मोहिनी एकादशी की व्रत कथा (Mohini Ekadashi Vrat Katha)
वैशाख शुक्ल पक्ष में आने वाली मोहिनी एकादशी के व्रत की कथा, इस कथा को सुनने मात्र से ही आपको मोहिनी एकादशी व्रत का आधा फल प्राप्त हो जाएगा।
**कथा ** एक समय धर्मराज युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण से पूछा कि “हे तात्! कृपा करके ऐसे व्रत के बारे में बतलाइये, जिसे करने से मनुष्य को सभी मोह माया और पतन के मार्ग पर चलने से भी से मुक्ति मिलती हो। इस व्रत की कथा क्या है, कृपया विस्तार से सुनाइए।”
तब श्री कृष्ण बोले कि “हे धर्मराज! ऐसे एक व्रत के बारे में मैं आपको बतलाता हूँ, गुरु वशिष्ठ के कहने पर इस व्रत का पालन श्रीराम ने भी किया है। इसकी व्रत कथा को ध्यानपूर्वक सुनिए”-
एक समय की बात है। सरस्वती नदी के तट पर भद्रावती नाम का एक सुन्दर नगर था। इस नगर में द्युतिमान नामक राजा शासन करते थे। वहां सभी प्रकार के धन - वैभव से संपन्न धनपाल नामक व्यवसायी भी रहते थे। धनपाल परम विष्णु भक्त और धर्मपरायण व्यक्ति थे। उन्होंने नगर में जरूरतमंद लोगों के लिए कई भोजनालय, कुएं, सरोवर, धर्मशालाएं आदि बनवाए थे। इसके साथ ही नित्य पूजा, दान-पुण्य और सत्कर्म करना भी धनपाल के व्यवहार में था।
धनपाल के 5 पुत्र थे, जिनका नाम था - सुमना, सद्बुद्धि, मेधावी, सुकृति और धृष्टबुद्धि।
चारों पुत्र धनपाल की तरह ही धार्मिक और सज्जन थे। परन्तु सबसे छोटा और पांचवां पुत्र धृष्टबुद्धि इसके ठीक उलट स्वभाव का था। वह दुराचार करता था। मदिरा और कई प्रकार के व्यसन में लिप्त रहता था। धीरे-धीरे समय बीता और धृष्टबुद्धि कुसंगति में रहकर जुआ भी खेलने लगा। स्त्रियों के साथ व्याभिचार और भोग-विलास करने में उसे सुख मिलने लगा। वह हर दिन मांस-मदिरा का सेवन करता और अपने पिता के धन को खर्च करता था।
एक दिन धृष्टबुद्धि की इन्हीं आदतों से परेशान होकर धनपाल ने उसे घर से निकाल दिया। घर से निकाले जाने के बाद वह अपने पास के गहने-कपड़े बेचकर गुजारा करने लगा। धीरे धीरे जब यह सामान भी खत्म हो गया तो उसके गलत आदतों वाले सभी स्वार्थी दोस्तों ने उसका साथ छोड़ दिया।
अब धृष्टबुद्धि ने भूख-प्यास से दुखी होकर नगर में चोरी करना शुरू कर दिया ।
एक बार वह चोरी करते हुए वह पकड़ा गया। उसे बंदी बनाकर सिपाहियों में राजा द्युतिमान के सामने पेश किया। राजा ने उसे कारागार में रहने की सजा सुनाई। जब उसकी कई महीनों की सजा खत्म हुई, और वह कारागार से बाहर आया, तब राजा ने उसे नगर से निकल जाने को कहा।
धृष्टबुद्धि नगर से निकल कर सीधा वन में चला गया। वहां भूख से परेशान होकर वह पशु-पक्षियों को मारकर खाने लगा। कुछ समय के बाद उसे खाने के लिए पशु-पक्षी का मांस मिलना भी बंद हो गया। ऐसे में एक दिन खाने की तलाश में घूमता हुआ भूख-प्यास से दुखी होकर धृष्टबुद्धि कौडिन्य ऋषि के आश्रम में जा पहुंचा। वह वैशाख का माह था और ऋषि कौडिन्य गंगा स्नान करके वापिस आश्रम आ रहे थे। उनके भीगे वस्त्रों के जल के कुछ छीटें आश्रम के पास खड़े धृष्टबुद्धि पर पड़ें। पवित्र गंगा की कुछ बुँदे शरीर पर लगने से ही उसे थोड़ी सद्बुद्धि मिली, और वह ऋषि के समीप पहुंच गया।
ऋषि कौडिन्य मुनि को प्रणाम करके उसने अपना परिचय दिया और उनसे हाथ जोड़कर विनती की कि “हे ऋषि! मैंने जीवनभर बहुत पापकर्म किए हैं, मुझे जो सजा मिली उससे भी मैं कुछ नहीं सीख पाया। अब में अपने पापों का प्रायश्चित करना चाहता हूँ। कृपया आप मुझे इन पापकर्मों से छूटने का कोई उपाय बताइए। उसकी विनती सुनकर ऋषि कौडिन्य ने कहा कि “हे बालक तुम वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की मोहिनी एकादशी का व्रत रखो। इससे तुम्हारे सभी पाप नष्ट होंगे, और तुम्हें भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होगी।” यह सुनकर धृष्टबुद्धि संतुष्ट हुआ और विधि विधान से मोहिनी एकादशी का व्रत किया।
इस व्रत के प्रभाव से धृष्टबुद्धि के सभी पाप नष्ट हुए और अंत में मृत्यु के पश्चात वह गरुड़ पर विराजित होकर विष्णुलोक को प्राप्त हुआ।