पौष पूर्णिमा व्रत कथा (Paush Purnima Vrat Katha)
द्वापर युग में एक बार यशोदा मैया ने श्री कृष्ण से कहा कि तुम तो पूरे संसार के पालनकर्ता हो, आज तुम मुझे कोई ऐसा व्रत बताओ जिसे करने से किसी भी स्त्री को विधवा होने का भय न रहे तथा इससे मनुष्यों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हों।
श्री कृष्ण बोलते हैं कि माता आपने बहुत ही सुंदर प्रश्न पूछा है, मैं आपको इसके बारे में विस्तार पूर्वक बताता हूँ। सौभाग्य प्राप्ति के लिए महिलाओं को 32 पूर्णमासियों के व्रत को करना चाहिए, इससे उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और उन्हें सौभाग्यवती होने का आशीष मिलता है। अब मैं आपको इससे जुड़ी हुई कथा सुनाता हूँ-
इस भूमण्डल पर एक अत्यन्त प्रसिद्ध राजा चन्द्रहास से पालित अनेक प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण' कातिका' नाम की एक नगरी थी। वहां पर धनेश्वर नाम का एक ब्राह्मण था और उसकी स्त्री अति सुशीला रूपवती थी। दोनों ही उस नगरी में बड़े प्रेम के साथ रहते थे। घर में धन-धान्य आदि की कमी नहीं थी। लेकिन उनको एक बड़ा दुख था कि उनकी कोई सन्तान नहीं थी, इस कष्ट से वह अत्यन्त दुखी रहते थे।
एक दिन एक बड़ा तपस्वी योगी उस नगरी में आया। वह योगी उस ब्राह्मण के घर को छोड़कर अन्य सब घरों से भिक्षा लाकर भोजन किया करता था। लेकिन रूपवती से वह भिक्षा नहीं लिया करता था। एक समय वह किसी अन्य घर से भिक्षा लेकर गंगा किनारे जाकर, भिक्षान्न को प्रेमपूर्वक खा रहा था, तभी धनेश्वर ने योगी को देखा और अपनी भिक्षा के अनादर से दुखी होकर योगी से बोला- महात्मन्! आप सब घरों से भिक्षा लेते हैं परन्तु मेरे घर की भिक्षा कभी भी नहीं लेते, इसका कारण क्या है? योगी ने कहा कि निःसन्तान के घर की भीख पतितों के अन्न के तुल्य होती है, और जो पतितों का अन्न खाता है वह भी पतित हो जाता है। चूंकि तुम निःसन्तान हो, अतः पतित हो जाने के भय से मैं तुम्हारे घर की भिक्षा नहीं लेता हूँ।
धनेश्वर यह बात सुनकर अपने मन में बहुत दुखी हुआ और हाथ जोड़कर योगी के पैरों पर गिर पड़ा तथा आर्तभाव से कहने लगा - हे महाराज! यदि ऐसा है तो आप मुझको पुत्र प्राप्ति का उपाय बताइये। आप सर्वज्ञ हैं, मुझ पर अवश्य ही यह कृपा कीजिए। धन की मेरे घर में कोई कमी नहीं, परन्तु मैं पुत्र न होने के कारण अत्यन्त दुखी हूँ। आप मेरे इस दुख का हरण करें, आप सामर्थ्यवान हैं।
