क्या आप जानते हैं शिव अमोघ कवच का पाठ करने से अदृश्य सुरक्षा और आत्मबल की प्राप्ति होती है? जानें श्लोक, पाठ विधि और लाभ।
शिव अमोघ कवच एक अत्यंत प्रभावशाली और पवित्र स्तोत्र है, जो भगवान शिव के कृपाशील स्वरूप से सुरक्षा प्राप्त करने हेतु पढ़ा जाता है। यह कवच शिवभक्तों को नकारात्मक शक्तियों, भय और संकटों से बचाने का कार्य करता है। इसका नियमित पाठ मन को शांति, साहस और आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान करता है। शिव अमोघ कवच का पाठ करने से जीवन में स्थिरता, बल और शिवभक्ति की अनुभूति होती है।
अस्य श्री-शिव-कवच-स्तोत्र-मन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीसदाशिव-रुद्रो देवता, ह्रीं शक्तिः, वं कीलकम्, श्रीं ह्रीं क्लीं बीजम्, सदाशिव-प्रीत्यर्थे शिवकवच-स्तोत्र-जपे विनियोगः ॥
| ऋष्यादिन्यासः |
ॐ ब्रह्मर्षये नमः, शिरसि।
अनुष्टुप् छन्दसे नमः, मुखे।
श्रीसदाशिव-रुद्रदेवतायै नमः, हृदि।
ह्रीं शक्तये नमः, पादयोः।
वं कीलकाय नमः, नाभौ।
श्रीं ह्रीं क्लीमिति बीजाय नमः, गुह्ये।
विनियोगाय नमः, सर्वांगे।
| अथ करन्यासः |
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ ह्रीं रां सर्वशक्ति-धाम्ने ईशानात्मने अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ नं रीं नित्य-तृप्ति-धाम्ने तत्पुरुषात्मने तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ मं रूं अनादि-शक्ति-धाम्ने अघोरात्मने मध्यमाभ्यां नमः।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ शिं रैं स्वतन्त्र-शक्ति-धाम्ने वाम-देवात्मने अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ वां रौं अलुप्त-शक्ति-धाम्ने सद्योजातात्मने कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ यं रः अनादि-शक्ति-धाम्ने सर्वात्मने कर-तल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।
| हृदयादि अंगन्यास |
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ ह्रीं रां सर्व-शक्ति-धाम्ने ईशानात्मने हृदयाय नमः।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ नं रीं नित्य-तृप्ति-धाम्ने तत्पुरुषात्मने शिरसे स्वाहा।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ मं रूं अनादि-शक्ति-धाम्ने अघोरात्मने शिखायै वषट्।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ शिं रैं स्वतन्त्र-शक्ति-धाम्ने वामदेवात्मने कवचाय हुम्।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ वां रौं अलुप्त-शक्ति-धाम्ने सद्यो-जातात्मने नेत्र-त्रायाय वौषट्।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ यं रः अनादि-शक्ति-धाम्ने सर्वात्मने अस्त्राय फट्।
| अथ ध्यानम् |
वज्र-दंष्द्रं त्रिनयनं काल-कण्ठम-रिंदमम् ।
सहस्रकर-मप्युग्रं वन्दे शम्भुं-उमापतिम् ॥
अथ कवचम्
| ऋषभ उवाच |
अथापरं सर्व-पुराण-गुह्यं निःशेष-पापौघ-हरं पवित्रम् ।
जयप्रदं सर्व-विपद्विमोचनं वक्ष्यामि शैवं कवचं हिताय ते ॥
