महर्षि दयानन्द सरस्वती की जयंती पर उनके ज्ञान से जीवन में दिशा पाएं। सत्य और धर्म के रास्ते पर चलकर समाज में बदलाव लाएं
दयानन्द सरस्वती जयंती महान समाज सुधारक और आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की जयंती के रूप में मनाई जाती है। यह पर्व फाल्गुन कृष्ण दशमी को पड़ता है। स्वामी दयानंद ने वेदों के प्रचार-प्रसार के साथ समाज में व्याप्त अंधविश्वास, जातिवाद और कुरीतियों के खिलाफ आंदोलन चलाया। उनका नारा "वेदों की ओर लौटो" बहुत प्रसिद्ध हुआ।
भारत साधु-संतों की पावन भूमि है। तमाम कालखण्डों में यहां अनेक ऐसी विभूतियों का उदय होता रहा है, जो पतन की ओर बढ़ते देश व समाज को बुराई के गर्त से उबारकर सुमार्ग की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करते रहे हैं, उन्हीं में से एक महामानव हुए हैं- स्वामी दयानंद सरस्वती।
स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी सन् 1824 में वर्तमान गुजरात के टंकारा प्रांत में हुआ था। उस समय फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि थी। इसलिए यदि तिथि के अनुसार देखें, तो इस साल उनकी जयंती बुधवार, 23 फरवरी 2025, रविवार को पड़ रही है।
रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में जन्मे स्वामी दयानंद सरस्वती की माता का नाम यशोदाबाई और पिता का नाम अंबाशंकर बताया जाता है। हालांकि उनके माता-पिता के नाम को लेकर पूर्ण प्रमाणिकता नहीं है। मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण उनका नाम मूल शंकर तिवारी रखा गया। मूलशंकर ने 1845 में मोह-माया छोड़कर घर त्याग दिया और गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया। यूं तो उन्होंने कई गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की, लेकिन 'स्वामी परमानंद' से दीक्षा लेने के बाद इनको दयानंद सरस्वती की उपाधि मिली।
सत्य की खोज में निकले दयानंद सरस्वती ने 1860 में वैदिक धर्म के प्रख्यात विद्वान 'स्वामी विरजानंद' को अपना गुरु बनाया। गुरु विरजानंद ने दयानंद से कहा था- मैं चाहता हूं कि तुम पूरे संसार में ज्ञान का अलख जगाओ।
गुरु विरजानंद से दीक्षा लेने के पश्चात् दयानंद सरस्वती ने वैदिक शास्त्रों का प्रचार शुरू किया। उनका मानना था- स्वार्थी और अज्ञानी पुरोहितों ने पुराण जैसे ग्रंथों के सहारे हिंदू धर्म को भ्रष्ट कर दिया है। वो इस बात में विश्वास रखते थे कि कोई भी व्यक्ति सत्कर्म, ब्रह्मचर्य और ईश्वर की आराधना करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
19वीं सदी में भारत में पाखंड और मूर्तिपूजा का अतिशः बोलबाला था। महर्षि दयानंद सरस्वती ने झूठे धर्मों का खंडन करने की ठान ली। उन्होंने 1863 में हरिद्वार जाकर पाखंड खंडिनी पताका लहराई, और मूर्ति पूजा, बहुदेवाद, बलिप्रथा, आडंबर, अंधविश्वास आदि का कड़ा विरोध किया। उनका कहना था कि- अगर सिर मुंडवाने, गंगा नहाने और शरीर में भभूत मलने से स्वर्ग की प्राप्ति होती, तो मछली, भेड़ और गधे का स्वर्ग पर पहला अधिकार होता।
