नवरात्र की कहानी/व्रत कथा - कैसे शुरू हुआ नवरात्र

नवरात्र की कहानी/व्रत कथा - कैसे शुरू हुआ नवरात्र

पूर्ण फलदाई है यह कथा


नवरात्र की कहानी/व्रत कथा - कैसे शुरू हुआ नवरात्र (Story of Navratri/Vrat Katha - How Navratri started)

नवरात्र का पर्व माता के हर रूप और हर अवतार को पूजने का समय है। इस समय माँ आदिशक्ति अपने परम भक्तों को क्षमा, शक्ति, संपन्नता और विद्या का आशीर्वाद देती हैं। इस पर्व में किया गया व्रत बहुत फलदायी होता है। पुराणों में भी नवरात्रि पर व्रत रखने का महात्म्य बताया गया है। इस लेख में हम ऐसी ही एक कथा आपको बताने जा रहे हैं, जिससे आप जानेंगे कि नवरात्रि पर माता को प्रसन्न करने वाला यह व्रत क्यों किया जाता है। इस सम्पूर्ण कथा को अवश्य पढ़ें।

**नवरात्री व्रत कथा **

वर्ष के कुछ ऐसे विशेष दिन हैं, जो पूर्णतः माँ आदिशक्ति को समर्पित हैं, जैसे कि प्रत्येक अष्टमी, नवमी, प्रत्येक शुक्रवार, चैत्र, माघ, आषाढ़ और अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से नवमी तिथि तक नौ दिन।

प्राचीन काल से इन विशेष दिनों पर व्रत किया जाता रहा है। खासकर चैत्र और शारदीय नवरात्र में व्रत का बहुत महत्व होता है। पुराणों में इस व्रत से जुड़ी एक कथा प्रचलित है, जो यह बतलाती है कि नवरात्रि पर व्रत रखने की परंपरा कैसे शुरू हुई। इस वीडियो में हम आपके लिए वही कथा लेकर आए हैं। तो चलिए बिना समय व्यर्थ किए, सुनते हैं यह कथा -

एक बार देवगुरु बृहस्पति जी ने ब्रह्मा जी से पूछा कि हे परम पिता- आप समस्त वेदों के दाता हैं, सभी शास्त्रों के ज्ञाता है। कृपया हमें बताएं कि नवरात्र पर माँ भगवती को प्रसन्न किया जाने वाला व्रत क्यों किया जाता है, इस व्रत को सबसे पहले किसने किया है, और इसके क्या फल प्राप्त होते हैं।

तब ब्रह्मा जी ने कहा कि, हे देवगुरु! जगतजननी माँ आदिशक्ति इस संसार को चलाने वाली परमसत्ता है। वह माता भगवती के स्वरूप में सृजनकर्ता हैं, और महाकाली के स्वरूप में दुष्टों की संहारक भी हैं। माता को प्रसन्न करने के लिए शारदीय नवरात्र में किया गया व्रत पुण्यफल देने वाला होता है। इस कल्याणकारी व्रत की कथा विस्तार से सुनिए-

प्रचीनकाल में पीठत नामक एक सुन्दर नगर था। इस नगर में सुनाथ नाम के एक ब्राह्मण रहते थे। सुनाथ माँ भगवती का अनन्य भक्त थे और नित्य नियम के अनुसार माता की साधना और होम करते थे। सुनाथ की सुमति नाम की एक सुन्दर, सुशील कन्या हुई, जो शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की भांति जल्दी ही बड़ी होने लगी। सुमति अपने पिता के साथ नित्य पूजा और होम में भाग लेती थी और पूरी श्रद्धा से माता की पूजा करती थी। एक बार की बात है, सुमति अपनी सखियों के साथ खेल-क्रीड़ा में व्यस्त हो गई और माँ की साधना में समय पर शामिल नहीं हो सकी। अपनी पुत्री के पूजा में देर से आने पर सुनाथ बहुत क्रोधित हो गए। उन्हें ऐसा भ्रम हुआ कि सुमति माता की आराधना में रूचि नहीं ले रही है, और केवल अपने रूप-रंग और श्रृंगार को ही महत्वपूर्ण मानती है। उन्होंने रुष्ट होकर सुमति से कहा कि पुत्री ! तुम मेरा कहा नहीं सुनती हो, माता की भक्ति में ध्यान नहीं लगाती हो। तुम्हारे लिए अपना रूप-रंग और श्रृंगार ही महत्वपूर्ण है। इसीलिए मैं तुम्हारा विवाह ऐसी जगह करूंगा, जहां तुम्हारा यह रूप व्यर्थ हो जाएगा। मैं एक दरिद्र और कुष्ठ से पीड़ित व्यक्ति से तुम्हारा विवाह करवाऊंगा।

