सत्यनारायण कथा (Satyanarayan Katha)
सत्यनारायण जी की व्रत कथा के बारे में बताने जा रहे हैं, इसे पढ़ने और सुनने मात्र से ही व्यक्ति की सारी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं, उसके सभी कष्ट दूर हो जाते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस पावन कथा के महात्म्य का वर्णन शब्दों में कर पाना अत्यंत कठिन है।
भाद्रपद पूर्णिमा में सत्यनारायण भगवान की पूजा इस कथा के बिना अधूरी है, इसलिए आप इस कथा को अंत तक ज़रूर पढ़ें-
कथा का प्रथम अध्याय (Satyanarayan Katha - 1st Part)
एक बार नैमिषारण्य में एकत्र आर्यावर्त के अट्ठासी हज़ार महर्षियों ने मुनिश्रेष्ठ श्री सूतजी से पूछा, ‘हे मुनिश्रेष्ठ! कलियुग में मनुष्य वेद-विधान और धर्मविरुद्ध आचरण करते हुए पापों के बोझ तले दबता जा रहा है। अतः हे मुनिश्रेष्ठ, मनुष्य के कल्याण हेतु कोई ऐसा उपाय बताइए, जिससे मनुष्य को पुण्यलाभ मिले।’
तब श्री सूतजी बोले, ‘हे ऋषियों! आपने विश्व-कल्याण के लिए उत्तम प्रश्न किया है। अब मैं उस मंगलकारी व्रत का वर्णन करूंगा जिसके संबंध में एक बार ब्रह्मर्षि नारद जी ने भी भगवान लक्ष्मीनारायण से पूछा था और उन्होंने नारद जी से जो कथा कही थी, आप उसे सुनें-
ब्रह्मर्षि नारदजी मानव कल्याण की इच्छा से विभिन्न लोकों का भ्रमण करते हुए पृथ्वीलोक में पहुंचे। वहां अपने-अपने कर्मों के अनुसार लोगों को दुखों से पीड़ित देखकर वह बहुत परेशान हुए और मन में विचार करने लगे कि इन प्राणियों के दुख का निवारण कैसे होगा?
जब वह कोई उपाय न सोच सके तो विष्णु भगवान से मिलने पहुंच गए। वहां नारद जी ने श्वेतवर्ण और चार भुजाओं वाले, शंख, चक्र, गदा और पद्म से सुसज्जित भगवान विष्णु की स्तुति करते हुए कहा, ‘हे नारायण! आप सर्वशक्तिमान व सृष्टि के पालनकर्ता हैं। आपका कोई आदि, मध्य और अंत नहीं है। आप सृष्टि के कण-कण में व्याप्त हैं और अपने भक्तों की मंगलकामनाएं पूरी करने वाले हैं, मैं आपको नमन करता हूँ।’
नारदजी की स्तुति सुनकर भगवान विष्णु बोले, ‘हे मुनिवर! आप मुझे अपने यहां आने का कारण बताइए।’
तब नारद जी ने कहा, ‘पृथ्वीलोक के प्राणी अपने-अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियों में रहते हुए दुखों से पीड़ित हैं। मुझ पर कृपा करते हुए कोई ऐसा उपाय बताइए, जिससे उनके दुखों का नाश हो सके।’
इसके उत्तर में भगवान विष्णु बोले, ‘हे नारद! अब मैं ऐसे व्रत का वर्णन करने जा रहा हूँ, जिसे करने से विश्व के सभी स्त्री-पुरुषों को पापों से मुक्ति मिलेगी और निर्धनता नष्ट होने से मनुष्य आनंदपूर्वक जीवनयापन करेगा। श्री सत्यनारायण भगवान के इस व्रत को करने से जातक की सभी मंगलकामनाएं पूरी होंगी।’
नारद जी ने जब व्रत हेतु विधि-विधान की जानकारी चाही, तो श्री नारायण बोले, ‘मन से, वचन से और कर्म से शुद्ध होकर मनुष्य भक्ति एवं श्रद्धा भाव से किसी भी दिन यह व्रत कर सकता है। इस व्रत में नैवेद्य आदि भक्तिभाव से अर्पित कर ब्राह्मणों को भोजन कराने व दक्षिणा देने से सभी सुखों की प्राप्ति होती है। इस प्रकार सत्यनारायण भगवान की आराधना से सभी कष्टों से मुक्ति पाकर मनुष्य धन से संपन्न व सुखी होकर आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करता है’
इसी के साथ प्रथम अध्याय का होता है समापन, चलिए साथ में बोलते हैं श्री सत्यनारायण भगवान की जय!
