गुरु गोबिन्द सिंह जयंती 2025: जानें सिख धर्म के दसवें गुरु के जीवन, शिक्षाओं और उनके बलिदान की प्रेरक गाथा।
गुरु गोबिंद सिंह जी की जयंती सिख धर्म के दसवें गुरु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। उनका जन्म 1666 में पटना साहिब में हुआ था। इस दिन अरदास, कीर्तन, और लंगर का आयोजन होता है। गुरुजी की शिक्षाएं साहस, त्याग, और धार्मिक सहिष्णुता का संदेश देती हैं।
गुरु गोबिन्द सिंह सिख समुदाय के दसवें गुरु थे। उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की, जो सिख समुदाय के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण दिन माना जाता है।
ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर 1666 को बिहार राज्य के पटना जिले में हुआ था। विक्रम संवत के अनुसार यह पौष माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि थी। माता गुजरी और गुरु तेग बहादुर जी अपने घर एक तेजस्वी पुत्र के जन्म से बहुत खुश थे और उन्होंने अपने पुत्र का नाम गोबिंद राय रखा था।
सन 1670 तक वे पटना में रहें। यहां जिस घर में उनका जन्म हुआ था, वहां उन्होंने अपने बाल्यकाल के प्रथम चार वर्ष बिताये और उसके बाद गुरु गोबिंद जी अपने परिवार के साथ पंजाब में आ गए।
मार्च 1672 में गुरु गोबिंद जी का परिवार हिमालय के शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक्क नानकी नामक स्थान पर रहने चला गया, इसी स्थान पर इनकी शिक्षा प्रारम्भ हुई। यहां उन्होंने फारसी, बृज और संस्कृत भाषा सहित और सैन्य कौशल में भी पारंगत प्राप्त की।
11 नवम्बर 1675 के दिन औरंगज़ेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में सार्वजनिक रूप से उनके पिता गुरु तेग बहादुर का सिर कटवा दिया।
29 मार्च 1676 को वैशाखी के दिन गोविन्द सिंह सिखों के दसवें गुरु घोषित हुए।
सन 1684 में उन्होंने चण्डी दी वार की रचना की।
अप्रैल 1685 में सिरमौर के राजा मत प्रकाश के निमंत्रण पर गुरू गोबिंद सिंह सिरमौर राज्य के पांवटा शहर में रहने चले गए।
सन 1687 में नादौन की लड़ाई में, गुरु गोबिंद सिंह और उनके मित्रों ने मिलकर अलिफ़ खान की सेना को हरा दिया।
नवंबर 1688 में भंगानी के युद्ध के कुछ दिन बाद गुरु गोबिंद सिंह रानी चंपा के अनुरोध पर वापस आनंदपुर साहिब आ गये।
सन 1695 में, एक मुग़ल राजा दिलावर खान ने अपने बेटे हुसैन खान को आनंदपुर साहिब पर हमला करने के लिए भेजा, इस युद्ध में गुरु गोबिंद सिंह ने पुनः विजय प्राप्त की और हुसैन खान को मार गिराया।
सन 1699 में बैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की और सिख धर्म की विधिवत् दीक्षा प्राप्त की।
7 दिसम्बर 1704 को गुरु गोबिंद सिंह के दोनों बेटे जोरावर सिंह व फतेह सिंहजी को दीवारों में चुनवा दिया गया। इसके बाद गुरु गोबिंद सिंह जी ने औरंगजेब को एक चेतावनी के रूप में जफरनामा लिखा।
8 मई सन् 1705 में 'मुक्तसर' नामक स्थान पर गुरु गोबिंद सिंह और मुगलों के बीच एक भयानक युद्ध हुआ, जिसमें गुरु गोबिंद जी की जीत हुई।
अक्टूबर सन् 1706 में गुरुजी दक्षिण भारत में भ्रमण पर गए जहाँ उनको औरंगजेब की मृत्यु की बात पता चली।
21 जून 1677 को 10 साल की उम्र में उनका विवाह माता जीतो से किया गया। उन दोनों के 3 पुत्र हुए - जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह।
4 अप्रैल 1684 को 17 वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह माता सुन्दरी के साथ हुआ। उनका एक बेटा हुआ - अजित सिंह।
15 अप्रैल 1700 को 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से विवाह किया। इनसे गुरु गोबिंद सिंह की कोई संतान नहीं थी।
गुरु गोबिन्द सिंह ने पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब को सम्पूर्ण करके और सिख समुदाय में प्रचलित किया।
गुरु गोबिंद सिंह बचपन से ही एक महान योद्धा, चिन्तक, कवि, और आध्यात्मिकता में रूचि लेने वाले बालक थे।
बचित्तर (बिचित्र) नाटक उनकी आत्मकथा है। यह उनके जीवन के बारे में काफी जानकारियां हमें प्रदान करता है। यह नाटक दशम ग्रन्थ का एक भाग है।
उन्होंने अन्याय, अत्याचार और पापों को खत्म करने के लिए और गरीबों की रक्षा के लिए मुगलों के साथ 14 युद्ध लड़े।
उन्होंने धर्म के लिए अपने समस्त परिवार का बलिदान दे दिया, जिसके लिए उन्हें 'सरबंसदानी' अर्थात पूरे वंश का दान करने वाला भी कहा जाता है।
गुरु गोबिंद सिंह के अनुयायी उन्हें कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले, आदि कई नामों से भी जानते हैं।
गुरु गोविन्द सिंह ने स्वयं कई ग्रन्थों की रचना की। उनके दरबार में 52 कवि तथा लेखक उपस्थित रहते थे, इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के संरक्षक भी थे।
उन्होंने खालसा के पांच ककारों का महत्व समझाया - जो थे केश, कंघा, कड़ा, किरपाण, कच्छेरा।
भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन।
अर्थ : मनुष्य को किसी को डराना नहीं चाहिए और किसी से डरना भी नहीं चाहिए।
औरंगजेब की मृत्यु के बाद गुरु गोबिंद सिंह जी ने उनके पुत्र बहादुरशाह को बादशाह बनने में मदद की। इस समय गुरुजी व बहादुरशाह के संबंध अत्यंत मधुर थे। जिसे देखकर नवाब वजीत खाँ घबरा गया। 7 अक्टूबर 1708 को उसने धोखे से गुरु गोबिन्द सिंह जी की नांदेड साहिब में हत्या करवा दी।
गुरु गोबिंद सिंह जी की मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने खालसा धर्म का प्रवर्तन जारी रखा और उनके बताए गए मार्ग पर चलते रहें।
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