विश्वेश्वर व्रत | Vishweshwar Vrat Katha
भगवान शिव को विश्वनाथ या विश्वेश्वर भी कहा जाता है और हिन्दू धर्म में उनको समर्पित व्रत की बहुत मान्यता है। यही वजह है, कि इस व्रत को भी विश्वेश्वर व्रत कहा जाता है। यह व्रत प्रदोष व्रत के दिन किया जाता है, जो कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष में अंतिम पांच दिन भीष्म पंचक में तीसरे दिन होता है।
विश्वेश्वर व्रत की व्रत की तिथि, महत्व और उद्देश्य
हिन्दू पंचांग के अनुसार, विश्वेश्वर व्रत इस वर्ष 2024 में 14 नवंबर, दिन गुरुवार को मनाया जाएगा। भगवान भोलेनाथ बहुत दयालु हैं और इस व्रत को करने वाले की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। इस व्रत को करने से जीवन में आई सभी कठिनाइयां दूर होती हैं और सुखमय जीवन की प्राप्ति होती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस व्रत को करने से निरोगी काया की भी प्राप्ति होती है।
भगवान शिव के विश्वेश्वर रूप को समर्पित कर्नाटक में एक मंदिर है, जिसे महाथोबारा येलुरु श्री विश्वेश्वर मंदिर के नाम से जाना जाता है। मान्यता अनुसार, विश्वेश्वर व्रत का पूर्ण फल प्राप्त करने के लिए इस दिन मंदिर में रुद्राभिषेक कराने का भी विधान है। इस मंदिर में भगवान का फूलों से श्रृंगार किया जाता है और भक्त भगवान को अपने वजन के बराबर नारियल चढ़ाते हैं।
विश्वेश्वर व्रत की व्रत की पूजा विधि
- इस दिन प्रातः काल जल्दी उठकर स्नान आदि दैनिक कार्य कर स्वच्छ हो जाएं तथा व्रत धारण करें।
- इसके पश्चात, भगवान शिव के मंदिर जाएं तथा शिवलिंग पर जल, दूध, मिठाई और फल चढ़ाएं।
- भगवान शिव की सच्चे मन से आराधना करें और पूरे दिन उपवास रखें।
- फिर अगले दिन सुबह कुछ सात्विक भोजन खा कर व्रत खोलें।
यह व्रत सभी कष्टों को दूर करने वाला तथा सुख समृद्धि प्रदान कराने वाला है और इस व्रत को करने से भगवान भोलेनाथ प्रसन्न होते हैं और मनुष्य की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।
व्रत कथा
बहुत समय पहले कुथार राजवंश में एक शूद्र राजा हुआ करते थे, जिन्हें कुंडा राजा के नाम से जाना जाता था। एक समय की बात है, राजा ने भार्गव मुनि को अपने राज्य में आने का निमंत्रण भेजा था। लेकिन उन्होंने उस निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। आपको बता दें, कि मुनि ने राजा से कहा कि आपके राज्य में मंदिरों और पवित्र पावन नदियों का अभाव है। मुनि को कार्तिक पूर्णिमा से पहले भीष्म पंचक के पांच दिन के त्यौहार में तीसरे दिन पूजा करने के लिए उचित स्थान की आवश्यकता होती है, जिसका उन्हें राजा कुंडा के राज्य में अभाव लग रहा है।
राजा कुंडा को जब इस बात का पता लगा, तो वह इस बात से बहुत परेशान हुए। तब भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने अपना राज्य अपने सहायक के हवाले कर दिया और खुद राज्य छोड़ गंगा नदी के किनारे तपस्या करने के लिए चले गए। उन्होंने नदी किनारे एक महान यज्ञ का अनुष्ठान किया था और इस प्रकार भगवान शिव की आराधना की। तब भगवान शिव उनकी तपस्या से प्रसन्न हुए और राजा से वरदान मांगने को कहा। तब राजा ने भगवान शंकर से उनके राज्य में रहने की इच्छा जताई, जिसे भगवान भोलेनाथ ने स्वीकार कर लिया।
उस समय भगवान शंकर राजा कुंडा के राज्य में एक कंद के पेड़ में रहने लगे थे। एक दिन एक आदिवासी स्त्री वहां जंगल में अपने खोए हुए बेटे को ढूंढ रही थी, जो वहीं जंगल में खो गया था। उस स्त्री ने वहां कंद के वृक्ष के पास जाकर उस पर अपनी तलवार से प्रहार किया। तलवार लगते ही उस वृक्ष से खून बहने लगा था। बहते हुए खून को देखकर उस स्त्री ने समझा, कि वह कंद नहीं बल्कि उसका पुत्र है और उसका नाम ‘येलु’,‘येलु’ पुकारने लगी तथा जोर-जोर से रोने लगी। तभी उस स्थान पर भगवान शिव लिंग के रूप में प्रकट हुए थे और तभी से यहां पर बने मंदिर को येलुरु विश्वेश्वर मंदिर कहा जाने लगा था।
उस स्त्री द्वारा तलवार से किए गए प्रहार से शिवलिंग पर एक निशान पड़ गया था। ऐसा कहते हैं, कि वह निशान आज भी येलुरु श्री विश्वेश्वर मंदिर में स्थापित शिवलिंग में देखा जा सकता है। यह भी माना गया है, कि कुंडा राजा ने प्रहार के स्थान पर नारियल पानी डाला था तभी कंद का खून बहना बंद हुआ था। इसलिए आज भी यहां भगवान शिव को नारियल पानी या नारियल का तेल चढ़ाने का विधान है। इसके अलावा, भगवान को चढ़ाया गया तेल मंदिर में दीपक जलाने के काम में लिया जाता है।
यह थी भगवान भोलेनाथ को समर्पित विश्वेश्वर व्रत की संपूर्ण जानकारी। उम्मीद है यह लेख भगवान शिव की आराधना के साथ-साथ व्रत का अनुष्ठान करने में आपके लिए उपयोगी होगा। ऐसे ही अन्य पर्व, उत्सव, त्योहारों के विषय में अवगत होने के लिए जुड़े रहिए श्री मंदिर के साथ।