वैभव लक्ष्मी व्रत कथा (Vaibhav Laxmi Vrat Katha)
हमारे हिंदू धर्म में पौराणिक कथाओं का विशाल भंडार है। प्रत्येक दिवस में रखे जाने वाले व्रत के पीछे भी एक रोचक कथा जुड़ी होती है। उन्हीं कथाओं में एक है वैभव लक्ष्मी व्रत। जिसे शुक्रवार के दिन रखा जाता है। तो चलिए जानते हैं आज इस कथा के बारे में -
**कथा ** एक विशाल नगर था। व्यवसाय की दृष्टि से तो वो नगर बहुत अच्छा था। दूर - दूर से वहां लोग काम की तलाश में आते थे। इस नगर की सबसे बड़ी बुराई ये थी कि यहां निवास करने वाले ज्यादातर लोग बुरे कर्मों में संलिप्त रहते थे। जुआं खेलना, शराब का सेवन, गंदी भाषा का प्रयोग इस शहर में अत्यधिक मात्रा में होता था।
इसी नगर में मनोज और शीला नामक दंपत्ति रहा करते थे। दोनों ही अपना ज्यादातर समय प्रभु भजन में व्यतीत करते थे। मनोज पूरी ईमानदारी से कार्य करता था। शीला कुशल तरीके से घर संभालती थी। उनको जानने वाले लोग भी उनके व्यवहार की सराहना करते थे। देखते -देखते समय ने करवट ली। कुछ दिनों बाद इनकी गृहस्थी को किसी की नजर लग गई और मनोज की संगत बिगड़ गई। उसे जल्द से जल्द धनी बनने का भूत सवार हो गया। करोड़पति बनने की तीव्र आकांक्षा ने उसे जुएं का आदि बना दिया। इस गंदी आदत के कारण उसकी आर्थिक स्थिति कमजोर होती चली गई। शीला को ये सब देखकर बहुत दुःख हुआ, लेकिन उसने अपने आप को संभालते हुए ईश्वर की पूजा -अर्चना जारी रखी।
एक दिन की बात है। उसके घर में किसी ने दरवाजा खटखटाया, उसने दरवाजा खोला तो सामने मांजी खड़ी थी। उसके मुखमंडल पर अलौकिक तेज था। उसको देखते ही शीला के मन को एक असीम शांति मिली। शीला उस मांजी को पूरे आदर - सत्कार के साथ घर के अंदर ले आई। घर की आर्थिक स्थिति बहुत ज्यादा खराब होने के कारण बैठाने के लिए कुछ नहीं था। अतः शीला ने सकुचाकर एक फटी हुई चादर बिछाई और उसी पर उनको बिठाया। मांजी बोलीं- क्यों शीला! मुझे पहचाना नहीं? हर शुक्रवार को लक्ष्मीजी के मंदिर में भजन-कीर्तन के समय मैं भी वहां आती हूं।’ शीला कुछ समझ नहीं पा रही थी। फिर मांजी बोलीं- ‘ असल में तुम बहुत दिनों से मंदिर नहीं आईं इसलिए मैं तुमसे मिलने आ गई।’
मांजी के इन प्रेम भरे शब्दों को सुनकर शीला भाव -विभोर हो उठी। उसकी आंखो से अश्रु की धारा निकल पड़ी और उनके कंधे पर सिर रखकर तेज से रोने लगी। मांजी ने उसे स्नेहपूर्वक समझाते हुए कहा, 'बेटी! सुख और दुःख तो जीवन में आता जाता रहता है। तुम धैर्य रखो बेटी! मुझे बताओ क्या परेशानी है तुम्हें?
मांजी के ऐसा कहने पर उसे काफी मानसिक बल मिला और उसने मांजी को पूरी बात बता दी। शीला की पूरी बात सुनकर मांजी ने उससे कहा, 'बेटी! 'कर्म की गति बड़ी ही अनोखी होती है।' प्रत्येक इंसान को अपने कर्म का फल भुगतना ही पड़ता है। ये अटल सत्य है। तू अब चिंता मत कर। तुम्हारे सुख के दिन जल्दी ही वापस आएंगे।
मां लक्ष्मी स्नेह का सागर हैं। वे अपने भक्तों को संतान की भांति प्रेम प्रदान करती हैं। तुम धैर्यपूर्वक मां लक्ष्मी जी का व्रत करो। इससे सब कुछ ठीक हो जाएगा।
मां लक्ष्मी जी का व्रत करने की बात से शीला का चेहरा खिल उठा। उसने पूछा, ‘माँ! लक्ष्मी जी का व्रत कैसे किया जाता है, कृपया मुझे इसके बारे में विस्तार से बताइए। मैं यह व्रत अवश्य करूँगी।’
मांजी ने कहा, 'बेटी! ये व्रत बहुत ही सरल। इसे वैभवलक्ष्मी व्रत या वरलक्ष्मी व्रत भी कहा जाता है। उन्होंने शीला को व्रत विधि के बारे में विस्तार से बताते हुए कहा कि इस व्रत को करने से तुम्हारे समस्त मनोरथ पूर्ण होंगें।
शीला यह सुनकर आनंदित हो गई। शीला ने उसी समय आंखे बंद की और मां लक्ष्मी का ध्यान किया पर जब आँखें खोली तो सामने कोई न था। मांजी वहां से विस्मित हो गईं थी? शीला को तत्काल यह समझते देर न लगी कि मांजी और कोई नहीं अपितु साक्षात् लक्ष्मी मां ही थीं।
मांजी के जाने के बाद शीला ने 21 शुक्रवार तक पूरी भक्ति भाव से वैभवलक्ष्मी का व्रत किया। इक्कीसवें शुक्रवार को मांजी द्वारा बताई गई विधि के अनुसार शीला ने व्रत का उद्यापन किया और मां से प्रार्थना करते हुए कहा, हे वैभवलक्ष्मी मां! 'मेरी विनती स्वीकार करो। मेरे सारे कष्ट हर लो। हम सबका कल्याण करो।'
व्रत के प्रभाव से धीरे -धीरे शीला का पति सुधरने लगा। उसने सारी बुरी आदतों को त्याग दिया। अब वो पहले की तरह ईमानदारी से अपने काम पर लग गया। इस तरह मां लक्ष्मी की कृपा से शीला और मनोज का घर फिर से सम्पन्नता और समृद्धि से भर गया।