यह सुनकर योगी कहने लगे- हे ब्राह्मण! तुम चण्डी देवी की आराधना करो। घर आकर उसने अपने स्त्री से सब वृत्तान्त कहा और स्वयं तप के निमित्त वन में चला गया। वन में जाकर उसने चण्डी देवी की उपासना की और उपवास किया। चण्डी देवी ने सोलहवें दिन उसको स्वप्न में दर्शन दिया और कहा “हे धनेश्वर! तुझे पुत्र होगा, परन्तु वह सोलह वर्ष की आयु में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। यदि तुम दोनों पति-पत्नी बत्तीस पूर्णमासियों का व्रत विधिपूर्वक करोगे तो वह दीर्घायु होगा। जितनी तुम्हारी सामर्थ्य हो उतने आटे के दीये बनाकर शिवजी का पूजन करना, और पूर्णमासी का व्रत रखना। प्रातःकाल होने पर इस स्थान के समीप ही तुम्हें एक आम का वृक्ष दिखाई देगा, उस पर चढ़कर एक फल तोड़कर शीघ्र अपने घर चले जाना और अपनी स्त्री से सब वृत्तान्त कहना। जब वह श्रीशंकर जी का ध्यान करके उस फल को खा लेगी, तब भगवान शंकर की कृपा से वह गर्भवती हो जाएगी।”
जब वह ब्राह्मण प्रातःकाल उठा तो उसने उस स्थान के पास ही एक आम का वृक्ष देखा जिस पर एक आम का फल लगा हुआ था। उस ब्राह्मण ने उस आम के वृक्ष पर चढ़कर उस फल को तोड़ने का प्रयत्न किया, परन्तु कई बार प्रयत्न करने पर भी वह वृक्ष पर न चढ़ पाया। तब उस ब्राह्मण को बहुत चिन्ता हुई और वह विघ्न विनाशक श्रीगणेशजी की वन्दना करने लगा और बोला- “हे दयानिधे! अपने भक्तों के विघ्नों का नाश करके उनके मंगल कार्य को करने वाले, दुष्टों का नाश करने वाले, ऋद्धि-सिद्धि को देने वाले, आप मुझ पर कृपा करके इतना बल दें कि मैं अपने मनोरथ को पूर्ण कर सकूं।”
इस प्रकार गणेशजी की प्रार्थना करने पर उनकी कृपा से धनेश्वर वृक्ष पर चढ़ गया और उसने एक अति सुन्दर आम का फल देखा। उसने विचार किया कि जो वरदान से फल मिला था वह यह है, और कोई फल दिखाई नहीं देता, उस धनेश्वर ब्राह्मण ने जल्दी से उस फल को तोड़कर अपनी स्त्री को लाकर दिया और उसकी स्त्री ने अपने पति के कथनानुसार उस फल को खा लिया। इसके पश्चात् वह गर्भवती हो गई।
देवी जी की असीम कृपा से उसे एक अत्यन्त सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुई, जिसका नाम उन्होंने देवीदास रखा। माता-पिता के हर्ष और शोक के साथ वह बालक शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भांति बढ़ने लगा।
भवानी की कृपा से वह बालक बहुत ही सुन्दर, सुशील और पढ़ने में बहुत ही निपुण हो गया। चण्डी देवी की आज्ञानुसार उसके माता-पिता ने बत्तीस पूर्णमासी का व्रत रखना प्रारम्भ कर दिया था, जिससे उसका पुत्र दीर्घायु हो जाए। सोलहवां वर्ष लगते ही देवीदास के माता-पिता को बड़ी चिन्ता हो गई कि कहीं उनके पुत्र की इस वर्ष मृत्यु न हो जाए, इसलिए उन्होंने अपने मन में विचार किया कि यदि यह दुर्घटना उनके सामने हो गई तो वे कैसे सहन कर सकेंगे?