द्वितीय अध्याय (Satyanarayan Katha - 2nd Part)
श्री सूतजी बोले, 'हे ऋषि-मुनियो ! अब मैं आप सबको उस निर्धन ब्राह्मण की कथा सुना रहा हूँ, जिसने श्री सत्यनारायण भगवान का सबसे पहले व्रत किया। प्राचीन समय में वह निर्धन ब्राह्मण काशी में रहता था। भिक्षा मांगकर वह अपना जीवन यापन कर रहा था। ब्राह्मण की दुर्दशा देखकर, ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले श्री सत्यनारायण भगवान ने एक दिन बूढ़े व्यक्ति का रूप परिवर्तित कर उसके पास जाकर आदर से पूछा, 'हे ब्राह्मण देवता! तुम इस तरह घर-घर भिक्षा मांगकर, अनेक कष्टों को सहन करते हुए कैसे जीवन यापन कर रहे हो?"
दरिद्र ब्राह्मण ने कहा, 'हे मित्र! आय का कोई साधन न होने के कारण मैं भिक्षा मांगकर अपना जीवन यापन कर रहा हूं।' निर्धन ब्राह्मण की बात सुनकर बूढ़े व्यक्ति ने कहा, 'हे मित्र! श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करने से सभी कष्टों का निवारण हो जाएगा। श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा-आराधना करने से तुम्हारी सभी मनोकामनाएं पूरी होंगी और तुम्हारे घर में धन-सम्पत्ति की वर्षा होगी।' ब्राह्मण को व्रत करने की विधि बताकर सत्यनारायण भगवान अंतर्धान हो गए।
निर्धन ब्राह्मण ने बूढ़े व्यक्ति द्वारा बताए व्रत को करने का निश्चय किया। उस रात उसे नींद नहीं आई। वह व्रत करने के बारे में ही सोचता रहा और रातभर श्री सत्यनारायण भगवान का स्मरण करता रहा। प्रातः उठकर सत्यनारायण भगवान का व्रत रखने का निश्चय करता हुआ निर्धन ब्राह्मण भिक्षा मांगने के लिए निकल पड़ा। उस दिन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत धन मिला। घर लौटकर उसने अपने आसपास के लोगों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा करने व उन्हें व्रतकथा सुनाने के बाद सभी को प्रसाद देकर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण किया। कुछ ही दिनों में ब्राह्मण की निर्धनता दूर हो गई। उसके घर में धन-धान्य की वर्षा होने लगी।
'हे श्रेष्ठ मुनियो ! अब मैं आपको उन लोगों की भी कथा सुनाता हूं, जिन्होंने उस ब्राह्मण से श्री सत्यनारायण भगवान की व्रत कथा सुनकर यह व्रत किया और उनके कष्ट दूर हुए। धन-सम्पत्ति से सम्पन्न उस ब्राह्मण ने हर माह नियमित रूप से व्रत करते हुए जब अगले माह श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत किया तो उस व्रत में बहुत से बंधु-बांधव और मित्र सम्मिलित हुए। उसी समय एक बूढ़ा लकड़हारा वहां से गुजरा। उसे बड़ी प्यास लग रही थी। अतः जल पीने की इच्छा से बूढ़े लकड़हारे ने लकड़ियों के गट्ठर को जमीन पर रखा और घर के आंगन में पहुंचकर उस ब्राह्मण से पूछा, 'हे ब्राह्मण देवता! आप किसका पूजन कर रहे हैं? इस व्रत के करने से क्या लाभ होता है? कृपा करके मुझे सब बताइए।'
