ऋषि पंचमी की व्रत कथा

ऋषि पंचमी की व्रत कथा

पढ़ें कथा और पाएं सप्त ऋषियों का आशीर्वाद


विदर्भ देश में उत्तक नाम के एक सदाचारी ब्राह्मण निवास किया करते थे । उनकी पतिव्रता नारी सुशीला से एक पुत्री और एक पुत्र का जन्म हुआ था । पुत्र सुविभूषण ने वेदों का सांगोपांग अध्ययन किया । कन्या का समयानुसार एक सामान्य कुल में विवाह कर दिया गया, पर विधि के विधान से वह कन्या विधवा हो गई, तो वह अपने सतीत्व की रक्षा पिता के घर रह करके करने लगी ।

एक दिवस कन्या माता-पिता की सेवा करके एक शिलाखण्ड पर शयन कर रही थी तो, रात भर में उसके सारे शरीर में कीड़े पड़ गए, सुबह जब कुछ शिष्यों ने उस कन्या को अचानक इस हालत में देख उसकी माता सुशीला को निवेदन किया कि माता गुरु पुत्री के दुःख को देखिये । गुरु पत्नी ने जाकर पुत्री को देखा और अपनी पुत्री की अचानक यह दशा देख के नाना प्रकार से विलाप करने लगी और पुत्री को उठाकर ब्राह्मण के पास लाई । ब्राह्मण भी पुत्री की दशा देखकर अति विस्मय को प्राप्त हुए और देखी हुए, तब ब्राह्मणी ने हाथ जोड़कर कहा- महाराज! यह क्या कारण है कि इस पुत्री के सारे शरीर में कीड़े पड़ गए ?

तब ब्राह्मण ने ध्यान धरके देखा तो पता चला कि इस पुत्री ने जो सात जन्म पहिले ब्राह्मणी थी तो एक दिन अजस्वला होते हुए भी घर के तमाम बर्तन, भोजन, सामग्री छूली और ऋषि पंचमी व्रत को भी अनादर से देखा, उसी दोष के कारण इस पुत्री के शरीर में कीड़े पड़ गए क्योंकि रजस्वला (रजोधर्म) वाली स्त्री प्रथम दिन चांडालिनी के बराबर व दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी के समान व तीसरे दिन धोबिन के समान शास्त्र दृष्टि से मानी जाती है । तुम्हारी कन्या ने ऋषि पंचमी व्रत के दर्शन अपमान के साथ किये इससे ब्राह्मण कुल में जन्म तो हुआ, पर शरीर में कीड़े पड़ गए हैं ।

तब सुशीला ने कहा- महाराज ! ऐसे उत्तम व्रत को आप विधि के साथ वर्णन कीजिए, जिससे संसार के प्राणीमात्र इस व्रत से लाभ उठा सकें । ब्राह्मण बोले- हे सहधर्मिणी! यह व्रत भादमास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को धारण किया जाता है। पंचमी के दिन पवित्र नदी में स्नान कर व्रत धारण कर सायंकाल सप्तऋषियों का पूजन विधान से करना चाहिए, भूमि को शुद्ध गौ के गोबर से लीप के उस पर अष्ट कमल दल बनाकर नीचे लिखे सप्तऋषियों की स्थापना कर प्रार्थना करनी चाहिए ।

महर्षि कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, वशिष्ठ महर्षियों की स्थापना कर आचमन, स्नान, चंदन, फूल, धूप-दीप, नैवेद्य आदि पूजन कर व्रत की सफलता की कामना करनी चाहिए । इस व्रत को करके उद्यापन की विधि भी करनी चाहिये । चतुर्थी के दिन एक बार भोजन करके पंचमी के दिन व्रत आरम्भ करें। सुबह नदी या जलाशय में स्नान कर गोबर से लीपकर सर्वतोभद्र चक्र बनाकर उस पर कलश स्थापना करें। कलश के कण्ठ में नया वस्त्र बांधकर पूजा – सामिग्री एकत्र कर अष्ट कमल दल पर सप्तऋषियों की सुवर्ण प्रतिमा स्थापित करें फिर षोडषोपचार से पूजन कर रात्रि को पुराण का श्रवण करें फिर सुबह ब्राह्मण को भोजन दक्षिणा देकर संतुष्ट करें।

इस प्रकार इस व्रत का उद्यापन करने से नारी सुन्दर रूप लावण्य को प्राप्त होकर सौभाग्यवती होकर धन व पुत्र से संतुष्ट हो उत्तम गति को प्राप्त होती है ।

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