उन्होंने देवीदास के मामा को बुलाया और कहा कि हमारी इच्छा है कि देवीदास एक वर्ष तक काशी में जाकर विद्याध्ययन करे और हम उसको अकेला भी नहीं छोड़ना चाहते, इसलिए साथ में तुम चले जाओ और एक वर्ष के पश्चात् इसको वापस लौटा लाना। सब प्रबन्ध करके उसके माता-पिता ने काशी जाने के लिए देवीदास को एक घोड़े पर बैठाकर उसके मामा को उसके साथ विदा कर दिया।
धनेश्वर ने अपनी पत्नी के साथ अपने पुत्र की मंगलकामना तथा दीर्घायु के लिए भगवती दुर्गा की आराधना और पूर्णमासियों का व्रत करना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार उन्होंने बत्तीस पूर्णमासी का व्रत पूरा किया।
कुछ समय पश्चात् एक दिन वह दोनों मामा और भांजा मार्ग में रात्रि बिताने के लिए किसी ग्राम में ठहरे हुए थे, उस दिन उस गांव में एक ब्राह्मण की अत्यन्त सुन्दरी, सुशीला, विदुषी और गुणवती कन्या का विवाह होने वाला था।
जिस धर्मशाला के अन्दर वर और उसकी बारात ठहरी हुई थी, उसी धर्मशाला में देवीदास और उसके मामा भी ठहरे हुए थे। संयोगवश कन्या को तेल आदि चढ़ाकर मण्डप आदि का कृत्य किया जा रहा था, लेकिन लग्न के समय वर को धनुर्वात (एक वायुरोग जिसमें शरीर धनुष की तरह झुककर टेढ़ा हो जाता है) हो गया। इस कारण वर के पिता ने अपने कुटुम्बियों से परामर्श करके निश्चय किया कि यह देवीदास मेरे पुत्र जैसा ही सुन्दर है, मैं इसके साथ ही लग्न करा देता हूँ और बाद में विवाह के अन्य कार्य मेरे लड़के के साथ हो जाएंगे।
ऐसा सोचकर उन्होंने देवीदास के मामा से जाकर बोला कि तुम थोड़ी देर के लिए अपने भांजे को हमें दे दो, जिससे विवाह के लग्न के सारे कृत्य सुचारु रूप से हो सके। तब उसका मामा कहने लगा कि जो कुछ भी कन्यादान के समय वर को मिले वह सब हमें दे दिया जाए, तो मेरा भांजा इस बारात का दूल्हा बन जाएगा।
यह बात वर के पिता ने स्वीकार कर ली और उसने अपने भांजे को वर बनने के लिए भेज दिया और उसके साथ सब विवाह कार्य रात्रि में विधिपूर्वक सम्पन्न हो गया। पत्नी के साथ वह भोजन न कर सका और अपने मन में सोचने लगा कि न जाने यह कैसी स्त्री होगी। वह एकान्त में इसी सोच में पड़ गया तथा उसकी आंखों में आंसू आ गए, तब वधू ने पूछा कि क्या बात है? आप इतने उदासीन व दुखी क्यों हो रहे हैं? तब उसने सब बातें जो वर के पिता व उसके मामा में हुई थीं उसको बतला दी। तब कन्या कहने लगी कि यह ब्रह्म विवाह के विपरीत कैसे हो सकता है। देव, ब्राह्मण और अग्नि के सामने मैंने आपको ही अपना पति बनाया है इसलिए आप ही मेरे पति हैं, मैं आपकी ही पत्नी रहूंगी, किसी अन्य की कदापि नहीं।
तब देवीदास ने कहा- ऐसा मत करिए क्योंकि मेरी आयु बहुत कम है, मेरे पश्चात् आपकी क्या गति होगी इन बातों को अच्छी तरह विचार लो। परन्तु वह दृढ़ विचार वाली स्त्री थी, बोली कि जो आपकी गति होगी वही मेरी गति होगी। हे स्वामी! आप उठिये और भोजन करिए, आप निश्चय ही भूखे होंगे।
इसके बाद देवीदास और उसकी पत्नी दोनों ने भोजन किया तथा शेष रात्रि वे सोते रहे। प्रातःकाल देवीदास ने अपनी पत्नी को तीन नगों से जड़ी हुई एक अंगूठी दी, एक रूमाल दिया और बोला - हे प्रिये! इसे लो और संकेत समझकर स्थिर चित्त हो जाओ। मेरा मरण और जीवन जानने के लिए एक पुष्पवाटिका बना लो। उसमें सुगन्धि वाली एक नव-मल्लिका लगा लो, उसको प्रतिदिन जल से सींचा करो और आनन्द के साथ खेलो-कूदो तथा उत्सव मनाओ, जिस समय और जिस दिन मेरा प्राणान्त होगा, ये फूल सूख जाएंगे और जब ये फिर हरे हो जाएं तो जान लेना कि मैं जीवित हूँ। यह समझा कर वह चला गया।
