श्री गंगा स्तोत्रम् (Shri Ganga Stotram)
हिन्दू धर्म में गंगा नदी सबसे पवित्र नदी है। माना जाता है कि जो भी व्यक्ति गंगा नदी के जल में स्नान करता है उसके सभी पाप धूल जाते हैं। उसे मृत्यु के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है। गंगा स्नान के साथ माँ गंगा जी की आरती से भी उतना ही लाभ मिलता है। यदि साधक गंगा स्त्रोत का पाठ करता है तो वह इस जीवन से तर जाता है।
श्री गंगा स्तोत्र का महत्व (Importance of Shri Ganga Stotra)
हिन्दू धर्म में गंगा स्नान के साथ साथ गंगा आरती को भी विशेष महत्त्व दिया गया है। इस कारण गंगा घाट पर सुबह और शाम के समय माँ गंगा जी की भव्य आरती की जाती है। लेकिन जो लोग गंगा आरती में शामिल नहीं हो सकते वह इस स्त्रोत का पाठ अपने घर पर कर सकते है। गंगा जल में बहुत ही चमत्कारिक शक्तियां होती है। इसलिए इस जल को किसी भी जल में मिला दिया जाये तो वह गंगा जल बन जाता है। गंगा जल से स्नान कर इस स्त्रोत का पाठ करने से इसका फल और भी बढ़ जाता है।
श्री गंगा स्तोत्र पढ़ने के फायदे (Benefits of reading Shri Ganga Stotra)
गंगा स्त्रोत का नित्य पाठ करने से व्यक्ति को मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त हो जाता है। जो व्यक्ति इस स्त्रोत का पाठ नियमित रूप से करता है। उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। साथ ही आत्मा को शांति प्राप्त होती है। गंगा स्त्रोत का पाठ रोज करने से व्यक्ति के तन और मन दोनों ही शुद्ध हो जाते है। साधक का शरीर रोग मुक्त हो जाता है। उस स्त्रोत का पाठ करने से मन में सकारात्मक विचार आते हैं।
श्री गंगा स्तोत्र का हिंदी अर्थ (Hindi meaning of Shri Ganga Stotra)
देवि सुरेश्वरि भगवति गङ्गे त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गे । शङ्करमौलिविहारिणि विमले मम मतिरास्तां तव पदकमले ॥१॥
अर्थात - हे देवि गंगे ! तुम देवगण की ईश्वरी हो, हे भगवति तुम त्रिभुवन को तारने वाली, विमल और तरल तरंगमयी तथा शंकर के मस्तक पर विहार करने वाली हो। हे माता तुम्हारे चरण कमलों में सदा मेरी मति लगी रहे।
भागीरथि सुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमे ख्यातः । नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ २॥
अर्थात - हे भागीरथि ! तुम समस्त प्राणियों को सुख प्रदान करती हो, हे माता ! वेद और शास्त्र में तुम्हारे जल का माहात्म्य वर्णित भी है, मैं तुम्हारी महिमा को नहीं जानता, हे दयामयि ! मुझ अज्ञानी की रक्षा करो।
हरिपदपाद्यतरङ्गिणि गङ्गे हिमविधुमुक्ताधवलतरङ्गे । दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ ३॥
अर्थात - हे गंगे ! तुम श्री हरि के चरणों की चरणोदकमयी नदी हो, हे देवि ! तुम्हारी तरंगें हिम, चन्द्रमा और मोती के समान सफ़ेद हैं, तुम मेरे पापों का भार दूर कर दो और कृपा करके मुझे भवसागर के पार कर दो।
तव जलममलं येन निपीतं, परमपदं खलु तेन गृहीतम् । मातर्गङ्गे त्वयि यो भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः॥ ४॥
अर्थात - हे देवि ! जिसने तुम्हारा जल ग्रहण कर लिया, उसने निश्चित ही परमपद पा लिया, हे माता गंगे ! जो तुम्हारी भक्ति करता है, उसको यमराज भी नहीं देख सकते अर्थात तुम्हारे भक्तगण यमपुरी में न जाकर बैकुण्ठ में जाते हैं।
पतितोद्धारिणि जाह्नवि गङ्गे खण्डितगिरिवरमण्डितभङ्गे । भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये, पतितनिवारिणि त्रिभुवनधन्ये ॥ ५॥
अर्थात - हे पतितजनों का उद्धार करने वाली जह्नुकुमारी गंगे ! तुम्हारी तरंगें गिरिराज हिमालय को भी खण्डित कर देती है और बहती हुई सुशोभित होती हैं, तुम भीष्म की जननी और जह्नु मुनि की कन्या हो, पतित पावनी होने से तुम त्रिभुवन में धन्य हो।