बूढ़े लकड़हारे की बातें सुनकर उस ब्राह्मण ने कहा, 'मैं अपने बंधु-बांधवों और परिचितों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा कर रहा हूं। इस व्रत को करने से श्री सत्यनारायण भगवान की अनुकम्पा से निर्धनता नष्ट होती है और संसार के दुखों से मुक्ति मिलती है।' ब्राह्मण से इस व्रत का वर्णन सुनकर बूढ़ा लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ और मन-ही-मन सत्यनारायण भगवान का व्रत करने का निश्चय किया। चलते हुए लकड़हारे ने मन में सोचा, 'आज लकड़ियां बेचने से जो धन मिलेगा, उस धन से मैं श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा करूंगा।' ऐसा विचार करने से उस दिन लकड़हारे को लकड़ियों के अधिक रुपये मिले। लकड़हारे ने उन रुपयों से केले, घी, दूध, दही, गेहूं का आटा और शक्कर खरीदा। घर लौटकर लकड़हारे ने देवों की प्रिय नगरी काशी में श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा की। उस पूजा में उसके परिवार के व आसपास के लोग भी सम्मिलित हुए। श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा और व्रतकथा सुनने के बाद लकड़हारे ने प्रसाद बांटकर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण किया। सत्यनारायण भगवान की अनुकम्पा से लकड़हारे के घर में धन-धान्य की वर्षा होने लगी। उसकी निर्धनता दूर हो गई। श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा करते हुए लकड़हारा आनंदपूर्वक जीवन यापन करता हुआ अंत में मोक्ष को प्राप्त कर बैकुण्ठ धाम को चला गया।
तृतीया अध्याय (Satyanarayan Katha - 3rd Part)
श्री सूतजी बोले, 'हे ऋषि-मुनियो ! अब मैं आपको आगे की कथा सुनाता हूँ। प्राचीन समय में कनकपुर में उल्कामुख नामक एक बुद्धिमान तथा सत्यवादी राजा राज्य करता था। वह प्रतिदिन मंदिर में जाकर श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा करता था और निर्धनों को अन्न, वस्त्र और धन दान करता था। उसकी पत्नी सुभद्रा बहुत सुशील थी। वे दोनों हर महीने श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करते थे। श्री सत्यनारायण की अनुकम्पा से उनके महल में धन-सम्पत्ति के भण्डार भरे थे। उनकी सारी प्रजा बहुत आनंद से जीवन-यापन कर रही थी। एक बार राजा और रानी बहुत-से लोगों के साथ जब भद्रशीला नदी के किनारे श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा कर रहे थे, तो नदी के किनारे एक बड़ी नाव आकर ठहरी। उस नाव में एक धनी व्यापारी यात्रा कर रहा था। वह बहुत-सा धन कमाकर अपने नगर को लौट रहा था। उसका सारा धन उस नाव में रखा हुआ था।
नाव से उतरकर व्यापारी राजा के समीप पहुंचा। राजा को पूजा करते देख उसने कहा, 'हे राजन्! आप इन सब लोगों के साथ मिलकर किसकी पूजा कर रहे हैं? इस पूजा के करने से मनुष्य को क्या लाभ होता है?"