प्रातःकाल होते ही वहां पर गाजे-बाजे बजने लगे और जिस समय विवाह के कार्य समाप्त करने के लिए वर तथा सब बाराती मण्डप में आए तो कन्या ने वर को भली प्रकार से देखकर अपने पिता से कहा कि यह मेरा पति नहीं हैं। मेरा पति वही है, जिसके साथ सत्र में मेरा पाणिग्रहण हुआ था। इसके साथ मेरा विवाह नहीं हुआ है। यदि यह वही है तो बताए कि मैंने इसको क्या दिया, मधुपर्क और कन्यादान के समय जो मैंने भूषणादि दिए थे उन्हें दिखाए तथा रात में मैंने क्या गुप्त बातें कही थीं, वह सब सुनाए।
पिता ने उसके कथनानुसार वर को बुलवाया गया। कन्या की यह सब बातें सुनकर वह कहने लगा कि मैं कुछ नहीं जानता। इसके पश्चात् लज्जित होकर वह वहां से चला गया और सारी बारात भी अपमानित होकर वहां से लौट गई।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले हे माता! इस प्रकार देवीदास - काशी विद्याध्ययन के लिए चला गया। जब कुछ समय बीत गया तो काल से प्रेरित होकर एक सर्प रात्रि के समय उसको डसने के लिए वहां पर आया। उस विषधर के प्रभाव से उसके शयन का स्थान चारों ओर से विष से विषैला हो गया परंतु व्रत के प्रभाव से उसको काट न पाया क्योंकि पहले ही उसकी माता ने बत्तीस पूर्णिमा का व्रत कर रखा था।
इसके बाद मध्याह्न के समय स्वयं काल वहां पर आया और उसके शरीर से उसके प्राणों को निकालने का प्रयत्न करने लगा जिससे वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। भगवान की कृपा से उसी समय पार्वती जी के साथ भगवान शंकर वहां पर आ गए।
उसको मूर्च्छित दशा में देखकर पार्वती जी ने भगवान शंकर से प्रार्थना की कि “हे प्रभु, इस बालक की माता ने पहले बत्तीस पूर्णिमा का व्रत किया था, जिसके प्रभाव से हे भगवन! आप इसको प्राण दान दें। भवानी के कहने पर भक्त-वत्सल भगवान शिव ने उसको प्राण दान दे दिया।”
इस व्रत के प्रभाव से काल को भी पीछे हटना पड़ा और देवीदास स्वस्थ होकर बैठ गया। उधर उसकी स्त्री उसके काल की प्रतीक्षा किया करती थी, जब उसने देखा कि उस पुष्प वाटिका में पत्र-पुष्प कुछ भी नहीं रहे तो उसको अत्यन्त आश्चर्य हुआ और जब वह वैसे ही हरी-भरी हो गई तो वह जान गई कि वह जीवित हो गये हैं। यह देखकर वह बहुत प्रसन्न मन से अपने पिता के कहने लगी कि पिता जी, मेरे पति जीवित हैं, आप उनको ढूंढना शुरु करें।
जब सोलहवां वर्ष व्यतीत हो गया तो देवीदास भी अपने मामा के साथ काशी से चल दिया। इधर उसके ससुर उसे ढूढ़ने के लिए अपने घर से जाने वाले ही थे कि वह दोनों मामा-भान्जा वहां पर आ गये, देवीदास को आता देखकर उसका ससुर बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने घर में ले आया।
उस समय नगर के निवासी भी वहां इकट्ठे हो गए और सबने निश्चय किया कि अवश्य ही इसी बालक के साथ इस कन्या का विवाह हुआ था। उस बालक को जब कन्या ने देखा तो पहचान लिया और कहा कि यह तो वही है, जो संकेत करके गया था। तदुपरान्त सभी कहने लगे कि भला हुआ जो यह आ गया और सब नगरवासियों ने आनन्द मनाया।
श्रीकृष्ण जी कहने लगे कि इस प्रकार धनेश्वर बत्तीस पूर्णिमाओं के व्रत के प्रभाव से पुत्रवान हो गया। जो भी स्त्रियां इस व्रत को करती हैं, वे जन्म-जन्मान्तर में वैधव्य का दुख नहीं भोगतीं और सदैव सौभाग्यवती रहती हैं, यह मेरा वचन है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। यह व्रत पुत्र-पौत्रों को देने वाला तथा सम्पूर्ण मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है। बत्तीस पूर्णिमाओं के व्रत करने से व्रती की सब इच्छाएं भगवान शिवजी पूर्ण करते हैं।