सीता नवमी की व्रथ कथा (Sita Navami Vrat Katha)
प्राचीन काल में मारवाड़ क्षेत्र में एक देवदत्त नामक ब्राह्मण अपनी पत्नी शोभना के साथ निवास किया करता था।एक पुण्यात्मा होने के साथ, देवदत्त को धर्म और वेदों का भी अत्यधिक ज्ञान था। उसकी पत्नी शोभना, अपने आकर्षक रूप के लिए गांव भर में प्रसिद्ध थीं। ब्राह्मण देवता अपना घर चलाने के लिए एक गांव से दूसरे गांव जाकर भिक्षा मांगते थे।
उनके पीठ पीछे, उनकी पत्नी शोभना दूसरे पुरुषों की कुसंगत में पड़ गई थी। अपने पति के साथ छल-कपट करके वह व्यभिचार के दलदल में फंस गई। धीरे-धीरे पूरे गांव को शोभना के इस दुष्कर्म के बारे में पता लग गया। अपने ही पति को धोखा देने के लिए, गांव के सभी लोग उसकी निंदा करने लगे। इस बात पर क्रोधित होकर, शोभना ने पूरे गांव को आग लगा दी और वह स्वयं भी उस अग्नि से बच न सकी और उसमें जल कर मर गई।
इन कुकर्मों की सजा शोभना को अगले जन्म में भुगतनी पड़ी। पति के साथ छल करने की वजह से उसका जन्म चांडाल के घर में हुआ और वह चांडालिनी कहलाई। मानवता की सभी सीमाओं को लांघ कर पूरे गांव को आग के हवाले करने वाली शोभना को अपने अगले जन्म में गरीबी, कुष्ठ रोग और अंधेपन समेत कई परेशानियों से जूझना पड़ा।
दरिद्र होने के कारण वह भोजन के लिए एक नगर से दूसरे नगर तक भटकती थी। एक दिन भोजन की तलाश में भटकते-भटकते वह कौशलपुरी पहुंच गई। उस दिन पूरा नगर सीता नवमी का व्रत व पूजन कर रहा था। भूख से व्याकुल और रोगों से पीड़ित उस दुखियारी ने वहां के लोगों से भोजन देने की गुहार लगाई।
वह कराहती आवाज में बोली, हे सज्जनों! मुझ पर कृपा कर कुछ भोजन सामग्री प्रदान करो। मैं भूख से मर रही हूं। यह सुनकर एक व्यक्ति ने उससे कहा- देवी! आज तो सीता नवमी है, भोजन में अन्न देने वाले को पाप लगता है, इसलिए आज तो अन्न नहीं मिलेगा। कल व्रत के पारण के समय आया, तब भरपेट प्रसाद मिलेगा।
परंतु वह चांडालिनी नहीं मानी और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगी। अधिक कहने पर भक्त ने उसे तुलसी एवं जल प्रदान किया , जिसे ग्रहण करके वह उस जगह से चली गई। कुछ दूर जाने पर ही उसकी मृत्यु हो गई, लेकिन इसके साथ ही, अनजाने में उससे सीता नवमी का व्रत पूर्ण हो गया।
व्रत पूरा करने पर दया और प्रेम की मूरत, देवी सीता ने उसे उसके सभी पापों से मुक्ति दे दी। सीता माता की कृपा से उसे स्वर्ग की प्राप्ति हुआ, जहां उसने अनंत वर्षों तक आनंदपूर्वक अपना समय व्यतीत किया। तत्पश्चात् वह अगले जन्म में कामरूप देश के महाराजा जयसिंह की महारानी कामकला के रूप में प्रख्यात हुई। व्रत के प्रभाव से उसे अपने पहले जन्मों का स्मरण बना रहा, जिसके कारण महारानी कामकला ने अपने राज्य में अनेक देवालय बनवाए, जिसमें जानकी-रघुनाथ की प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रकार उन्होंने अपना पूरा जीवन रघुनाथ और जानकी जी की सेवा को समर्पित कर दिया।