जया एकादशी की व्रत कथा (Jaya Ekadashi Vrat Katha)
माघ मास में आने वाली जया एकादशी की व्रत कथा अति पावन और फलदाई है। इस कथा का पाठन करने मात्र से आपको जया एकादशी व्रत का फल प्राप्त हो जाएगा। अतः इस लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें और भगवान विष्णु की कृपा के पात्र बनें।
कथा एक समय की बात है, स्वर्ग के राजा देवराज इंद्र अपने सभापतियों के साथ नंदनवन में भोग-विलास के साथ सोमरस का आनंद ले रहे थे। इस सभा में कई अप्सराएं सुन्दर नृत्य कर रही थीं। पुष्पदन्त के नेतृत्व में श्रेष्ठ गायकों और वादकों की टोली वहां उपस्थित थी। उस वन में खिले पारिजात के सुगन्धित फूलों की खुशबू से सभा में मौजूद सभी व्यक्ति सुख की अनुभूति कर रहे थे।
इस सभा में अन्य अप्सराओं के बीच पुष्पवती नाम की एक सुन्दर अप्सरा भी नृत्य कर रही थी। वहीं प्रसिद्ध संगीतज्ञ चित्रसेन अपनी पत्नी मालिनी और पुत्र माल्यवान के साथ उस सभा में अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे थे। इस आनंद सभा में माल्यवान और पुष्पवती ने एक दूसरे को देखा और वे दोनों एक दूसरे के रूप और कला पर मोहित हो गए।
इस आकर्षण में बंधकर वे दोनों भूल गए कि वे देवराज इंद्र के सामने प्रदर्शन कर रहे हैं और इसी के चलते दोनों ही अपने सुर और ताल से भटक गए।
देवराज इंद्र ने जब माल्यवान का कर्कश गीत सुना और उसी गीत पर पुष्पवती को गलत ढंग से नृत्य करते देखा तो वे अत्यंत क्रोधित हो गए। उन्हें यह समझने में देर न लगी कि यह दोनों कलाकार एक दूसरे के आकर्षण में लिप्त होकर अपनी कला का और मेरा अपमान कर रहे हैं। इस बात से क्रुद्ध इंद्र ने माल्यवान और पुष्पवती को श्राप देते हुए कहा कि- तुम दोनों इस आनंद सभा में मुझे प्रसन्न करने का दिखावा कर रहे हो। मूर्खों! मुझे तुम दोनों के बीच का यह मोह साफ दिखाई दे रहा है। ऐसा करके तुमने अपनी कला के साथ ही मुझे भी अपमानित किया है। जाओ! मैं तुम दोनों को श्राप देता हूँ कि तुम इसी क्षण से पिशाच योनि को धारण करके मृत्यु लोक में विचरण करोगे और पति - पत्नी के रूप में अपने पापों का फल भुगतोगे।
इंद्र देव के इस कठोर श्राप से दुखी और अपने कृत्य पर लज्जित होकर माल्यवान और पुष्पवती उसी क्षण अनुपम नंदनवन से सीधे मृत्युलोक में हिमालय के निर्जन शिखर पर आ पहुंचें। इस स्थान पर माल्यवान और पुष्पवती के खाने पीने के लिए कुछ नहीं था, इस कारण से वे दोनों भूखे-प्यासे इस बर्फीले स्थान पर रहने लगे।
पिशाच के रूप में वे दोनों हिमालय की भीषण ठण्ड से पीड़ित होने लगे, क्योंकि उनके पास इस ठंड से बचने के लिए भी कोई साधन नहीं था।
एक दिन विचलित होकर ये दोनों पति-पत्नी आपस में कहने लगे कि- हमें अपने पापकर्मों का यह घोर दंड कब तक झेलना होगा और आखिर कब हमें इस पिशाच योनि से मुक्ति मिलेगी। इस तरह शोक करते हुए भूखे प्यासे उन दोनों ने पूरा दिन एक गुफा में व्यतीत कर दिया। बहुत ज्यादा ठंड होने की वजह से वे उस रात सो भी न सके और उन दोनों ने रात भर जागकर दुखी मन से नारायण का नाम लेते हुए पूरी रात बिताई।
संयोगवश इस दिन जया एकादशी की पावन तिथि थी। माल्यवान और पुष्पवती ने इस दिन निराहार रहकर प्रभु का ध्यान किया, साथ ही जया एकादशी की रात्रि में जागरण भी किया। जिसके फलस्वरूप उन्हें जया एकादशी व्रत का सम्पूर्ण फल प्राप्त हुआ और पिशाच योनि से मुक्ति मिली।
अगले दिन एक दिव्य विमान उन्हें लेने के लिए हिमालय के उस निर्जन शिखर पर आ पहुंचा। माल्यवान और पुष्पवती ने पुनः देव रूप धारण किया और वे स्वर्ग की ओर चल पड़े।
जब वे दोनों स्वर्ग पहुंचें, तब देवराज इंद्र उन्हें पुनः देव रूप में देखकर अचरज में पड़ गए। उन्होंने उन दोनों से पूछा कि - आप दोनों ने ऐसा कौन सा पुण्य किया है कि आपको मेरे दिए गए कठोर श्राप से इतनी जल्दी मुक्ति मिल गई और अब आपको पुनः स्वर्ग की प्राप्ति हुई है। तब माल्यवान ने इंद्र को बीती रात का पूरा वर्णन सुनाया और कहा कि यह सब श्री हरि की कृपा है, हमने अनजाने में विष्णु जी की प्रिय जया एकादशी का व्रत किया, जिसके फलस्वरूप हमें पिशाच योनि से मुक्ति मिली है।
यह सुनकर देवराज इंद्र प्रसन्न हुए और माल्यवान और पुष्पवती को पुनः स्वर्ग में सम्मानपूर्वक उनका स्थान प्रदान किया।
यह थी जया एकादशी की पुण्यदायिनी व्रत कथा। जिस तरह माल्यवान और पुष्पवती को इस व्रत का सम्पूर्ण फल प्राप्त हुआ, उसी तरह आपको भी जया एकादशी का पुण्य मिले।