राजा ने व्यापारी से कहा, 'हम हर पूर्णिमा को सत्यनारायण भगवान का व्रत करते हैं और फिर पूजा-अर्चना के बाद भगवान का प्रसाद लोगों में बांटकर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण करते हैं। सत्यनारायण भगवान की पूजा से दुखियों के सारे दुख दूर होते हैं।' राजा की बात सुनकर व्यापारी ने कहा 'हे राजन्! मैं भी सत्यनारायण भगवान का व्रत करना चाहता हूं। कृपया मुझे इस व्रत को करने की विधि बतलाएं।' राजा ने व्यापारी को सत्यनारायण व्रत की पूरी विधि बताई। राजा ने व्रतकथा सुनने के बाद व्यापारी को भी प्रसाद दिया। श्री सत्यनारायण भगवान का स्मरण करते हुए व्यापारी ने प्रसाद ग्रहण किया और लौटकर अपनी पत्नी लीलावती से कहा, 'हमारी कोई सन्तान नहीं है। यदि सत्यनारायण भगवान की अनुकम्पा से हमारी कोई सन्तान हुई तो मैं श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत अवश्य करूंगा।'
व्यापारी के ऐसा निश्चय करने के कुछ समय बाद लीलावती गर्भवती हुई और उसने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। व्यापारी ने पुत्री जन्म पर बहुत खुशियां मनाईं, लेकिन सत्यनारायण भगवान का व्रत नहीं किया। जब उसकी पत्नी लीलावती ने अपने पति से व्रत करने के लिए कहा तो वह बोला, 'अभी क्या जल्दी है। इसका विवाह होगा तो मैं अवश्य श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करूंगा।'
अपने पति के वचन सुनकर लीलावती चुप रह गई। व्यापारी की कन्या कलावती शुक्लपक्ष के चंद्रमा की तरह बढ़ने लगी। एक दिन व्यापार में बहुत-सा धन कमाकर घर लौटे व्यापारी ने अपनी बेटी को सहेलियों के साथ उपवन में घूमते देखा तो उसे उसके विवाह की चिन्ता होने लगी। व्यापारी ने कलावती के लिए सुयोग्य वर ढूंढ़ने के लिए अपने सेवकों को दूर-दूर के नगरों में भेजा। व्यापारी के सेवक कंचनपुर नगर में पहुंचे। उस नगर में उन्होंने एक वणिक पुत्र को देखा। वणिक पुत्र अत्यंत सुंदर और गुणवान् था। सेवकों ने वापस लौटकर व्यापारी को उस वणिक पुत्र के बारे में बताया। व्यापारी उस सुंदर लड़के को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और कलावती का विवाह बहुत धूमधाम से उसके साथ कर दिया। दहेज में उसने वणिक पुत्र को बहुत सा धन दिया। कलावती का विवाह भी हो गया, लेकिन व्यापारी ने श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत नहीं किया।
लीलावती ने अपने पति से कहा, 'नाथ! आपने कलावती के विवाह पर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करने का निश्चय किया था। अब तो आपको व्रत कर लेना चाहिए।' पत्नी की बात सुनकर व्यापारी ने कहा, 'अभी तो मैं अपने दामाद के साथ व्यापार के लिए जा रहा हूं। व्यापार से लौटने पर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत-पूजा अवश्य करूंगा।' यह कहकर व्यापारी ने कई नावों में सामान भरा और अपने दामाद तथा सेवकों के साथ व्यापार के लिए निकल पड़ा।
