परम एकादशी की व्रत कथा (Param Ekadashi Vrat Katha)
अधिकमास के कृष्ण पक्ष में पड़ने वाली परम एकादशी पर जितना महत्व भगवान विष्णु की आराधना करने का है, उतना ही महत्व इस व्रत से जुड़ी कथा पढ़ने या सुनने का भी है।
परम एकादशी की पावन व्रत कथा
प्राचीन समय में काम्पिल्य नाम की एक नगरी हुआ करती थी, जहां सुमेध नाम का एक बहुत ही धर्मात्मा ब्राह्मण रहता था। उसकी एक पतिव्रता पत्नी भी थी। लेकिन पिछले जन्म के पापकर्मों के कारण दोनों पति-पत्नी दरिद्रता का जीवन जी रहे थे।
ब्राह्मण नगर में भिक्षा मांगने जाता, लेकिन लोग उसे अपने द्वार से खाली हाथ लौटा देते थे। निर्धन होने बाद भी ब्राह्मण की पत्नी अपने पति की सेवा में कोई कमी न रखती थी। वो घर आए अतिथि को भोजन कराती, भले ही स्वयं भूखी रह जाती। एक दिन ब्राह्मण अपनी पत्नी से कहने लगा: हे प्रिय! जब मैं नगर में जाकर लोगों से अन्न व धन की याचना करता हूँ, तो वे मेरा अनादर कर मुझे अपने द्वार से भगा देते हैं। लेकिन तुम तो जानती ही हो कि गृहस्थी धन के बिना नहीं चलती, इसलिए यदि तुम्हारी सहमति हो तो मैं परदेस जाकर कुछ काम करूं।
ये सुनकर ब्राह्मण की पत्नी ने विनम्रतापूर्वक कहा: हे स्वामी! मैं तो आपकी दासी हूँ, इसलिए आपके किसी भी निर्णय का विरोध नहीं कर सकती। लेकिन ये हमारे पूर्व जन्म में किए गए कर्मों का फल है। जब मनुष्य के कर्म बुरे हों, तो उसे सुमेरु पर्वत पर रहते हुए भी स्वर्ण नहीं मिलता। ईश्वर ने भाग्य में जो कुछ लिखा है, उसे टाला नहीं जा सकता। इसलिए हे स्वामी! आप अपना नगर छोड़कर परदेश जाने का विचार त्याग दीजिए। मैं भी आपका विछोह नहीं सह सकूंगी। वैसे भी पति के बिना स्त्री की सभी निंदा करते हैं।
पत्नी के इस तरह कहने पर ब्राह्मण परदेश नहीं गया। इसी तरह आर्थिक तंगी में ब्राह्मण दंपत्ति का समय बीतता रहा। और एक दिन उनके घर कौण्डिन्य ऋषि आए। ब्राह्मण सुमेध और उसकी स्त्री ने ऋषिवर को प्रणाम किया, और बोले: हे मुनिवर! आपका दर्शन पाकर आज हम धन्य हुए। अहोभाग्य हमारे, जो आप द्वार पर पधारे।
ब्राह्मण ने ऋषि को आदरपूर्वक भीतर बुलाया, और उसकी पत्नी ने आसन बिछाकर उन्हें भोजन कराया। जब ऋषि भोजन कर चुके, तो ब्राह्मणी कहने लगी: हे ऋषिवर! हम पति-पत्नी बड़ी दरिद्रता में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। लेकिन भाग्यवश आज आप मेरे द्वार पर आए हैं, तो मुझे पूर्ण विश्वास है कि मेरी दरिद्रता नष्ट करने के लिए कोई उपाय अवश्य सुझाएंगे।
ये सुनकर कौण्डिन्य ऋषि बोले: हे ब्राह्मणी! मलमास के कृष्ण पक्ष में आने वाली परम एकादशी का व्रत सभी पाप, दुःख व दरिद्रता नष्ट करने वाला होता है। जो मनुष्य पूरी आस्था से इस व्रत का पालन करते हैं, उन्हें अपार धन की प्राप्ति होती है। यह एकादशी धन-वैभव देने के साथ-साथ पापों का नाश कर उत्तम गति भी प्रदान करती है। कुबेर भी परम एकादशी व्रत का पालन कर धनाधिपति बने। इसी व्रत के प्रभाव से सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र को अपना पुत्र, स्त्री और राज्य वापिस प्राप्त हुआ था। इस प्रकार कौण्डिन्य ऋषि ने ब्राह्मण की पत्नी को परम एकादशी के व्रत की विधि बताई।
इसके बाद ऋषि कहने लगे: हे ब्राह्मणी! पंचरात्रि व्रत तो और उत्तम है। परम एकादशी के दिन ब्रह्म मुहूर्त में नित्य कर्म करने के बाद पंचरात्रि व्रत आरम्भ करने का संकल्प लेना चाहिए। जो मनुष्य एकादशी से अमावस्या तक पांच दिन तक निर्जल व्रत करते हैं, वे अपने माता- और स्त्री सहित स्वर्ग लोक को जाते हैं। जो मनुष्य पांच दिन तक केवल संध्या को भोजन करते हैं, उनके महापाप नष्ट होते हैं। जो मनुष्य स्नान करके पांच दिन तक ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं, वे समस्त संसार को भोजन कराने का फल पाते हैं।
जो मनुष्य इस व्रत में अश्व दान करते हैं, उन्हें तीनों लोकों को दान करने जितना फल मिलता है। जो मनुष्य इस दिन ब्राह्मण को तिल दान करते हैं, वे तिल की संख्या के बराबर वर्षो तक विष्णुलोक में वास करते हैं। जो मनुष्य घी का पात्र दान करते हैं, वे सूर्य लोक को जाते हैं। कौण्डिन्य ऋषि आगे बोले- हे ब्राह्मणी! तुम अपने पति के साथ श्रद्धापूर्वक इस एकादशी व्रत का पालन करो। इससे तुम्हारी दरिद्रता अवश्य नष्ट हो जाएगी।
ऋषि के आदेश अनुसार ब्राह्मण दंपत्ति ने परम एकादशी का व्रत किया। जिससे उनकी दरिद्रता दूर हो गई, और पृथ्वी पर कई वर्षों तक सुखपूर्वक रहने के बाद पति-पत्नी विष्णुलोक को प्रस्थान कर गए।