महर्षि विश्वामित्र

महर्षि विश्वामित्र

जानिए श्रीराम क्यों आए महर्षि विश्वामित्र के पास


महर्षि विश्वामित्र कौन थे? (Who was Maharshi Vishwamitra?)

भारत में ऋषियों की सुदीर्घ परम्परा रही है, इन्हीं ऋषियों ने अपने ज्ञान और तपस्या के बल पर भारतीय धर्म व संस्कृति को समृद्ध बनाने का कार्य किया। पौराणिक कथाओं में कई महान ऋषियों का उल्लेख मिलता है। इन्हीं में से एक हैं महर्षि विश्वामित्र। विश्वामित्र बड़े ही प्रतापी व तेजस्वी महापुरुष थे। सप्तऋषियों में इनका नाम भी शामिल है। हालांकि महर्षि विश्वामित्र जन्म से ब्राह्मण नहीं बल्कि क्षत्रिय थे। इन्हें पहले राजा कौशिक के रूप में जाना जाता था। अपनी कठोर तपस्या के बल पर इन्होंने क्षत्रियत्व से ब्राह्मणत्व धारण किया।

इतिहास के सबसे श्रेष्ठ ऋषियों में से एक महर्षि विश्वामित्र पहले ऐसे ऋषि थे जिन्होंने गायत्री मंत्र को समझा था। कहते हैं कि ऐसे सिर्फ 24 गुरु हैं जो कि गायत्री मन्त्र को जानते हैं। महर्षि विश्वामित्र को चारों वेदों का ज्ञान व ओंकार का ज्ञान प्राप्त था। वैदिक चिंतन में इनका विशेष स्थान है। ये ऋग्वेद के तीसरे मंडल के द्रष्टा हैं। वैदिक और पौराणिक कथा प्रसंगों में महर्षि विश्वामित्र के कार्यों का उल्लेख किया गया है।

महर्षि विश्वामित्र का जीवन परिचय (Biography of Maharishi Vishwamitra)

कहते हैं कि महर्षि विश्वामित्र जी का जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ था। पौराणिक कथाओं के अनुसार, प्राचीन काल में एक धर्मात्मा राजा कुश थे, उनकी पत्नी का नाम वेदर्भि था। इनके चार पुत्र हुए जिसमें से एक का नाम कुशनाभ था। कुशनाभ ने पुत्रकामेष्टि यज्ञ किया, जिससे उन्हें गाधि नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। गाधि की एक पुत्री थी, जिसका नाम सत्यवती था, जिसका विवाह भृगु ऋषि के पुत्र ऋचीक के साथ हुआ था। विवाह के बाद भृगु ऋषि ने सत्यवती को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया और उसे वरदान मांगने के लिए कहा। इस पर सत्यवती ने अपनी माता के लिए भी पुत्र की कामना की।

भृगु ऋषि ने सत्यवती को दो चरु (यज्ञ का प्रसाद) पात्र दिए और कहा- एक तुम्हारे लिए है और दूसरा तुम्हारी माता के लिए। ऋतु स्नान करने के बाद पुत्र की कामना लेकर तुम गूलर के पेड़ का आलिंगन करना और तुम्हारी माता पीपल का आलिंगन करेंगी। उसके बाद जब तुम दोनों इस चरु पात्र का सेवन करोगी तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी।

कहते हैं कि गलती से चरु पात्र बदल गए। गलती से सत्यवती ने अपनी माता का चरु ग्रहण कर लिया, जिसके बाद सत्यवती की माता के गर्भ से विश्वरथ का जन्म हुआ जो बाद में चलकर महर्षि विश्वामित्र हुए। वहीं, सत्यवती के गर्भ से सप्त ऋषियों में स्थान पाने वाले महर्षि जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि के पांचवें पुत्र भगवान परशुराम थे। चरु के बदल जाने के कारण महर्षि विश्वामित्र क्षत्रिय कुल में पैदा हुए, लेकिन ब्राह्मण धर्म का पालन करते थे। वहीं, परशुराम ब्राह्मण कुल में पैदा हुए, लेकिन क्षत्रिय धर्म का पालन करते थे।

विश्वरथ ही राजा कौशिक के नाम से प्रसिद्ध हुए। कहते हैं कि राजा कौशिक बहुत ही सहज व सौम्य शासक थे। वे अपनी प्रजा का बहुत ध्यान रखते थे, अक्सर वह प्रजा के बीच जाया करते थे। कथा के अनुसार, एक बार राजा कौशिक अपनी विशाल सेना के साथ जंगल की तरफ जा रहे थे, तभी रास्ते में उन्हें गुरु वशिष्ठ जी का आश्रम दिखा। राजा ने आश्रम में रुक कर वशिष्ठ जी से भेंट की। वशिष्ठ जी ने भी राजा कौशिक व उनकी सेना का अच्छे से स्वागत किया व सभी को भरपेट भोजन कराया। वशिष्ठ जी द्वारा इतनी विशाल सेना को भोजन कराता देख राजा आश्चर्य में पड़ गए। इस पर वशिष्ठ जी ने बताया कि उनके पास स्वर्ग की कामधेनु गाय की बछड़ी नंदिनी है, जिसे इंद्र जी ने उन्हें भेंट में दी थी। उसी से सभी का भरण पोषण होता है।

