चैतन्य महाप्रभु जयंती 2025 – भक्ति आंदोलन के महान संत की जयंती पर जानें उनके जीवन की प्रेरणादायक कथा और हरि नाम संकीर्तन का महत्व!
चैतन्य महाप्रभु जयंती भगवान चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिवस पर मनाई जाती है, जो श्रीकृष्ण के अवतार माने जाते हैं। यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति आंदोलन को बढ़ावा दिया और हरिनाम संकीर्तन के माध्यम से भगवान कृष्ण की भक्ति का प्रचार किया।
भक्तिकाल के प्रमुख संतों में से एक चैतन्य महाप्रभु ने सिर्फ़ देश ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व को कृष्ण भक्ति के रस में सराबोर किया। यह अठारह शब्दीय कीर्तन महामंत्र चैतन्य महाप्रभु द्वारा ही दिया गया था, जिसे 'तारकब्रह्ममहामंत्र' कहा गया। चैतन्य महाप्रभु को उनके अनुयायी श्री कृष्ण भगवान का अवतार मानते हैं।
चलिए इस लेख में जानते हैं
चैतन्य महाप्रभु का जन्म फाल्गुन मास शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को हुआ था। तिथि के अनुसार 18 फ़रवरी सन् 1486 को उनका जन्मदिन बताया जाता है। उनका जन्मस्थान पश्चिम बंगाल का 'नवद्वीप या नादिया' गांव था, जिसे अब 'मायापुर' के नाम से जाना जाता है। इनके पिता का नाम जगन्नाथ था एवं माता का नाम शचि देवी था।
बाल्यकाल में चैतन्य प्रभु का नाम विश्वंभर था, किंतु घर और आस-पड़ोस के लोग इन्हें 'निमाई' कहते थे। निमाई बाल्यावस्था से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। वो अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक प्रवृत्ति के थे। गौरवर्ण होने के कारण उन्हें गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर आदि भी कहा जाता था। चैतन्य महाप्रभु ने ही गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की आधारशिला रखी। कुछ जानकार बताते हैं कि माधवेंद्र पुरी इनके गुरु थे। जबकि कवि कर्णपुर कृत 'चैतन्य चंद्रोदय' के अनुसार निमाई ने केशव भारती नामक संन्यासी से शिक्षा ली, जिसके पश्चात् उनका नाम 'कृष्ण चैतन्य देव' हो गया। और बाद में वो 'चैतन्य महाप्रभु' के नाम से प्रसिद्ध हुए।
चैतन्य महाप्रभु का विवाह लक्ष्मी देवी नाम की कन्या के साथ हुआ। उस समय उनकी आयु मात्र 15-16 वर्ष की थी। दुर्भाग्यवश विवाह के कुछ वर्ष के पश्चात् ही सर्पदंश से पत्नी की मृत्यु हो गई, जिसके उपरांत वंश चलाने की विवशता को देखते हुए इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ कराया गया।
जब निमाई किशोरावस्था में थे, तभी इनके पिता की मृत्यु हो गई। सन् 1501 में चैतन्य महाप्रभु अपने पिता का श्राद्ध करने के लिए गया गए, जहां उनकी मुलाकात ईश्वरपुरी नाम के संत से हुई। उन्होंने चैतन्य को कृष्ण-कृष्ण रटने का उपदेश दिया। इसके पश्चात् 24 वर्ष की उम्र में उन्होंने गृहस्थ आश्रम का त्याग कर दिया और पूरी तन्मयता से कृष्ण भक्ति में लीन रहने लगे।
श्री कृष्ण के प्रति इनकी गहरी निष्ठा एवं अपार भक्ति देखकर इनके असंख्य अनुयायी हो गए। नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे, जिन्होंने उनके भक्ति आंदोलन को जनमानस तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चैतन्य अपने इन दोनों शिष्यों के संग ढोल, मृदंग आदि वाद्य यंत्र बजाते हुए नाच-गाकर हरिनाम संकीर्तन करने लगे।
चैतन्य महाप्रभु की जीवनलीला समाप्त होने को लेकर आज तक कोई सटीक जानकारी नहीं मिल सकी है। इसको लेकर लोगों में मतभेद देखने को मिलते हैं। इतिहासकारों का मानना है कि चैतन्य महाप्रभु की मृत्यु 48 वर्ष की आयु में 1534 ई. में उड़ीसा के पुरी शहर में हुई। मृत्यु का कारण मिर्गी का दौरा पड़ना बताया जाता है। कुछ जानकार बताते हैं कि उनकी हत्या कर दी गई थी। वहीं, कुछ लोगों का मानना है कि चैतन्य महाप्रभु रहस्यमई तरीके से इस दुनिया से अदृश्य हो गए थे।
आशा है कि इस लेख से आपको चैतन्य महाप्रभु जयंती की संपूर्ण जानकारी मिल गई होगी। ऐसी ही उपयोगी और धार्मिक जानकारियों के लिए जुड़े रहिए श्री मंदिर पर।
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