उस व्यापारी द्वारा बार-बार व्रत का निश्चय करने और फिर व्रत न करने से सत्यनारायण भगवान क्रोधित हो गए और व्यापारी को दण्ड देने का निश्चय किया। व्यापारी अपने दामाद के साथ रत्नसारपुर में पहुंचकर व्यापार करने लगा। एक दिन कुछ चोर महल में चोरी करके भाग रहे थे। सैनिक उनका पीछा कर रहे थे। भागते हुए चोरों ने सैनिकों से बचने के लिए चोरी का धन अवसर पाकर व्यापारी की नावों में छिपा दिया। चोरों का पीछा करते हुए सैनिक व्यापारी के पास पहुंचे। उन्होंने व्यापारी की नावों की तलाशी ली तो उन्हें राजा का चोरी किया धन मिल गया। तब सैनिक व्यापारी और उसके दामाद को बंदी बनाकर राजा के पास ले गए। राजा ने उन दोनों को बंदीगृह में डाल दिया और उनका सारा धन ले लिया।
श्री सत्यनारायण भगवान के प्रकोप से उधर लीलावती पर भी मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। उसके घर में चोरी हो गई और चोर सारा धन चुराकर ले गए। घर में खाने के लिए अन्न भी नहीं बचा। भूख-प्यास से व्याकुल होकर व्यापारी की बेटी कलावती एक ब्राह्मण के घर गई। उस ब्राह्मण के घर में श्री सत्यनारायण भगवान की व्रतकथा हो रही थी। उसने भी वहां बैठकर व्रतकथा सुनी और प्रसाद लिया। घर लौटकर कलावती ने अपनी मां लीलावती को सारी बात बताई। कलावती से श्री सत्यनारायण भगवान की व्रतकथा की बात सुनकर लीलावती ने भी व्रत करने निश्चय किया। अगले दिन लीलावती ने अपने परिवार और आसपास के लोगों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा की। पूजा के बाद सबको प्रसाद बांटकर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण किया। लीलावती ने अपने पति और दामाद के घर लौट आने की मनोकामना से श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत किया था। लीलावती के विधिपूर्वक व्रत करने और प्रसाद ग्रहण करने से श्री सत्यनारायण भगवान ने प्रसन्न होकर उसकी मनोकामना पूरी की। उन्होंने राजा चंद्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा, 'हे राजन्! व्यापारी और उसका दामाद बिल्कुल निर्दोष हैं। सुबह उठते ही दोनों को मुक्त कर दो। उन दोनों का सारा धन भी वापस लौटा दो। यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं तुम्हारा सारा वैभव नष्ट कर दूंगा।' इतना कहकर श्री सत्यनारायण भगवान अंतर्धान हो गए। प्रातः होते ही राजा चंद्रकेतु ने अपने मंत्रियों और राजज्योतिषी को रात के स्वप्न की बात बताई तो सबने व्यापारी और उसके दामाद को छोड़ देने के लिए कहा। राजा चंद्रकेतु ने तुरन्त उस व्यापारी और उसके दामाद को छोड़ दिया। उनका सारा धन भी वापस कर दिया। इस प्रकार श्री सत्यनारायण भगवान की अनुकम्पा से व्यापारी और उसका दामाद दोनों खुशी-खुशी अपने नगर की ओर चल दिए।'
चतुर्थ अध्याय (Satyanarayan Katha - 4th Part)
श्री सूतजी बोले, 'उस व्यापारी ने अपने दामाद के साथ शुभ मुहूर्त में नावों द्वारा रत्नसारपुर से प्रस्थान किया। लंबी यात्रा करने के बाद व्यापारी ने एक नगर के किनारे नावों को रोककर भोजन किया और फिर दोनों विश्राम करने लगे। तभी श्री सत्यनारायण भगवान साधु के रूप में व्यापारी के पास पहुंचे और पूछा, 'हे वणिक! तेरी नावों में क्या लदा हुआ है?' व्यापारी ने सोचा, दण्डी साधु अवश्य ही कुछ मांगने की इच्छा से सामान के बारे में पूछ रहा है। यह सोचकर व्यापारी ने झूठ बोला, 'हे दण्डी! मेरी नावों में तो बेल और पत्र भरे हुए हैं।' व्यापारी के झूठे वचन सुनकर सत्यनारायण भगवान ने क्रोधित होते हुए कहा, 'हे वैश्य! जो तुमने कहा है, वही सत्य होगा।' इतना कहकर सत्यनारायण भगवान कुछ दूर जाकर अंतर्धान हो गए। उधर व्यापारी दण्डी साधु को वहां से खाली हाथ लौटाकर बहुत प्रसन्न हुआ।