नंदिनी गाय के बारे में जानने के बाद राजा कौशिक ने उसे अपने साथ ले जाने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन वशिष्ठ जी ने इनकार कर दिया। इस पर राजा ने क्रोधित होकर वशिष्ठ जी पर हमला बोल दिया लेकिन चमत्कारी नंदिनी गाय ने देखते ही देखते पूरी सेना को परास्त कर दिया। वहीं, वशिष्ठ जी ने भी क्रोधित होकर राजा के एक पुत्र को छोड़कर सभी को श्राप देकर भस्म कर दिया। जिसके बाद अपने सभी पुत्रों की मृत्यु से दुखी राजा कौशिक अपने एक पुत्र को राज पाट सौंपकर तपस्या के लिए हिमालय चले गए। जहां राजा की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और राजा को इच्छानुसार दिव्यास्त्र के ज्ञान का वरदान दिया।

धनुर्विद्या का पूर्ण ज्ञान होने के बाद राजा कौशिक ने दोबारा से गुरु वशिष्ठ पर आक्रमण कर दिया, लेकिन इस बार भी उन्हें हार का सामना करना पड़ा। वशिष्ठ जी से मिली हार के बाद राजा कौशिक को समझ आता है कि एक क्षत्रिय की बाहरी ताकत किसी ब्राह्मण की योग की ताकत के आगे कुछ नहीं। जिसके बाद वे तपस्या करके ब्रह्मत्व हासिल करने का निर्णय लेते हैं और दक्षिण दिशा में जाकर अन्न त्याग कर तपस्या में लीन हो जाते हैं। कठोर तपस्या के बाद ब्रह्माजी ने इन्हें ब्रह्मर्षि का पद दिया। जिसके बाद विश्वामित्र ने उनसे ॐ का ज्ञान भी प्राप्त किया और गायत्री मन्त्र को जाना। राजा के कठिन तप के बाद गुरु वशिष्ठ ने भी उन्हें आलिंग किया और ब्राह्मण के रूप में स्वीकार किया। तब जाकर राजा कौशिक को महर्षि विश्वामित्र का नाम प्राप्त हुआ।

महर्षि विश्वामित्र के महत्वपूर्ण योगदान (Important contributions of Maharishi Vishwamitra)

  • महर्षि विश्वामित्र की कृपा व साधना से गायत्री मंत्र की प्राप्ति हुई। यह मंत्र सभी वेद मंत्रों का मूल है। कहते हैं कि इसी से सभी मंत्रों का प्रादुर्भाव हुआ। इसलिए गायत्री को 'वेदमाता' भी कहा जाता है।
  • गुरु के रूप में महर्षि विश्वामित्र ने प्रभु श्रीराम को धनुर्विद्या व अन्य ज्ञान दिए थे।
  • सीता जी के स्वयंवर में प्रभु श्रीराम को भेजने की सलाह महर्षि विश्वामित्र ने ही दी थी।
  • महर्षि विश्वामित्र ने विश्वामित्र कल्प, विश्वामित्र संहिता व विश्वामित्र स्मृति समेत कई ग्रंथों की भी रचना की।
  • इन्होंने नवीन सृष्टि तथा त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजने का भी कार्य किया था।
  • महर्षि विश्वामित्र जी के बताने पर प्रभु श्रीराम ने अहिल्या का उद्धार किया था। जिसके बाद अहिल्या पत्थर से नारी के रूप में प्रकट हुई थीं।

महर्षि विश्वामित्र से जुड़े रहस्य (Mysteries related to Maharshi Vishwamitra)

कहते हैं कि महर्षि विश्वामित्र जी की कठोर तपस्या देख इंद्रदेव को भय हो गया था कि कहीं विश्वामित्र वरदान में स्वर्गलोक न मांग लें। इसलिए इंद्र ने स्वर्ग की अप्सरा मेनका को विश्वामित्र की तपस्या भंग करने भेजा था। मेनका काफी सुंदर थी, जिसके आगे विश्वामित्र की तपस्या भंग हो गई और विश्वामित्र उसके प्रेम में लीन हो गए। मेनका को भी विश्वामित्र से प्रेम हो गया। कहते हैं दोनों काफी वर्षों तक साथ रहे। इनकी एक पुत्री भी हुई जिसका नाम शकुंतला था। लेकिन जब विश्वामित्र जी को मेनका की सच्चाई पता चली तो उन्होंने उसे श्राप दे दिया। हालांकि, इन दोनों की पुत्री पृथ्वी पर ही पली बड़ी और बाद में राजा दुष्यंत से उनका विवाह हुआ। शकुंतला की संतान भरत के नाम पर ही देश का नाम भारत पड़ा।

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