अपने पिता के ऐसे वचन सुनकर सुमति बहुत दुखी हुई। सुमति ने अपने पिता को समझाया कि ‘पिताजी में आपकी पुत्री हूँ, मुझे माँ भगवती पर सम्पूर्ण आस्था है। मेरे भाग्य में जो भी लिखा है, वह माता के आशीर्वाद से मुझे अवश्य मिलेगा। इस समय आप क्रोध में हैं। आप जिससे मेरा विवाह करवाना चाहेंगे, मैं उससे विवाह अवश्य करूंगी।

तब सुनाथ ने अपनी पुत्री का विवाह एक दरिद्र कुष्ठ रोगी से करवा दिया। सुमति अपने पिता के ऐसे कठोर व्यवहार से दुखी होकर अपने पति के साथ एक भयावह जंगल में चली गई। उस जंगल में नव दंपत्ति ने वह रात बहुत कष्ट में बिताई, और वे दोनों पूरी रात माँ भगवती का ध्यान करते रहें। माँ भगवती सुमति की इस श्रद्धा भक्ति से प्रसन्न होकर उन दोनों के समक्ष प्रकट हुईं। माँ भगवती ने कहा कि ‘पुत्री! मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ, मांगों तुम क्या वरदान मांगना चाहती हो। तब सुमति ने कहा कि, देवी आप कौन हैं और मुझे दर्शन देने का कारण बतलाये?

तब माता ने बताया कि ‘मैं जगतजननी हूँ। संसार के सभी प्राणी मेरी ही संतान हैं। मैं उनके दुखों को दूर करके उन्हें सुख प्रदान करती हूँ। यहां मैं तुम्हारे दुखों को हरने के लिए प्रकट हुई हूँ।

यह सुनकर सुमति ने उन्हें प्रणाम किया और अपने दुखों का कारण पूछा। तब माता ने उन्हें बताया कि ‘तुम और तुम्हारा पति पिछले जन्म में निषाद थे। एक बार तुम्हारे पति ने चोरी की थी, जिसके कारण उसे इस जन्म में कुष्ठ रोग की पीड़ा सहनी पड़ रही है। तुम्हारे पति के चोरी करने के कारण, तुम दोनों को उस समय कारावास में डाल दिया गया था। उस कारावास में ना तुम्हें जल दिया गया, ना ही भोजन। संयोगवश वह आश्विन नवरात्र की अवधि थी। और उन नौ दिनों तक बिना अन्न- जल के रहने के कारण तुम दोनों को ही नवरात्र व्रत का फल मिला है।

उस व्रत के फलस्वरूप तुम इस समय जो वर माँगना चाहो मांग सकती हो। सुमति ने कहा कि माता आप वर के रूप में मेरे पति को हर रोग और दोषों से मुक्त कर दीजिये।

माता ने तथास्तु कहा और सुमति के पति को एक रूपवान पुरुष में परिवर्तित कर दिया। तत्पश्चात माता ने सुमति से कहा कि नवरात्र में किये गए व्रत और मेरी भक्ति के प्रभाव से तुम्हें उद्दालक नामक एक सुन्दर-स्वस्थ और कीर्तिवान बालक प्राप्त होगा। ऐसा वर पाकर सुमति ने माता को प्रणाम किया और माँ भगवती उन दोनों को आशीर्वाद देकर वहां से अंतर्ध्यान हो गई।

कुछ समय बाद सुमति को एक बालक हुआ। इसमें बाद दोनों पति-पत्नी अपने पुत्र के साथ सभी धन- धान्य से युक्त होकर सुखी सम्पन्न जीवन जीने लगे और माता की नित्य आराधना के साथ हर नवरात्रि पर माता का व्रत पूर्ण नियमानुसार करने लगे।

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