कण्व ऋषि कौन थे? (Who was sage Kanva?)
भारत की धरती पर ऋषियों का एक लंबा इतिहास रहा है। यहां पर हर काल खंड में एक से बढ़कर एक विख्यात और प्रसिद्ध ऋषियों ने जन्म लिया। जिन्होंने समाज के बेहतरी के लिए कई शोध किए और कई अविष्कार किए। इन्हीं महाऋषियों में से एक हैं वैदिक ऋषि कण्व। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था। धार्मिक किंवदंतियों के अनुसार महर्षि कण्व ने एक स्मृति की भी रचना की है जिसे 'कण्वस्मृति' के नाम से जाना जाता है।
कण्व ऋषि का जीवन परिचय (Biography of sage Kanva)
सोनभद्र में जिला मुख्यालय से 8 कि.मी की दूरी पर कैमूर श्रृंखला के शीर्ष स्थल पर स्थित कण्व ऋषि की तपस्थली है जो कंडाकोट नाम से विख्यात है। कण्व ऋषि के जन्म को लेकर विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार महर्षि कण्व ने ही अप्सरा मेनका के गर्भ से उत्पन्न विश्वामित्र की कन्या शकुंतला का पालन पोषण किया था। ऐसा बताया जाता है कि शकुंतला के पुत्र भरत का जातकर्म महर्षि कण्व ने संपादित किया था।
चर्चित कथा के अनुसार एक बार हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट खेलने वन में गए । जिस वन में वे शिकार के लिये गए थे उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था। आखेट के बाद राजा दुष्यंत ऋषि कण्व के दर्शन करने के लिये उनके आश्रम पहुंच गए । वहां उनकी भेंट एक कन्या से हुई, उस कन्या ने राजा दुष्यंत को बताया कि ऋषि कण्य तीर्थ यात्रा पर गए हैं अगर आप चाहे तो आश्रम में रुक कर विश्राम कर सकते हैं।
राजा दुष्यंत के पूछने पर कन्या ने अपना परिचय देते हुए अपना नाम शकुन्तला और कण्व ऋषि की पुत्री बताया। शकुन्तला की बात सुन कर राजा दुष्यंत ने आश्चर्यचकित होकर प्रश्न किया कि कण्व ऋषि तो आजन्म ब्रह्मचारी हैं फिर आप उनकी पुत्री कैसे हईं? उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुन्तला ने कहा “ वास्तव में मेरे माता-पिता मेनका और विश्वामित्र हैं। मेरी माता ने मेरे जन्म होते ही मुझे वन में छोड़ दिया था। जहां पर शकुन्त नामक पक्षी ने मेरी रक्षा की। इसी लिये मेरा नाम शकुन्तला पड़ा।
उसके बाद कण्व ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी और वे मुझे अपने आश्रम में ले आए । उन्होंने ही मेरा भरन-पोषण किया। जन्म देने वाला, पोषण करने वाला तथा अन्न देने वाला – ये तीनों ही पिता कहे जाते हैं। इस प्रकार कण्व ऋषि मेरे पिता हुए ।ऋषि पुत्री के वचनों को सुनकर राजा दुष्यंत ने कहा कि शकुन्तला तुम क्षत्रिय कन्या हो। मैं तुम्हारी खूबसूरती पर मोहित हो चुका हूँ। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ। शकुन्तला भी महाराज दुष्यंत पर मोहित हो चुकी थी अतः उसने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। दोनों नें गन्धर्व विवाह कर लिया। विवाह के बाद कुछ समय राजा दुष्यंत ने शकुन्तला के साथ वन में ही व्यतीत किया। फिर एक दिन वे शकुन्तला से कहा “मुझे अपने राज्य की जिम्मेदारी संभालने के लिए हस्तिनापुर लौटना पड़ेगा। कण्व ऋषि जब तीर्थ से लौट कर आ जाएंगे तब मैं तुम्हें यहां से विदा करा कर अपने साथ ले जाऊंगा।” राजा दुष्यंत ने शकुन्तला को अपनी स्वर्ण मुद्रिका दी और हस्तिनापुर वापस लौट गए।
एक दिन कण्व ऋषि के आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे। राजा दुष्यंत के विरह में खोई शकुन्तला ने दुर्वासा ऋषि का यथोचित स्वागत सत्कार नहीं किया।जिससे दुर्वासा ऋषि नाराज़ हो गए और क्रोधित हो कर शकुंतला को शाप दिया कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तुमने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा। लेकिन शकुन्तला के क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा कि अच्छा यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी।
कुछ समय बाद कण्व ऋषि तीर्थयात्रा से लौटे तो शकुंतला ने अपने पिता को गंधर्व विवाह के बारे में जानकारी दी। शकुंतला की बातें सुनकर कण्व ऋषि ने कहा कि विवाह के बाद कन्या को अपने पति के घर ही रहना चाहिए। यह कहकर कण्व ऋषि ने शकुंतला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया। रास्ते में शकुंतला की अंगूठी पानी में गिर गई, जिसे एक मछली ने उसे निगल लिया। दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण दुष्यंत शकुंतला को भूल चुके थे और उन्हें स्वीकार करने से मना कर दिया, जिसके बाद शकुंतला की मां मेनका प्रकट हुईं और उन्हें अपने साथ लेकर चली जाती हैं। मेनका ने शकुंतला को कश्यप ऋषि के आश्रम में छोड़ दिया, जहां उसने भरत को जन्म दिया। जिनके नाम हमारे देश का नाम भारत पड़ा।
कण्व ऋषि के महत्वपूर्ण योगदान (Important contributions of Kanva Rishi)
देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्व ऋषि ने व्यवस्थित किया। 103 सूक्तवाले ऋग्वेद के आठवें मण्डल के अधिकांश मन्त्र महर्षि कण्व तथा उनके वंशजों व गोत्रजों द्वारा दृष्ट हैं। कुछ सूक्तों के अन्य भी द्रष्ट ऋषि हैं। किंतु ‘प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति’ के अनुसार महर्षि कण्व अष्टम मण्डल के द्रष्टा ऋषि कहे गए हैं। इनमें लौकिक ज्ञान-विज्ञान तथा अनिष्ट-निवारण सम्बन्धी उपयोगी मन्त्र हैं।