लेकिन जब व्यापारी ने अपनी नावों में बेल और पत्र (पत्ते) भरे हुए देखे तो वह विलाप करने लगा और अपने झूठ बोलने पर प्रायश्चित करने लगा। रोते-रोते व्यापारी मूर्छित हो गया। कुछ देर बाद जब उसकी मूर्च्छा नष्ट हुई तो उसके दामाद ने कहा, 'आप दुखी मत होइए। यह सब उस दण्डी साधु के शाप के कारण हुआ है। अब वही साधु हमें इस विपत्ति से छुटकारा दिला सकते हैं। दामाद के वचन सुनकर व्यापारी दण्डी साधु की तलाश में चल दिया। कुछ देर ढूंढ़ने पर उसे एक वृक्ष के नीचे दण्डी साधु के रूप में सत्यनारायण भगवान मिल गए। व्यापारी ने दण्डी साधु के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी। दण्डी स्वरूप सत्यनारायण भगवान बोले, 'हे वणिक-पुत्र! तेरे झूठ बोलने के कारण ही मैंने तुझे दण्ड दिया है। तूने बार-बार मेरी पूजा करने के लिए कहा, लेकिन कभी पूजा की नहीं।' व्यापारी ने तब हाथ जोड़कर कहा, 'हे भगवन्! आप तो दीन-दुखियों के कष्ट दूर करने वाले हैं। मेरी इस गलती को भी क्षमा करें। आपके रूप को तो ब्रह्मा भी नहीं जान पाते। फिर भला मैं अज्ञानी कैसे आपकी लीला को समझ पाता। अब मैं जीवन में कभी झूठ नहीं बोलूंगा । सदैव श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत और पूजा किया करूंगा। आप मुझ पर अनुकम्पा करें।' व्यापारी की क्षमा-याचना सुनकर दण्डी साधु ने उसे क्षमा कर दिया।
उसी समय व्यापारी की नावों में भरे हुए बेल और पत्ते धन-धान्य में परिवर्तित हो गए। व्यापारी ने अपने सेवकों के साथ अगले दिन श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करके उनकी पूजा की। सबको प्रसाद वितरित करने के बाद स्वयं भी प्रसाद ग्रहण करके व्यापारी अपने नगर की ओर चल पड़ा।
अपने नगर में पहुंचकर व्यापारी ने एक सेवक को अपने घर भेजा। सेवक ने लीलावती को सूचित किया। उस समय लीलावती और कलावती दोनों श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा कर रही थीं। पति और दामाद के लौट आने का समाचार सुनकर लीलावती ने पूजा पूरी करके प्रसाद ग्रहण करने के बाद कलावती से कहा, 'बेटी! मैं नदी किनारे जा रही हूं । तू भी प्रसाद ग्रहण कर शीघ्र ही आ जा।' कहकर लीलावती नदी की ओर चल पड़ी। परन्तु कलावती पति से मिलने की खुशी में प्रसाद ग्रहण किए बिना ही घर से निकलकर नदी किनारे जा पहुंची। उसके प्रसाद ग्रहण न करने के कारण सत्यनारायण भगवान क्रोधित हो गए। उन्होंने व्यापारी की नावों को नदी में डुबो दिया। अपने पति को वहां न देख कलावती ने रोना शुरू कर दिया। तब व्यापारी ने कहा, 'पुत्री! अवश्य ही तुझसे कोई भूल हुई है। इसलिए श्री सत्यनारायण भगवान ने तुझे दण्ड दिया है।' तब व्यापारी ने सत्यनारायण भगवान से प्रार्थना की, 'हे भगवन्! मेरे परिवार के किसी स्त्री-पुरुष से यदि कोई भूल हुई हो तो उसे अवश्य क्षमा कर देना।' तभी आकाशवाणी हुई, 'हे वणिक-पुत्र ! तेरी कन्या मेरा प्रसाद ग्रहण किए बिना ही चली आई है। यदि अब घर पहुंचकर तेरी कन्या प्रसाद ग्रहण करके वापस आए तो उसे अपने पति के दर्शन होंगे।' कलावती ने वैसा ही किया। उसके प्रसाद ग्रहण करके वापस लौटने पर नावें जल के ऊपर आ गई। दामाद भी सुरक्षित नदी से निकल आया। घर लौटकर व्यापारी ने अपने परिवार के साथ मिलकर विधि अनुसार श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा की। उसकी सभी इच्छाएं पूरी हुई।'