कल्पलतामिव फलदां लोके, प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके । पारावारविहारिणि गङ्गे विमुखयुवतिकृततरलापाङ्गे ॥ ६॥
अर्थात - हे माता ! तुम इस लोक में कल्पलता की भाँति फल प्रदान करने वाली हो, तुम्हें जो प्रणाम करता है, वह कभी शोक में नहीं पड़ता, हे गंगे ! मानिनि वनिता के जैसे चंचल कटाक्ष वाली तुम समुद्र के साथ विहार करती हो।
तव चेन्मातः स्रोतःस्नातः पुनरपि जठरे सोऽपि न जातः । नरकनिवारिणि जाह्नवि गङ्गे कलुषविनाशिनि महिमोत्तुङ्गे ॥ ७॥
अर्थात - हे गंगे ! जिसने तुम्हारे जल में स्नान कर लिया, वह फिर से मातृगर्भ में प्रवेश नहीं करता, हे जाह्नवि ! तुम भक्तों को नरक जाने से बचाती हो और उनके पापों को हर लेती हो, तुम्हारा माहात्म्य अतीव उच्च है।
पुनरसदङ्गे पुण्यतरङ्गे जय जय जाह्नवि करुणापाङ्गे । इन्द्रमुकुटमणिराजितचरणे सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये ॥ ८॥
अर्थात - हे करुणा कटाक्ष वाली जह्नु पुत्री गंगे ! मेरे अपावन अंगों पर अपनी पावन तरंगों से उल्लसित होने वाली, तुम्हारी जय हो ! जय हो ! तुम्हारे चरण इन्द्र के मुकुटमणि से प्रदीप्त हैं, तुम सबको सुख और शुभ देने वाली हो और अपने सेवक को आश्रय प्रदान करती हो।
रोगं शोकं तापं पापं हर मे भगवति कुमतिकलापम्। त्रिभुवनसारे वसुधाहारे त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे॥ ९॥
अर्थात - हे भगवति ! तुम मेरे रोग, शोक, पाप, ताप और कुमति का हरण कर ले, तुम त्रिभुवन की सार और वसुधा का हार हो, हे देवि ! इस संसार में तुम्हीं मेरी एकमात्र गति हो।
अलकानन्दे परमानन्दे कुरु करुणामयि कातरवन्द्ये । तव तटनिकटे यस्य निवासः खलु वैकुण्ठे तस्य निवासः ॥ १०॥
अर्थात - हे दुखियों की वंदना देवि गंगे ! तुम अलकापुरी को आनन्द प्रदान करने वाली और परमानन्दमयी हो, तुम मुझ पर कृपा करो, हे माता ! जो तुम्हारे तट के समीप वास करता है, मानो वह बैकुण्ठ में ही वास करता है।
वरमिह नीरे कमठो मीनः किं वा तीरे शरटः क्षीणः । अथवा श्वपचो मलिनो दीनस्तव न हि दूरे नृपतिकुलीनः॥ ११॥
अर्थात - हे देवि ! तुम्हारे जल में कच्छप या फिर मछली बनकर रहना अच्छा है, तुम्हारे तीर पर दुबला-पतला गिरगिट बनकर रहना अच्छा है या अति मलिन दीन चाण्डाल कुल में जन्म ग्रहण कर रहना अच्छा है, परंतु तुमसे दूर कुलीन नरपति होकर रहना अच्छा नहीं।
भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये । गङ्गास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरो यः स जयति सत्यम्॥ १२॥
अर्थात - हे देवि ! तुम त्रिभुवन की ईश्वरी हो, तुम धन्य और पावन हो, जलमयी व् मुनिवर की कन्या हो। जो प्रतिदिन इस गंगा स्तोत्र का पाठ करता है, वह संसार में निश्चय ही जयलाभ कर सकता है।
येषां हृदये गङ्गाभक्तिस्तेषां भवति सदा सुखमुक्तिः । मधुराकान्तापज्झटिकाभिः परमानन्दकलितललिताभिः ॥ १३॥
अर्थात - जिनके हृदय में गंगा के प्रति अचला भक्ति है, वे सदा ही आनन्द और मुक्तिलाभ करते हैं। यह स्तुति परमानन्दमयी और सुललित पदावली से युक्त, मधुर और कमनीय है।
गङ्गास्तोत्रमिदं भवसारं वाञ्छितफलदं विमलं सारम् । शङ्करसेवकशङ्कररचितं पठति सुखी स्तव इति च समाप्तः ॥ १४॥
अर्थात - इस असार संसार में उक्त गंगा स्तोत्र ही निर्मल सारवान पदार्थ है, यह भक्तों को अभिलषित फल प्रदान करता है। शंकर के सेवक शंकराचार्य कृत इस स्तोत्र को जो पढ़ता है, वह सुखी होता है। इस प्रकार यह स्तोत्र समाप्त हुआ।
॥ इति श्रीमत् शंकराचार्य द्वारा रचित श्री गंगा स्तोत्र सम्पूर्ण ॥