नमस्कृत्य महादेवं विश्व-व्यापिन-मीश्वरम् ।
वक्ष्ये शिवमयं वर्म सर्व-रक्षाकरं नृणाम् ॥1॥
शुचौ देशे समासीनो यथा-वत्कल्पिता-सनः।
जितेन्द्रियो जित-प्राणश्चिन्तयेच्-छिव-मव्ययम् ॥2॥
हृत्पुण्डरी-कान्तरसन्निविष्टं स्वतेजसा व्याप्तनभो-ऽवकाशम् ।
अतीन्द्रियं सूक्ष्म-मनन्त-माद्यं ध्यायेत् परानन्द-मयं महेशम् ॥3॥
ध्याना-वधूताखिल-कर्म-बन्धश्-चिरं चिदानन्दनि-मग्नचेताः ।
षडक्षरन्यास-समाहित-आत्मा शैवेन कुर्यात् कवचेन रक्षाम् ॥4॥
| मूल कवच पाठ |
मां पातु देवो-ऽखिल-देवतात्मा संसारकूपे पतितं गभीरे ।
तन्नाम दिव्यं वरमन्त्र-मूलं धुनोतु मे सर्वमघं हृदिस्थम् ॥5॥
सर्वत्र मां रक्षतु विश्वमूर्तिर्-ज्योतिर्मयानन्द-घनश्चिदात्मा ।
अणो-रणी-या-नुरुशक्ति-रेकः स ईश्वरः पातु भयाद-शेषात् ॥6॥
यो भूस्वरूपेण बिभर्ति विश्वं पायात् स भूमेर्गिरिशो-ऽष्टमूर्तिः ।
योऽपां स्वरूपेण नृणां करोति संजीवनं सोऽवतु मां जलेभ्यः ॥7॥
कल्पा-वसाने भुवनानि दग्ध्वा सर्वाणि यो नृत्यति भूरिलीलः ।
स कालरुद्रोऽवतु मां दवाग्नेर्-वात्यादि-भीतेर-खिलाच्च तापात् ॥8॥
प्रदीप्त-विद्युत्-कनकावभासो विद्या-वरा-भीति-कुठार-पाणिः ।
चतुर्मुखस्तत्पुरुष-स्त्रिनेत्रः प्राच्यां स्थितं रक्षतु मामजस्रम् ॥9॥
कुठार-वेदांकुश-पाशशूल-कपाल-ढक्काक्ष-गुणान् दधानः ।
चतुर्मुखो नील-रुचि-स्त्रिनेत्रः पायादघोरो दिशि दक्षिणस्याम् ॥10॥
कुन्देन्दुशंख-स्फटिका-वभासो वेदाक्षमाला-वरदाभयांकः ।
त्र्यक्षश्चतुर्वक्त्र उरुप्रभावः सद्यो-ऽधिजातो-ऽवतु मां प्रतीच्याम् ॥11॥
वराक्षमाला-भयटंक-हस्तः सरोज-किञ्जल्क-समानवर्णः ।
त्रिलोचनश्चारु-चतुर्मुखो मां पाया-दुदीच्यां दिशि वामदेवः ॥12॥
वेदाभ्येष्टांकुश-पाश-टंक-कपाल-ढक्काक्षक-शूलपाणि: ।
सितद्युति: पंचमुखो-ऽवतान्म-आमीशान ऊर्ध्वं परमप्रकाश: ॥13॥
मूर्द्धान-मव्यान्-मम चंद्रमौलिर् भालं ममाव्यादथ भालनेत्र: ।
नेत्रे ममाव्याद् भगनेत्रहारी नासां सदा रक्षतु विश्वनाथ: ॥14॥
पायाच्छ्रुती मे श्रुतिगीतकीर्ति: कपोलमव्यात् सततं कपाली ।
वक्त्रं सदा रक्षतु पंचवक्त्रो जिह्वां सदा रक्षतु वेदजिह्व: ॥15॥
कण्ठं गिरीशोऽवतु नीलकण्ठ: पाणिद्वयं पातु पिनाकपाणि: ।
दोर्मूल-मव्यान्मम धर्मबाहुर्-वक्ष:स्थलं दक्ष-मखान्तकोऽव्यात् ॥16॥
ममोदरं पातु गिरींद्रधन्वा मध्यं ममाव्यान्-मदनांतकारी ।
हेरम्बतातो मम पातु नाभिं पायात्कटि धूर्जटिरीश्वरो मे ॥17॥
ऊरुद्वयं पातु कुबेरमित्रो जानुद्वयं मे जगदीश्वरो-ऽव्यात् ।
जंघायुगं पुंग-वकेतु-रव्यात् पादौ ममाव्यत् सुर-वंद्यपाद: ॥18॥
महेश्वर: पातु दिनादियामे मां मध्य-यामेऽवतु वामदेव:।
त्र्यम्बकः पातु तृतीय-यामे वृषध्वज: पातु दिनांत्य-यामे ॥19॥
पायान्नि-शादौ शशि-शेखरो-मां गंगाधरो रक्षतु मां निशीथे।
गौरीपति: पातु निशा-वसाने मृत्युञ्जयो रक्षतु सर्वकालम् ॥20॥
अन्त: स्थितं रक्षतु शंकरो मां स्थाणु: सदा पातु बहि: स्थितम् माम् ।
तदंतरे पातु पति: पशूनां सदाशिवो रक्षतु मां समन्तात् ॥21॥