इस दौरान उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण करते हुए तात्कालिक समाज में व्याप्त कुरीतियों का भी खुलकर विरोध किया। जहां उन्होंने लोगों को बाल विवाह और सती प्रथा रोकने के लिए जागरूक किया, वहीं विधवा पुनर्विवाह और नारी शिक्षा को बढ़ावा देने पर भी ज़ोर दिया। इतना ही नहीं, स्वामी दयानंद सरस्वती ने अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहित किया और संप्रदाय तथा वर्ण के आधार पर हो रहे भेदभाव को रोकने का प्रयास किया। वो समाज में समानता के समर्थक थे।
स्वामी दयानंद जी ने सभी धर्मो के मूल ग्रन्थों का अध्ययन किया एवं उनमें व्याप्त बुराइयों का खुलकर विरोध किया। चाहे ईसाई धर्म में हो, मुस्लिम धर्म में हो या फिर स्वयं के सनातन धर्म में ही क्यों ना हो, इन्हें जहां भी, जो भी अनुचित लगा उसके खिलाफ़ आवाज़ बुलंद की। मूर्ति पूजा के विरोधी स्वामीजी एकेश्वरवाद में विश्वास रखते थे। उन्हीने वेदों में उपलब्ध ज्ञान को ही सबसे प्रामाणिक माना। वेदों की महत्ता को देखते हुए उन्होंने ‘वेदों की ओर लौटो' का नारा दिया।
स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने सुधारवादी और प्रगतिशील समाज की स्थापना के क्रम में सन् 1875 में बंबई में 'आर्य समाज' की स्थापना की। अभिवादन के लिए प्रचलित शब्द 'नमस्ते' आर्य समाज की ही देन है। उन्होंने अपने विचारों का प्रचार करने के लिए पाखंड खंडन, अद्वैतमत का खंडन, वेद भाष्य भूमिका, व सत्यार्थ प्रकाश आदि पुस्तकों की रचना की। इसमें 'सत्यार्थ प्रकाश' सबसे अधिक लोकप्रिय हुआ।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने अग्रणी भूमिका निभाते हुए इस बात पर बल दिया कि “विदेशी शासन किसी भी रूप में स्वीकार करने योग्य नहीं होता।” भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सबसे महत्वपूर्ण शब्द ‘स्वराज’ की अलख जगाने का श्रेय स्वामीजी को ही जाता है। इसी उद्घोष को बाल गंगाधर तिलक ने आगे बढ़ाते हुए “स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है” का नारा दिया।
रूढ़िवादियों ने स्वामी दयानंद जी के उग्र विचारों के चलते उनका प्रबल विरोध किया, उन्हें विष देने का प्रयास किया गया, डुबाने की कोशिश की गई, परंतु वो पाखंड के विरोध और वेदों के प्रचार में निरंतर लगे रहे।
स्वामी जी की मृत्यु को लेकर अलग- अलग कारण सामने आते रहे हैं। माना जाता है कि 1857 के विद्रोह में स्वामी दयानंद के विचारों ने प्रेरणा स्रोत के रूप में काम किया। इस कारण अंग्रेज़ सरकार इनपर भड़क उठी, और बाद में एक साज़िश के तहत स्वामी जी को ज़हर देकर उनकी हत्या कर दी गई।
कुछ जानकार ये भी कहते हैं कि जोधपुर की एक वेश्या थी, जिसे स्वामी दयानंद जी के विचारों से प्रभावित होकर एक राजा ने त्याग दिया था। बस इसी बात का बदला लेने के लिए उस वेश्या ने स्वामी जी के रसोइये के साथ मिलकर साज़िश रची, और उन्हें दूध में विष मिलाकर पिला दिया। इसी षड्यंत्र के कारण 30 अक्टूबर 1883 को स्वामी दयानंद सरस्वती इस संसार से तो विदा हो गए, परंतु उनके विचारों से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को अंग्रेज़ों से 'स्वराज का अधिकार' छीनने का बल मिला। उनके प्रेरणादायक विचार आज भी भारतीय समाज का मार्गदर्शन कर रहे हैं।
आशा है कि इस लेख से आपको स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती की संपूर्ण जानकारी मिल गई होगी। ऐसी ही उपयोगी और धार्मिक जानकारियों के लिए जुड़े रहिए श्री मंदिर पर।
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