पंचम अध्याय (Satyanarayan Katha - 5th Part)
श्री सूतजी बोले, 'हे ऋषि-मुनियो मैं और भी कथा सुनाता हूं। कौशलपुर में एक राजा था तुंगध्वज। प्रजा उसकी छत्रछाया में आनंदपूर्वक रह रही थी। राजा तुंगध्वज अपनी प्रजा के सुख-दुख का बहुत ध्यान रखता था। लेकिन एक बार उसने सत्यनारायण भगवान का प्रसाद ग्रहण नहीं किया। तब श्री सत्यनारायण भगवान ने राजा को प्रसाद ग्रहण न करने का दण्ड दिया।
एक दिन राजा तुंगध्वज जंगल में हिंसक पशुओं का शिकार करने निकला था। शिकार का पीछा करते हुए वह अपने सैनिकों से अलग हो गया और उसने देर तक हिंसक जानवरों का शिकार किया। अतः कुछ देर विश्राम करने के लिए वह एक वृक्ष के नीचे बैठ गया। समीप ही कुछ चरवाहे श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा कर रहे थे। राजा ने उनके पास से गुजरते हुए सत्यनारायण भगवान को नमस्कार नहीं किया। चरवाहों ने राजा को पूजा के बाद प्रसाद दिया, तो राजा ने प्रसाद भी ग्रहण नहीं किया और घोड़े पर सवार हो अपने नगर की ओर चल दिया। राजा जब नगर में पहुंचा तो देखा कि उसका सारा धन-वैभव नष्ट हो चुका है। श्री सत्यनारायण के प्रकोप से राजा निर्धन हो गया।
तब राजज्योतिषी ने राजा से कहा, 'महाराज! आपसे अवश्य ही कोई भूल हुई है। अगर आप उस भूल का प्रायश्चित्त कर लें तो सबकुछ पहले जैसा हो जाएगा।' राजा को तुरन्त अपनी भूल का स्मरण हो आया। अतः मंदिर में जाकर राजा ने श्री सत्यनारायण भगवान से क्षमा मांगी और उनकी पूजा की। पूजा के बाद प्रसाद ग्रहण करने से श्री सत्यनारायण भगवान की अनुकम्पा से चमत्कार हुआ। राजा का खोया वैभव पुनः लौट आया। श्री सत्यनारायण भगवान की कृपा से जीवन के सभी सुखों का भोग करते हुए अंत में राजा मोक्ष को प्राप्त हुआ।
इस प्रकार श्री सत्यनारायण भगवान के व्रत और पूजा को जो भी मनुष्य करता है, उसके सभी दुख, चिन्ताएं नष्ट होती हैं। सभी मनोकामनाओं को प्राप्त कर वह मनुष्य मोक्ष पाकर सीधे बैकुण्ठ धाम को जाता है।' श्री सूत जी ने कुछ पल रुककर कहा, 'हे श्रेष्ठ मुनियो ! श्री सत्यनारायण भगवान के व्रत को पूर्वजन्म में जिन लोगों ने किया उन्हें दूसरे जन्म में भी सभी तरह के सुख प्राप्त होते हैं।
वृद्ध शतानंद ब्राह्मण ने पूर्वजन्म में भगवान सत्यनारायण का विधिवत व्रत किया, वे दूसरे जन्म में सुदामा के रूप में भगवान की पूजा करते हुए अंत में मोक्ष को प्राप्त कर बैकुण्ठ धाम को चले गए। उल्कामुख राजा अगले जन्म में राजा दशरथ के रूप में मोक्ष को प्राप्त करके बैकुण्ठ को गए। व्यापारी ने मोरध्वज के रूप में जन्म लिया और अपने पुत्र को आरे से चीरकर भगवान की अनुकम्पा से बैकुण्ठ को प्राप्त किया। राजा तुंगध्वज अगले जन्म में मनु के रूप में जन्म लेकर सद्कर्म करते हुए मोक्ष को प्राप्त कर बैकुण्ठ धाम को चले गए। हे ऋषि-मुनियो ! श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत और पूजा मनुष्य को सभी चिन्ताओं से मुक्त करके, अंत में मोक्ष प्रदान करता है।