तिष्ठन्त-मव्याद्-भुवनैक-नाथ: पायाद् व्रजन्तं प्रमथाधिनाथ: ।
वेदांत-वेद्यो-ऽवतु मां निषण्णं मामव्यय: पातु शिव: शयानम् ॥22॥
मार्गेषु मां रक्षतु नीलकण्ठ: शैलादि-दुर्गेषु पुरत्रयारि: ।
अरण्य-वासादि-महाप्रवासे पायान्मृगव्याध उदारशक्ति: ॥23॥
कल्पांत-काटोप-पटुप्रकोपः स्फुटाट्-टहासोच्-चलिताण्डकोश: ।
घोरारि-सेनार्ण-वदुर्निवार-महाभयाद् रक्षतु वीरभद्र: ॥24॥
पत्त्यश्व-मातंग-घटा-वरूथ-सहस्र-लक्षायुत-कोटि-भीषणम् ।
अक्षौहिणीनां शत-मात-तायिनां छिंद्यान्मृडो घोर-कुठार-धारया ॥25॥
निहंतु दस्यून् प्रलयान-लार्चिर्-ज्वलत त्रिशूलं त्रिपुरांतकस्य ।
शार्दूल-सिंहर्क्ष-वृकादि-हिंस्रान् संत्रास-यत्वीशधनु: पिनाकं ॥26॥
दु:स्वप्न-दुश्शकुन-दुर्गति-दौर्मनस्य-दुर्भिक्ष-दुर्व्यसन-दुस्सह-दुर्यशांसि ।
उत्पात-ताप-विषभीतिमसद्-ग्रहार्ति व्याधींश्च नाशयतु मे जगतामधीश: ॥27॥
॥ मूल कवच समाप्त ॥
ॐ नमो भगवते सदाशिवाय
सकल-तत्त्व-आत्मकाय सकल-तत्त्व-विहाराय
सकल-लोकै-कर्त्रे सकल-लोकैक-भर्त्रे
सकल-लोकैक-हर्त्रे सकल-लोकैक-गुरवे
सकल-लोकैकसाक्षिणे सकल-निगम-गुह्याय
सकल-वर-प्रदाय सकल-दुरि-तार्ति-भञ्जनाय
सकल-जगद-भयंकराय
सकल-लोकैक-शंकराय शशांक-शेखराय
शाश्वत-निजाभासाय निर्गुणाय निरूपमाय
निरूपाय निरा-भासाय निरामयाय निष्प्रपञ्चाय
निष्कलंकाय निर्द्वन्द्वाय निस्संगाय निर्मलाय
निर्गमाय नित्य-रूप-विभवाय निरुपम-विभवाय निराधाराय
नित्य-शुद्ध-बुद्ध-परिपूर्ण-सच्चिदानन्दाद्वयाय परम-शान्त-प्रकाश-तेजो-रूपाय
जय जय महारुद्र महारौद्र भद्रावतार
दुःखदावदारण महाभैरव कालभैरव
कल्पान्तभैरव कपाल-मालाधर
खट्वांग-खड्ग-चर्म-पाशांकुश-डमरु-शूल-चापबाण-गदा-शक्ति-भिन्दिपाल-तोमर-मुसल-मुद्गर-पट्टिश-परशु-परिघ-भुशुण्डी-शतघ्नी-चक्राद्य-आयुध-भीषणकर
सहस्र-मुख दंष्ट्रा-कराल विकट-आट्टहास-विस्फारित-ब्रह्माण्ड-मण्डल-नागेन्द्र-कुण्डल
नागेन्द्रहार नागेन्द्रवलय नागेन्द्रचर्मधर मृत्युञ्जय त्रयम्बक त्रिपुरान्तक विरूपाक्ष विश्वेश्वर विश्वरूप वृषभवाहन विषभूषण
विश्वतोमुख सर्वतो रक्ष रक्ष मां ज्वल ज्वल महामृत्यु-भयमपमृत्यु-भयं नाशय नाशय
रोग-भयम-उत्सादयोत्-सादय विष-सर्प-भयं शमय शमय चोरभयं मारय मारय
मम शत्रून-उच्चाटय-ओच्चाटय शूलेन विदारय विदारय कुठारेण भिन्धि भिन्धि खंगेन छिन्धि छिन्धि खट्वांगेन विपोथय विपोथय मुसलेन निष्पेषय
निष्पेषय बाणैः संताडय संताडय रक्षांसि भीषय भीषय भूतानि विद्रावय विद्रावय कूष्माण्ड-वेताल-मारीगण-ब्रह्मराक्षसान् संत्रासय संत्रासय
मामभयं कुरु कुरु वित्रस्तं माम-आश्वासय-आश्वासय नरक-भयान्मामुद्धारय-ओद्धारय संजीवय संजीवय क्षुत्तृड्भ्यां माम-आप्यायय-आप्यायय
दुःखातुरं माम-आनन्दय-आनन्दय शिवकवचेन माम-आच्छादय-आच्छादय त्रयम्बक सदाशिव नमस्ते नमस्ते नमस्ते।
| ऋषभ उवाच |
इत्ये-तत्कवचं शैवं वरदं व्याहृतं मया ।
सर्व-बाधा-प्रशमनं रहस्यं सर्व-देहिनाम् ॥28॥
य: सदा धारयेन्मर्त्य: शैवं कवचमुत्तमम् ।
न तस्य जायते क्वापि भयं शंभो-रनु-ग्रहात् ॥29॥
