गोपी गीत  | Gopi Geet Lyrics

गोपी गीत

"गोपी गीत" का गायन आपको कृष्ण के प्रति असीम प्रेम और भक्ति की भावना से भर देता है, और यह भक्ति संगीत के उत्सवों और धार्मिक समारोहों में विशेष रूप से गाया जाता है।


गोपी गीत - जयति तेऽधिकं जन्मना | Gopi Geet - Jayati Te Dhikam Janmana

यह गोपी गीत भगवान श्रीकृष्ण की महिमा को दर्शाने वाला एक अत्यंत भक्तिपूर्ण स्तोत्र है। इस गीत में आप भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अपनी गहरी भक्ति और प्रेम को प्रकट करते हैं। जब गोपियाँ भगवान श्रीकृष्ण के गुणों का वर्णन करती हैं, तो आप भी उनके साथ इस स्तुति में शामिल होकर भगवान की प्रशंसा करते हैं। यह गीत आपकी आत्मा को शांति और आनंद प्रदान करता है और आपके मन में भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अपार श्रद्धा का संचार करता है।

गोपी गीत लिरिक्स | Gopi Geet Lyrics

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः

श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।

दयित दृश्यतां दिक्षु तावका

स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥1॥

शरदुदाशये साधुजातसत्स-

रसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।

सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका

वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥2॥

विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसा-

द्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् ।

वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया

दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥3॥

न खलु गोपिकानन्दनो भवा-

नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।

विखनसार्थितो विश्वगुप्तये

सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥4॥

विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते

चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।

करसरोरुहं कान्त कामदं

शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥5॥

व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां

निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।

भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो

जलरुहाननं चारु दर्शय ॥6॥

प्रणतदेहिनांपापकर्शनं

तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् ।

फणिफणार्पितं ते पदांबुजं

कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥7॥

मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया

बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।

विधिकरीरिमा वीर मुह्यती-

रधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥8॥

तव कथामृतं तप्तजीवनं

कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।

श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं

भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥9॥

प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं

विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् ।

रहसि संविदो या हृदिस्पृशः

कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥10॥

चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून्

नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।

शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः

कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥11॥

दिनपरिक्षये नीलकुन्तलै-

र्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् ।

घनरजस्वलं दर्शयन्मुहु-

र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥12॥

प्रणतकामदं पद्मजार्चितं

धरणिमण्डनं ध्येयमापदि ।

चरणपङ्कजं शंतमं च ते

रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥13॥

सुरतवर्धनं शोकनाशनं

स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।

इतररागविस्मारणं नृणां

वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥14॥

अटति यद्भवानह्नि काननं

त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।

कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते

जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥15॥

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा-

नतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।

गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः

कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥16॥

रहसि संविदं हृच्छयोदयं

प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् ।

बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते

मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥17॥

व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते

वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।

त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां

स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥18॥

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष

भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।

तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित्कू

र्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥19॥

इति श्रीमद्भागवत महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडायां गोपीगीतं

नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥

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