भारद्वाज ऋषि

भारद्वाज ऋषि

यहां जानें इनके बारे में पूरी जानकारी


भारद्वाज ऋषि कौन थे? (Who was Bhardwaj Rishi?)

हिंदू धर्म में कई महान ऋषि मुनियों का वर्णन किया गया है। इन्हीं में से एक हैं भारद्वाज ऋषि। इन्होंने इन्द्रदेव से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया था। ऋक्तन्त्र के अनुसार, ये ब्रह्मा, बृहस्पति व इन्द्र के बाद चौथे व्याकरण प्रवक्ता थे। इंद्र से इन्हें व्याकरण का ज्ञान मिला था, जबकि महर्षि भृगु ने भारद्वाज ऋषि को धर्मशास्त्र का उपदेश दिया था। ऋग्वेदीय मंत्रों की शाब्दिक रचना करने वाले 7 ऋषि-परिवारों में भारद्वाज जी का नाम बड़े ही सम्मान से लिया जाता है। भारद्वाज ऋग्वेद के छठे मण्डल के ऋषि रूप में प्रसिद्ध हैं। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, भारद्वाज महर्षि वाल्मीकि जी के शिष्य थे।

भारद्वाज के पिता देवगुरु बृहस्पति और माता ममता थीं। संहिताओं और ब्राह्मणों में ऋषि और मंत्रकार के रूप में भारद्वाज का उल्लेख सबसे पहले हुआ है, जबकि महाकाव्यों में भारद्वाज त्रिकालदर्शी, महान चिंतक और ज्ञानी के रूप में जाने जाते हैं। अग्नि के सामर्थ्य को जानने के बाद भारद्वाज ने अमृत तत्व पाकर और स्वर्ग लोक जाकर आदित्य से सायुज्य प्राप्त किया था। माना जाता है कि इसी वजह से भारद्वाज सबसे ज्यादा आयु प्राप्त करने वाले ऋषियों में से एक थे। महर्षि चरक ने इन्हें अपरिमित आयु वाला महर्षि बताया था।

भारद्वाज ऋषि का जीवन परिचय (Biography of Bhardwaj Rishi)

वैदिक ऋषियों में भारद्वाज ऋषि का उच्च स्थान है। इनके पुत्रों में 10 ऋषि ऋग्वेद के मंत्र द्रष्टा हैं और एक पुत्री रात्रि सूक्त की मन्त्रद्रष्टा मानी गई है। ऋग्वेद की सर्वानुक्रमणी के अनुसार, कशिपा भी भारद्वाज की पुत्री थी। इस प्रकार भारद्वाज ऋषि की 12 संतानें मंत्र द्रष्टा ऋषियों की कोटि में शामिल थीं। रामायण में भारद्वाज ऋषि के बारे में बताया गया है। कहते हैं कि प्रभु श्री राम ऋषि की सलाह पर ही वनवास के दौरान चित्रकूट में रुके थे। यही नहीं, लंका विजय के बाद अयोध्या लौटते समय भी भगवान राम इनके आश्रम में रुके थे। यहीं से श्री राम जी ने हनुमानजी को भरत के पास अपने अयोध्या पहुंचने की सूचना देने के लिए भेजा था। राम को लाने के लिए चित्रकूट जाते समय भरत भी महामुनि वशिष्ठ के साथ भारद्वाज ऋषि के आश्रम में आए थे। ऋषि ने भरत को राम के वनवास के कारण माता कैकेयी पर आक्षेप न करने की सलाह भी दी थी और बताया था कि प्रभु श्री राम का वनवास देवताओं और ऋषियों के कल्याण के लिए विधि द्वारा नियत है।

रामायण काल की तरह महाभारत काल में भी भारद्वाज ऋषि के बारे में बताया गया है। महाभारत में इन्हें सप्तर्षियों में से एक बताया जाता है। सभापर्व में भारद्वाज ऋषि को ब्रह्मा की सभा में बैठने वाले ऋषियों में एक कहा गया है। कहते हैं कि महाभारत के प्रमुख पात्र द्रोण इन्हीं के अयोनिज पुत्र थे।

भारद्वाज ऋषि के महत्वपूर्ण योगदान (Important contributions of Bhardwaj Rishi)

  • भारद्वाज ऋषि को प्रयाग का पहला वासी माना जाता है। यानी इन्होंने ही प्रयाग को बसाया था।
  • कहते हैं कि प्रयाग में ऋषि ने ही धरती के सबसे बड़े गुरुकुल की स्थापना की और हजारों वर्षों तक विद्यादान करते रहे।
  • भारद्वाज ऋषि ने भगवान शिव के आशीर्वाद से प्रयाग के अधिष्ठाता भगवान माधव की परिक्रमा भी स्थापित की, जो कि संसार की पहली परिक्रमा मानी जाती है। मान्यता है कि जो कोई इस परिक्रमा को करता है उसके पाप खत्म हो जाते हैं और पुण्य का उदय होता है। आज भी प्रयाग में इस परिक्रमा के बिना कोई भी अनुष्ठान व श्राद्ध आदि फलित नहीं माने जाते।
  • ऋषि के लिखे अनेक ग्रंथों में आयुर्वेद संहिता, भारद्वाज स्मृति, भारद्वाज संहिता, राजशास्त्र, यंत्र सर्वस्व प्रमुख रूप से प्रसिद्ध है।
  • भारद्वाज ऋषि ने अपने जीवनकाल में बड़े ही गहन अनुभव किये थे, उनकी शिक्षा के आयाम अतिव्यापक थे।
  • भारद्वाज ऋषि ने पिता बृहस्पति से आग्नेयास्त्र प्राप्त किया था, जिसके बाद भारद्वाज ने अग्निवेश को आग्नेयास्त्र की शिक्षा दी। द्रौपदी के पिता द्रुपद ने भी इन्हीं से अस्त्रों की शिक्षा ली थी।
  • भारद्वाज ऋषि ने इंद्रदेव से व्याकरण व शास्त्र की शिक्षा लेने के बाद उसे व्याख्या सहित कई ऋषियों को पढ़ाया था।

भारद्वाज ऋषि से जुड़े रहस्य (Mysteries related to Bhardwaj Rishi)

कहते हैं कि वायुयान की खोज भारद्वाज ​ऋषि ने ही की थी। इनके यंत्र सर्वस्व और विमान शास्त्र की आज भी चर्चा होती है। भारद्वाज के विमान शास्त्र में यात्री विमानों के अलावा लड़ाकू विमान और स्पेस शटल यान का भी उल्लेख मिलता है। यही नहीं, भारद्वाज ऋषि ने एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक उड़ान भरने वाले विमानों के बारे में भी लिखा है। साथ ही उन्होंने वायुयान को अदृश्य कर देने वाली तकनीक के बारे में भी बताया है।

कहते हैं कि प्रभु श्री राम भारद्वाज ऋषि जी की सलाह पर ही वनवास के दौरान चित्रकूट में रुके थे। यही नहीं, रावण पर विजय हासिल करने के बाद भी प्रभु श्री राम, माता सीता और लक्ष्मण जी इनके आश्रम में ही पधारे थे।

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