क्षीणायुर्-मृत्यु-मापन्नो महारोग-हतोऽपि वा ।
सद्य: सुखम-वाप्नोति दीर्घ-मायुश्च विंदति ॥30॥
सर्व-दारिद्र्य-शमनं सौमंगल्य-विवर्धनम् ।
यो धत्ते कवचं शैवं स देवैरपि पूज्यते ॥31॥
महापातक-संघातैर्मुच्यते चोपपातकै: ।
देहांते शिवमाप्नोति शिव-वर्मानुभावत: ॥32॥
त्वमपि श्रद्धया वत्स शैवं कवचमुत्तमम् ।
धारयस्व मया दत्तं सद्य: श्रेयो ह्यवाप्स्यसि ॥33॥
| सूत उवाच |
इत्युक्त्वा ऋषभो योगी तस्मै पार्थिवसूनवे ।
ददौ शंखं महारावं खड्गं चारि-निषूदनम् ॥34॥
पुनश्च भस्म संमंत्र्य तदंगं सर्वतोऽस्पृशत् ।
गजानां षट्सहस्रस्य द्विगुणं च बलं ददौ ॥35॥
भस्म-प्रभावात्संप्राप्य बलैश्वर्य-धृति-स्मृतीः ।
स राजपुत्रः शुशुभे शरदर्क इव श्रिया ॥36॥
तमाह प्रांजलिं भूयः स योगी राजनंदनम् ।
एष खड्गो मया दत्त-स्तपो-मंत्रानुभावतः ॥37॥
शितधारमिमं खड्गं यस्मै दर्शयसि स्फुटम् ।
स सद्यो म्रियते शत्रुः साक्षान्मृत्युरपि स्वयम् ॥38॥
अस्य शंखस्य निह्रादं ये शृण्वंति तवाहिताः ।
ते मूर्च्छिताः पतिष्यंति न्यस्त-शस्त्रा विचेतना ॥39॥
खड्ग-शंखाविमौ दिव्यौ परसैन्य-विनाशिनौ ।
आत्म-सैन्य-स्वपक्षाणां शौर्य-तेजो-विवर्धनौ ॥3.3.12.40॥
एतयोश्च प्रभावेन शैवेन कवचेन च ।
द्विषट्-सहस्त्र-नागानां बलेन महतापि च ॥41॥
भस्म-धारण-सामर्थ्याच्छ-त्रुसैन्यं विजेष्यसि ।
प्राप्य सिंहासनं पैत्र्यं गोप्तासि पृथिवी-मिमाम् ॥42॥
इति भद्रायुषं सम्यगनु-शास्य समातृकम् ।
ताभ्यां संपूजितः सोऽथ योगी स्वैर-गतिर्ययौ ॥43॥
इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां तृतीये ब्रह्मोत्तर खंडे सीमंति-नीमाहात्म्ये भद्रायू-पाख्याने शिवकवच-कथनं नाम द्वादशो-ऽध्यायः ॥
भगवान शिव अनादि, अनंत, सर्वशक्तिमान और करुणामयी देव हैं। वे संहार के देवता होते हुए भी भक्तों को अपार कृपा, सुख, शांति और सुरक्षा प्रदान करने वाले हैं। शिव अमोघ कवच एक दिव्य कवच है, जो भगवान शिव की शक्ति से युक्त है और साधक को हर प्रकार के संकटों से बचाने के लिए अत्यंत प्रभावशाली माना जाता है। यह कवच जीवन में आने वाले सभी प्रकार के कष्टों, शारीरिक रोगों, मानसिक तनाव और आध्यात्मिक बाधाओं को दूर करता है।
यह कवच किसी भी प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा, भय और बाधाओं को समाप्त करने में सक्षम होता है।
सभी प्रकार के भय से मुक्ति:
यह कवच व्यक्ति को आकस्मिक दुर्घटनाओं, भूत-प्रेत बाधाओं, नकारात्मक ऊर्जा और अदृश्य शक्तियों से सुरक्षित रखता है।
स्वास्थ्य संबंधी लाभ:
इस कवच के प्रभाव से शरीर स्वस्थ और मन शांत रहता है। यह सभी प्रकार के शारीरिक और मानसिक रोगों से मुक्ति दिलाने में सहायक होता है।
मनोकामनाओं की पूर्ति:
भगवान शिव भक्तों की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करने वाले हैं। इस कवच का पाठ करने से इच्छित कार्यों में सफलता प्राप्त होती है।
आध्यात्मिक उन्नति:
