शरद पूर्णिमा की व्रत कथा

शरद पूर्णिमा की व्रत कथा

बना रहता है माँ लक्ष्मी का आशीष


शरद पूर्णिमा की व्रत कथा (Sharad Poornima Vrat Katha)

प्राचीन समय में किसी नगर में एक साहूकार रहता था। उसकी दो बेटियां थी, जिनकी धर्म-कर्म में काफी रुचि थी। अपनी इस रुचि के चलते वे दोनों पूरी श्रद्धा से शरद पूर्णिमा का व्रत किया करती थीं।

बस उन दोनों की आराधना में अंतर केवल इतना था कि बड़ी बहन अपना व्रत संपूर्ण करती थी और छोटी बहन व्रत को हमेशा अधूरा छोड़ देती थी। इस प्रकार कई वर्ष बीत गए और दोनों बहनों का विवाह हो गया।

विवाह के पश्चात् बड़ी बहन को एक सुंदर एवं स्वस्थ संतान की प्राप्ति हुई, वहीं छोटी बहन संतान सुख से अछूती रह गई। छोटी बहन को संतानें तो हुईं, लेकिन सभी संतानें पैदा होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाती थीं।

इस प्रकार अपनी संतानों को खोने से मानो छोटी बहन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा हो। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि उसे यह दुख क्यों भोगना पड़ रहा है। अपने इस प्रश्न के उत्तर की खोज में वह अपने पति के साथ

“एक ऋषि के पास पहुंच गईं और उनसे बोली कि, हे मुनिवर, मैंने ऐसा क्या पाप किया है, जिसके कारण मैं इतने समय से संतान सुख से वंचित हूँ?”

इस प्रश्न के उत्तर में ऋषि मुनि बोले, “हे पुत्री, तुमने शरद पूर्णिमा का व्रत तो किया, लेकिन कभी उसे विधि-विधान से पूर्ण नहीं किया और इसी के कारण तुम्हें यह कष्ट भोगने पड़ रहे हैं। ”

इसके बाद छोटी बहन को अपनी गलती का एहसास हुआ और वह बोली, मुझसे जाने-अनजाने में बहुत बड़ा पाप हो गया है, मुनिवर आप कृपया कर मुझे इस भूल को सुधारने का कोई उपाय बताएं। मैं सदा इसके लिए आपकी आभारी रहूंगी।

ऋषि-मुनि को उस पर दया आ गई और उन्होंने छोटी बहन को विधि पूर्वक शरद पूर्णिमा का व्रत करने के लिए कहा और बताया कि इस व्रत के पुण्य फल से ही उसे अपने कष्टों से मुक्ति मिल सकती है।

छोटी बहन ने आखिरकार शरद पूर्णिमा का व्रत विधि-विधान से पूर्ण किया और इसके परिणामस्वरूप उसे पुत्र रत्न की भी प्राप्ति हुई। लोकिन भाग्य का खेल देखिए, यह संतान भी ज़्यादा दिनों तक जीवित नहीं रह पाई। अपनी इस संतान को भी मृत देखकर छोटी बहन के पांव तले ज़मीन खिसक गई।

लेकिन इस बार उसे लगा कि शायद से उसकी बड़ी बहन के पुण्यफल उसके पुत्र के प्राण वापिस लौटा दें और ऐसा सोचकर उसने अपनी संतान को एक पटरे पर चादर से ढककर लिटा दिया और अपनी बड़ी बहन को घर पर बुला लिया। जब बड़ी बहन घर पर आई तो उसने अपनी दीदी से बोला कि आप इस पटरे पर बैठ जाओ। जैसे ही बड़ी बहन बैठने लगी, उसके पल्लू ने उस शिशु को स्पर्श किया और वह रोने लगा।

उस नन्हें से शिशु को रोता देख, बड़ी बहन क्रोधित हो गई और गुस्से में बोली, तुम यह मुझसे कैसा पाप करवाने जा रही थी, अगर इस बच्चे को कुछ हो जाता तो?

यह सुनकर छोटी बहन बोली, “अरे दीदी यह तो पहले से ही मृत था, यह तो आपके भाग्य से जीवित हो गया है।

आपने हमेशा शरद पूर्णिमा का व्रत विधिपूर्वक किया है और यह उसका ही फल है कि आपके पल्लू के स्पर्श मात्र से मेरी संतान जीवित हो गई है।”

इस प्रकार छोटी बहन की संतान को नया जीवन दान मिला और जब यह खबर नगर के राजा को मिली तो उसने पूरे नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया और सबको इस पावन व्रत को करने की सलाह दी।

तब से लोगों की श्रद्धा इस व्रत में निहित है और भक्त अपने भाग्य तो जागृत करने के लिए यह व्रत पूरी श्रद्धा से करते हैं।

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