माँ दुर्गा की उत्पत्ति की कथा (Story of Origin of Maa Durga)
वैसे तो देवताओं को सभी प्राणियों का रक्षक माना जाता है, वह अपनी दिव्य शक्तियों से सृष्टि का कल्याण करते हैं, लेकिन क्या आपके पता है कि एक समय ऐसा भी आया जब देवगणों पर भी भय का साया छा गया और वह स्वयं ‘त्राहिमाम-त्राहिमाम’ करने लगे। आखिरकार ऐसा क्या हुआ कि तीनों लोकों में संकट के बादल छा गए और देवता भी अपनी सुरक्षा के लिए किसी चमत्कार की प्रतीक्षा करने लगे? आज हम आपके लिए इन्ही प्रश्नों का उत्तर लेकर आए हैं।
**कथा ** इस कथा की शुरूआत, असुर सम्राट रंभ और एक भैंस के पुत्र महिषासुर के जन्म के साथ होती है। महिषासुर बेहद महत्वकांक्षी था और तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता था। अपनी इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए उसने कई वर्षों तक अपने आराध्य ब्रह्मा जी की तपस्या की।
आखिकार महिषासुर की साधना से ब्रह्म देव प्रसन्न हुए और उसे दर्शन देते हुए बोले-
“हे वत्स, मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ, बताओ तुम्हें क्या वरदान चाहिए”?
अपनी तपस्या को सफल होते देख, महिषासुर का अहंकार और भी बढ़ गया और उसने ब्रह्म देव से कहा-
“हे ब्रह्म देव! आप मुझे हमेशा के लिए अमर होने का आशीर्वाद दें।”
इस पर ब्रह्मा जी बोले, महिषासुर, जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु तो निश्चित् है, इस कारण मैं तुम्हें यह वरदान तो नहीं दे सकता। हे वत्स! तुम कोई और वरदान मांग लो।
इस बात को सुनकर महिषासुर ने कहा कि, “अगर आप मुझे हमेशा के लिए अमर होने का वरदान नहीं दे सकते तो फिर मुझे यह आशीष दें कि कोई भी देवता, गंधर्व, पुरूष या फिर जानवर मेरा वध नहीं कर पाएगा। ”
ब्रह्म देव ने अपने वचन अनुसार महिषासुर को यह वर दे दिया और अंतर्ध्यान हो गए।
महिषासुर कई प्रकार की शक्तियों से निपुण और भगवान ब्रह्मा जी के वरदान से उर्जित था। इस कारण उसे पराजित करना लगभग नामुमकिन हो गया। इसके अलावा वह कोई भी रूप धारण कर सकता था और उसकी सेना भी पूरी सृष्टि में सबसे ताकतवर थी। अपनी शक्ति के घमंड में चूर महिषासुर का अत्याचार धीरे-धीरे सभी सीमाओं को लांघने लगा।
अपने तीनों लोकों पर विजय पाने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए उसने सबसे पहले धरती पर सभी प्राणियों को प्रताड़ित करना शुरू किया। उसकी क्रूरता और नरसंहार से पूरी धरती कांप गई। धीरे-धीरे महिषासुर के अनाचारों का अंधकार स्वर्गलोक तक भी पहुंच गया और वहां उसने देवताओं पर भी आक्रमण कर दिया।
यह अंधकार इतना घना था कि सभी देवगण इसकी चपेट में आ गए और हर तरफ हाहाकार मच गया। परिस्थितियां इतनी गंभीर हो गईं कि स्वयं इंद्र देव भी महिषासुर को पराजित नहीं कर पाए और उन्हें इंद्र लोक से हाथ धोना पड़ा। हर ओर निराशा, लाचारी और शोक के बादल छा गए। ऐसे में देवताओं ने त्रिदेवों की शरण में जाने का फैसला किया। सभी को केवल किसी चमत्कार की प्रतीक्षा थी।
भगवान शिव, भगवान विष्णु और ब्रह्म देव के समक्ष सभी देवता हाथ जोड़कर खड़े हो गए और अपनी रक्षा की गुहार लगाने लगे। किंतु त्रिदेव भी ब्रह्म देव के वरदान के समक्ष असहाय महसूस कर रहे थे।
लेकिन यह समस्या इतनी गंभीर थी कि अगर इसका कोई समाधान नहीं निकाला जाता तो महिषासुर सभी देवताओं का अस्तित्व ही खत्म कर देता। ऐसे में काफी समय तक चिंतन करने के बाद त्रिदेवों को यह बात समझ आई कि महिषासुर का वध कोई देवी ही कर सकती हैं।
