शुक्राचार्य

शुक्राचार्य

जानें शिवजी ने इन्हें क्यों दिया मृतसंजीवनी मंत्र


शुक्राचार्य (Shukracharya)

सनातन धर्म में देवताओं और दैत्यों की कई सारी कथाएं सुनने को मिलती हैं। देवताओं के गुरु बृहस्पति और दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य अपने-अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करते हैं। दोनों ही गुरुओं का सप्ताह के दिनों में भी अपना-अपना दिन निश्चित है, इसमें से जहां गुरुवार यानी बृहस्पतिवार के दिन देवताओं के गुरु बृहस्पति जी की उपासना की जाती है। राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य की उपासना शुक्रवार को की जाती है।

शुक्राचार्य कौन थे ? (Who was Shukracharya?)

दैत्य गुरु शुक्राचार्य भगवान ब्रह्मा के वंशज हैं। इनका जन्म का नाम 'शुक्र उशनस' है। पुराणों के अनुसार शुक्राचार्य असुरों ( दैत्य , दानव और राक्षस ) के गुरु तथा पुरोहित थे। कथाओं के अनुसार शुक्राचार्य भगवान विष्णु के परम भक्त प्रह्लाद के भांजे थे और महर्षि भृगु के पुत्र थे। महर्षि भृगु की पहली पत्नी का नाम ख्याति था, जो उनके भाई दक्ष की कन्या थीं। ख्याति से महर्षि भृगु को दो पुत्र धाता और विधाता का जन्म हुआ और एक बेटी लक्ष्मी का भी जन्म हुआ। लक्ष्मी का विवाह उन्होंने भगवान विष्णु से कर दिया। महर्षि भृगु के और भी पुत्र थे जैसे उशनस और च्यवन आदि। माना जाता है कि उशनस ही आगे चलकर शुक्राचार्य बने। मत्स्य पुराण के अनुसार शुक्राचार्य का वर्ण श्वेत है। इनका वाहन रथ है, उसमें अग्नि के समान आठ घोड़े बंधे हुए हैं। रथ पर ध्वजाएं फहराती रहती हैं। इनका आयुध दंड है। शुक्र वृष और तुला राशि के स्वामी हैं। इन की महादशा 20 वर्ष की होती है। शुक्राचार्य के सिर पर सुंदर मुकुट होता है। गले में माला है। वे श्वेत कमल पर विराजमान रहते हैं। उनके चार हाथों में दंड, वरदमुद्रा, रुद्राक्ष की माला और पात्र सुशोभित रहती है।

शुक्राचार्य का जीवन परिचय (Biography of Shukracharya)

पौराणिक कथाओं के अनुसार, शुक्राचार्य का जन्म शुक्रवार को हुआ था, इसलिए महर्षि भृगु ने अपने इस पुत्र का नाम शुक्र रखा। महर्षि भृगु ने शुक्र को बाल्यावस्था में ब्रह्म ऋषि अंगिरस के पास शिक्षा के लिए भेज दिया। अंगिरस ब्रह्मा के मानस पुत्रों में सर्वश्रेष्ठ थे और गुरु के रूप में उनका सम्मान सबसे ज्यादा था। उनके पुत्र का नाम बृहस्पति था, जो बाद में देवों के गुरु बने। शुक्र और बृहस्पति दोनों ही साथ में अंगिरस से शिक्षा प्राप्त करते थे। कथाओं के अनुसार शुक्राचार्य की बुद्धि बृहस्पति की तुलना में कुशाग्र थी, लेकिन अंगिरस ऋषि के पुत्र होने के चलते बृहस्पति को ज्यादा अच्छी तरह से शिक्षा दी जाती थी, जिस वजह से नाराज होकर एक दिन शुक्राचार्य अंगिरस का आश्रम को छोड़ कर गौतम ऋषि से शिक्षा लेने लगे। गौतम ऋषि के आश्रम में शिक्षा पूर्ण होने के बाद जब शुक्राचार्य को पता चला कि बृहस्पति को देवों ने अपना गुरु बना लिया तो उन्होंने दैत्यों का गुरु बनने का निर्णय किया। इसके लिए सबसे पहले शुक्राचार्य भगवान शिव को प्रसन्न करके उनसे संजीवनी मंत्र प्राप्त करने का फैसला किया और भोलेनाथ की कठोर तपस्या कर उनसे संजीवनी मंत्र की दीक्षा ली।

शुक्राचार्य के महत्वपूर्ण योगदान (Important contributions of Shukracharya)

दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने एक नीति ग्रंथ की रचना भी की थी, जिसे शुक्र नीति के नाम से भी जाना जाता है। शुक्राचार्य ने अपनी नीतियों में जो बताया है वो आज भी हमारे जीवन पर वैसा ही लागू होता है।

1. नीति- दीर्घदर्शी सदा च स्यात्, चिरकारी भवेन्न हि।

अर्थात- व्यक्ति को अपने हर काम आज के साथ ही कल को भी ध्यान में रखकर करना चाहिए, लेकिन आज का काम कल पर टालना नहीं चाहिए। हर काम को वर्तमान के साथ-साथ भविष्य की दृष्टि से भी सोचकर करें, लेकिन किसी भी काम को आलस्य के कारण कल पर न टालें।

2. नीति- यो हि मित्रमविज्ञाय याथातथ्येन मन्दधीः। मित्रार्थो योजयत्येनं तस्य सोर्थोवसीदति।।

अर्थात- मनुष्य को किसी को भी मित्र बनाने से पहले कुछ बातों पर ध्यान देना बहुत ही जरूरी होता है। बिना सोचे-समझे या विचार किए बिना किसी से भी मित्रता करना आपके लिए नुकसानदायक हो सकता हैं। मित्र के गुण-अवगुण, उसकी आदतें सभी हम पर भी बराबर प्रभाव डालती हैं। इसलिए, बुरे विचारों वाले या गलत आदतों वाले लोगों से मित्रता करने से बचें।

3. नीति- नात्यन्तं विश्र्वसेत् कच्चिद् विश्र्वस्तमपि सर्वदा।

अर्थात- आचार्य शुक्राचार्य के अनुसार, चाहे किसी पर हमें कितना ही विश्वास हो, लेकिन उस भरोसे की कोई सीमा होनी चाहिए। किसी भी मनुष्य पर आंखें बंद करके या हद से ज्यादा विश्वास करना आपके लिए घातक साबित हो सकता है। कई लोग आपके विश्वास का गलत फायदा उठाकर नुकसान भी पहुंचा सकते हैं।

4. नीति- अन्नं न निन्घात्।

अर्थात- अन्न को देवता के समान माना जाता है। अन्न हर मनुष्य के जीवन का आधार होता है, इसलिए धर्म ग्रंथों में अन्न का अपमान न करने की बात कही गई है। कई लोग अपना मनपसंद खाना न बनने पर अन्न का अपमान कर देते हैं, यह बहुत ही गलत माना जाता है। जिसके दुष्परिणाम स्वरूप कई तरह के दुखों का सामना भी करना पड़ सकता है। इसलिए ध्यान रहे कि किसी भी परिस्थिति में अन्न का अपमान न करें।

5. नीति- धर्मनीतिपरो राजा चिरं कीर्ति स चाश्नुते।

अर्थात- हर किसी को अपने जीवन में धर्म और धर्म ग्रंथों का सम्मान करना चाहिए। जो मनुष्य अपनी दिनचर्या का थोड़ा सा समय देव-पूजा और धर्म-दान के कामों को देता है, उसे जीवन में सभी कामों में सफलता मिलती है। धर्म का सम्मान करने वाले मनुष्य को समाज और परिवार में बहुत सम्मान मिलता है। इसलिए भूलकर भी धर्म का अपमान न करें, न ही ऐसा पाप-कर्म करने वाले मनुष्यों की संगति करें।

शुक्राचार्य से जुड़े रहस्य (Mysteries related to Shukracharya)

दैत्य गुरु शुक्राचार्य भगवान शिव के बहुत बड़े उपासक थे, उन्होंने भोलेनाथ की घोर तपस्या की थी और उनसे मृतसंजीवनी मंत्र की दीक्षा प्राप्त की थी। मृत संजीवनी मंत्र से मृत व्यक्ति को फिर से जीवित किया जा सकता है। यह विद्या अति गोपनीय और कष्टप्रद साधनाओं से सिद्ध होती है। मृतसंजीवनी मंत्र का प्रयोग उन्होंने देवासुर संग्राम में देवताओं के विरुद्ध किया था, जब असुर देवताओं द्वारा मारे जाते थे, तब शुक्राचार्य उन्हें मृतसंजीवनी विद्या का प्रयोग करके जीवित कर देते थे। राहु, शुक्र के परम शिष्य हैं। ब्रह्मांड की सम्पूर्ण शक्ति, ऊर्जा, सम्पदा मानव को राहु ही उन्हें देते हैं, जो राहु के गुरु शुक्राचार्य को दीप अर्पित करते हैं। उनके यहां सुख और स्वास्थ्य पर्याप्त होता है।

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