपना यज्ञ-भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया। किंतु उन्होंने इस यज्ञ में अपने दामाद अर्थात शिवजी को आमंत्रित नहीं किया। जब यह समाचार माता सती ने सुना कि उनके पिता एक अत्यंत विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तो माता सती का मन भी उस यज्ञ में शामिल होने के लिए व्याकुल हो उठा।

इसके बाद माता सती ने यज्ञ में चलने के लिए शिव जी से आग्रह किया तब शिव जी ने उत्तर दिया कि इस यज्ञ में समस्त देवी-देवताओं एवं ऋषियों को निमंत्रित किया गया है। किंतु हमें यज्ञ-भाग हेतु बुलावा नहीं भेजा गया है। ऐसी स्थिति में बिना निमंत्रण के हमारा वहां जाना उचित नहीं है।

किंतु शंकरजी के इन विचारों से माता सती सहमत नहीं हुई और पिता के यज्ञ का हिस्सा बनने के लिए उस आयोजन में पहुंच गई। लेकिन पिता प्रजापति दक्ष ने उनके उस आयोजन में आने की उपेक्षा की, तथा शिव जी के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया। अपने पिता द्वारा अपने पति का यह अपमान देखकर माता सती का मन पश्चाताप, क्षोभ एवं क्रोध से भर उठा, और वह इस दुर्व्यवहार को सहन नहीं कर सकी। उन्होंने उसी क्षण योगाग्नि द्वारा स्वयं को भस्म कर लिया।

इसके बाद अपने अगले जन्म में माता सती ने ही पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वे ‘शैलपुत्री’ के नाम से विख्यात हुर्ईं। माता सती के समान ही माँ शैलपुत्री महादेव शिव की अर्धांगिनी बनीं।

आइये अब नवदुर्गाओं में प्रथम देवी शैलपुत्री का महत्व एवं उनकी साधना से प्राप्त होने वाले लाभों के बारे में भी जान लेते हैं -

माँ ने अपने शैलपुत्री स्वरुप में अत्यंत कठिन तपस्या कर के महादेव को पति के रूप में प्राप्त किया था। इसलिए यह मान्यता है कि माँ की कृपा से कन्याओं को उत्तम वर की प्राप्ति होती है, साथ ही सफल दांपत्य जीवन का आशीर्वाद मिलता है।

धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भाग्य का प्रदाता ग्रह चंद्रमा भी देवी शैलपुत्री द्वारा शासित होता है। चंद्रमा के किसी भी बुरे प्रभाव को आदिशक्ति के इस रूप की पूजा करने से दूर किया जा सकता है।

माँ शैलपुत्री की उपासना से साधक का मन ‘शैल’ अर्थात चट्टान के समान स्थिर और एकाग्र हो जाता है, जिससे विचारों में मजबूती आती है और आत्मविश्वास भी बढ़ता है।

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