इसके लिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने एक-एक कर अपनी ऊर्जा को ब्रह्मांड में उत्सर्जित किया। इस ऊर्जा के मिलन से एक दिव्य आदिशक्ति की उत्पत्ति हुई, जिन्हें माँ दुर्गा के नाम से पूजा गया। इसके बाद सभी देवताओं ने आदिशक्ति को अपनी शक्तियां प्रदान कीं।
देवताओं को महिषासुर की अपार ताकत का ज्ञान था, इसलिए उससे युद्ध करने के लिए उन सभी ने मिलकर सुदर्शन चक्र, कमंडल, तीरों से भरा तरकश, कालदंड, वज्र, कुल्हाड़ी,तलवार और त्रिशूल जैसे कई शस्त्र प्रदान किए। इसके साथ ही माता को उनकी सवारी के रूप में एक सिंह भी दिया गया।
देवी दुर्गा के तेज के साथ देवताओं में भी आशा की किरण जागृत हो गई थी। देवी जी की उत्पत्ति के बाद वह महिषासुर का अंत कर धर्म की स्थापना करने के लिए निकल पड़ीं।
जब महिषासुर ने देवी जी को देखा तो गरिमा की सीमाओं को लांघते हुए देवी के सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया। इस पर देवी हँसते हुए बोलीं, महिषासुर मैं यहां तेरा वध कर संसार को तेरे अत्याचारों से मुक्ति दिलाने आई हूँ।
देवी जी की ललकार सुनकर महिषासुर बोला कि, “ तुम मुझे क्या पराजित करोगी, मुझे इस समस्त संसार में कोई पराजित नहीं कर सकता, मेरी शक्ति के आगे तुम तो कुछ भी नहीं हो। तुम मुझसे विवाह कर लो, तुम्हें सभी सुखों की प्राप्ति होगी।
इसपर देवी बोलीं कि, यह तू नहीं, तेरा काल बोल रहा है, तेरे पापों का घड़ा भर गया है और अब मैं तेरा अंत करूंगी। अगर साहस है तो मेरे साथ युद्ध कर।
महिषासुर देवी की ललकार सुनकर अत्यंत क्रोधित हुआ और उसने माता के साथ युद्ध करने की चुनौति स्वीकार कर ली।
इसके पश्चात् दोनों के बीच घमासान युद्ध प्रारंभ हो गया। इस युद्ध की गूंज से पूरा ब्रह्माण हिल गया, सभी देवता हाथ जोड़कर देवी के विजय होने की कामना करने लगे।
महिषासुर ने पहले एक-एक करके अपनी सेना के सबसे बलशाली असुरों को भेजना प्रारंभ किया, लेकिन उनमें से कोई भी कुछ क्षणों से अधिक माता के सामने जीवित नहीं रह पाए। देवी जी ने एक-एक कर सबका वध कर दिया। यह देखकर महिषासुर आश्चर्यचकित रह गया, क्योंकि वह इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता था कि एक स्त्री रणभूमि में इस प्रकार युद्ध कर सकती है।
इसके बाद उसके क्रोध की अग्नि और भी भड़क गई और उसने अपनी पूरी सेना को माँ से लड़ने के लिए भेज दिया। देवी जी ने अपनी भुजाओं में धारण किए विभिन्न अस्त्रों-शस्त्रों से उसकी पूरी सेना का वर्चस्व समाप्त कर दिया।
अंत में महिषासुर स्वयं युद्धभूमि में देवी जी से लड़ने आया और उसने उनपर प्रहार करना शुरू किया, देवी जी ने भी अपने शस्त्र चलाकर, महिषासुर के सभी शस्त्रों को खंडित कर दिया। इसके बाद उसने अपने रूप बदलने की शक्ति का प्रयोग किया और माता को भ्रमित करने की कोशिश की।
देवी जी के समक्ष उसकी यह ताकत भी किसी काम न आई और महिषासुर को भय की अनुभूति हुई। यह घमासान युद्ध 9 दिनों तक चलता रहा और महिषासुर की ताकत कमज़ोर पड़ती गई आखिरकार माता ने त्रिशूल से प्रहार कर इस भयानक असुर का संहार कर दिया। महिषासुर का अंत होते ही समस्त लोकों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। हर तरफ से देवताओं ने माता पर पुष्पों की वर्षा की, हर कोई माता की आराधना करने लगा और उनको हाथ जोड़कर प्रणाम करने लगा। इस तरह देवी जी ने महिषासुर के पापों से सृष्टि को मुक्ति दिलाई और धर्म की स्थापना की। तबसे माता को जगत कल्याणी के रूप में जाना जाने लगा और आज भी भक्तों की असीम श्रद्धा उनमें निहित है।