नारद जंयती जन्म कथा (Narad Jayanti Janam Katha)
पौराणिक कथाओं के अनुसार, नारद जी अपने पूर्व जन्म में ‘उपबर्हण’ नाम के गन्धर्व थे। ऐसा कहा जाता है कि उन्हें अपने रूप पर काफी घमंड था। एक बार अप्सराएं और गंधर्व गीत और नृत्य के माध्यम से ब्रह्मा जी की आराधना कर रहे थे। इस बीच उपबर्हण गंधर्व कुछ अप्सराओं के साथ श्रृंगार भाव में वहां उपस्थित हुए और उनके साथ हास्य विनोद करने लगे। जिससे वहां उपस्थित सभी भक्तों की उपासना में विघ्न पड़ने लगा। उपबर्हण के इस अपराध को देखकर ब्रह्मा जी उनपर अत्यंत क्रोधित हो गए। क्रोध में ब्र ह्मा जी ने उनको अगले जन्म में शुद्र योनी में जन्म लेने का श्राप दे दिया।
इस श्राप के परिणामस्वरूप उपबर्हण का अगला जन्म शुद्रा दासी के घर में हुआ और उनका नाम नारद रखा गया। नारद जी के जन्म के कुछ समय बाद ही उनके पिताजी की मृत्यु हो गई। इससे पहले वह इस दुख से उबर पाते, उनकी माँ का भी सांप के काटने से स्वर्गवास हो गया। जब नारद जी ने स्वयं को धरती पर अकेला पाया तो वह अपना समय ऋषि-मुनियों के साथ भगवान की आराधना में लीन होकर बिताने लगे।
एक दिन ध्यान में मग्न नारद जी को कुछ क्षणों के लिए भगवान जी के दर्शन हुए, इस अद्भुत अनुभव के बाद नारद जी के मन में ईश्वर को जानने और देखने की इच्छा और भी प्रबल हो गई।इसके पश्चात उन्होंने संकल्प लिया कि वे और ध्यान लगाएंगे और भगवान की भक्ति में लीन रहेंगे। जिसके बाद वहां आकाशवाणी हुई, जिसमें कहा गया कि, 'हे बालक, इस जन्म में अब तुम मेरे दर्शन नहीं कर पाओगे। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद बनोगे।' इस आकाशवाणी को सुनकर नारद जी ने अपना पूरा जीवन भगवान विष्णु की तपस्या और भक्ति को समर्पित कर दिया।
इस कठिन तपस्या के फलस्वरूप वह कालांतर में ब्रम्हा जी के मानस पुत्र के रूप में फिर से अवतरित हुए, इस दिन को ही नारद मुनि की जयंती के रूप में मनाया जाता है।