अजा एकादशी की व्रत कथा (Aja Ekadashi Ki Vrat Katha)
अजा एकादशी का व्रत हिंदू धर्म में काफी महत्व रखता है, लेकिन क्या आप जानते हैं, कि अजा एकादशी का व्रत क्यों रखा जाता है? आज हम इससे जुड़ी कथा के बारे में आपको विस्तार से बताएंगे, इसलिए इस लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।
अजा एकादशी व्रत कथा (Aja Ekadashi Vrat Katha)
चिरकाल में अयोध्या नगरी में हरिश्चन्द्र नामक एक चक्रवर्ती राजा राज किया करते थे। वह अपनी सत्यनिष्ठा और ईमानदारी के लिए जाने जाते थे। एक बार, देवताओं ने राजा हरिश्चन्द्र की परीक्षा लेने की योजना बनाई और राजा को नींद में एक स्वप्न दिखाया। उस स्वप्न में राजा हरिश्चन्द्र ने ऋषि विश्वामित्र को अपना सारा राजपाट दान कर दिया था।
अगले दिन, राजा हरिश्चन्द्र प्रात:काल उठकर, ऋषि विश्वामित्र से मिलने गये और इसे प्रभु की इच्छा मानकर, उन्हें अपना पूरा राजपाट सौंप आए।
तब ऋषि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चन्द्र से दक्षिणा स्वरुप 500 स्वर्ण मुद्राएं दान में मांगी। इसके उत्तर में राजा ने उनसे कहा, कि "पांच सौ क्या, आप जितनी चाहें उतनी स्वर्ण मुद्राएं ले लीजिए।” इस बात पर विश्वामित्र हँसने लगे, और उनको स्मरण कराते हुए बोले, कि "राजन आप राजपाट के साथ राज्य का कोष भी दान कर चुके हैं और दान की हुई वस्तु को दोबारा दान नहीं किया जाता।"
तब 500 स्वर्ण मुद्राएं हासिल करने के लिए, राजा ने अपनी पत्नी और पुत्र को बेच दिया। उससे मिली मुद्राएं, उन्होंने विश्वामित्र को दान में दे दीं और स्वयं एक चाण्डाल के दास बन गए।
इसी प्रकार, कई वर्ष बीत जाने के बाद, राजा हरिश्चन्द्र को अपने किये गये कर्मों पर बड़ा दुख हुआ। वह इससे मुक्त होने का उपाय खोजने लगे। वह सदैव इसी चिन्ता में रहने लगे, कि मैं किस प्रकार इस कर्म से मुक्ति पाऊँ? तब एक दिन, गौतम ऋषि उनके पास पहुँचे। राजा हरिश्चन्द्र ने उन्हें बड़े आदर के साथ प्रणाम किया और उन्हें अपनी दुखद कहानी बताई।
राजा हरिश्चन्द्र की दुख-भरी कहानी सुनकर, महर्षि गौतम ने उन्हें अजा एकादशी पर विधि पूर्वक उपवास और विष्णु जी की भक्ति करने को कहा। राजा ने ऋषि की बात मान कर इस व्रत का पालन किया और इसके फलस्वरूप उनके सारे कष्ट दूर हो गए। साथ ही उन्हें पुनः अपने राज्य की भी प्राप्ति हुई।
वास्तव में एक ऋषि ने राजा की परीक्षा लेने के लिए यह सारी माया रची थी। इसके पश्चात, राजा और उनका परिवार खुशी-खुशी अपना जीवन व्यतीत करने लगे। इस कथा का सार यह है कि, जो मनुष्य सत्य का साथ देते हैं, उनके साथ कभी अन्याय नहीं होता।