यह कवच साधक के भीतर ध्यान, भक्ति और योग की शक्ति को जागृत करता है। भगवान शिव की साधना करने वालों को विशेष लाभ प्राप्त होता है।
सुख, समृद्धि और सौभाग्य:
इस कवच का पाठ करने से जीवन में सुख-शांति बनी रहती है और आर्थिक बाधाएँ दूर होती हैं। व्यापार और नौकरी में उन्नति प्राप्त होती है।
शत्रु और विघ्नों से रक्षा:
जो व्यक्ति अपने जीवन में शत्रुओं से परेशान हैं, उनके लिए यह कवच अत्यंत प्रभावी सिद्ध होता है। यह कवच सभी प्रकार के संकटों से रक्षा करता है।
राहु, केतु और शनि दोष का निवारण:
यदि किसी जातक की कुंडली में राहु, केतु या शनि की महादशा अथवा अशुभ प्रभाव हो, तो इस कवच का पाठ उसे इन ग्रहों के कुप्रभाव से मुक्त करता है।
परिवार और गृहस्थ जीवन में शांति:
यदि परिवार में अशांति, कलह या मानसिक तनाव रहता है, तो इस कवच का पाठ करने से घर में सुख और शांति बनी रहती है।
स्नान और शुद्धिकरण:
प्रातःकाल स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। पूजा स्थल को गंगाजल से शुद्ध करें। भगवान शिव की प्रतिमा या शिवलिंग की स्थापना: घर के पूजा स्थल में भगवान शिव की प्रतिमा अथवा शिवलिंग स्थापित करें। जल, दूध, दही, घी, शहद और गंगाजल से अभिषेक करें। बिल्व पत्र, धतूरा और सफेद पुष्प अर्पित करें।
संकल्प लें:
अपने मन में एक संकल्प लें कि आप भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए इस कवच का श्रद्धा और विश्वास के साथ पाठ करेंगे।
कवच का पाठ करें:
ऊँ नमः शिवाय मंत्र का 108 बार जप करें। तत्पश्चात शिव अमोघ कवच का श्रद्धापूर्वक पाठ करें।
आरती और प्रसाद वितरण:
पाठ के पश्चात भगवान शिव की आरती करें। प्रसाद के रूप में पंचामृत या कोई मीठी वस्तु भगवान को अर्पित करें और भक्तों में वितरित करें।
विशेष अवसरों पर पाठ:
प्रत्येक सोमवार, महाशिवरात्रि और श्रावण मास में इस कवच का पाठ करना अत्यंत फलदायी होता है। अमावस्या और पूर्णिमा के दिन इस कवच का पाठ करने से विशेष लाभ प्राप्त होता है।
इस कवच के साथ भगवान शिव के ध्यान मंत्र का जप भी अत्यंत लाभकारी होता है। यह मंत्र भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने में सहायक होता है।
ॐ नमः शिवाय।
महादेवाय शंकराय त्र्यम्बकाय नमः।
शिव अमोघ कवच भगवान शिव की अपार कृपा प्राप्त करने का एक अत्यंत शक्तिशाली माध्यम है। जो भी व्यक्ति इस कवच का श्रद्धा और विश्वास के साथ नियमित रूप से पाठ करता है, उसे जीवन में अद्भुत लाभ प्राप्त होते हैं। यह कवच न केवल शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर लाभकारी होता है, बल्कि साधक को ईश्वर से जोड़कर आत्मिक उन्नति की ओर भी अग्रसर करता है।
यदि आप अपने जीवन में किसी भी प्रकार की बाधाओं का सामना कर रहे हैं या भगवान शिव की विशेष कृपा प्राप्त करना चाहते हैं, तो इस कवच का नित्य श्रद्धापूर्वक पाठ करें। इससे आपके जीवन में सफलता, समृद्धि और शांति बनी रहेगी। हर हर महादेव!
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