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जागेश्वर मंदिर, अल्मोड़ा

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के द्वारा इस धाम को एक विरासत स्थल के रूप में माना जाता है।

मानसखण्ड, उत्तराखंड, भारत

देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड में भगवान शिव के कई ऐसे मंदिर हैं, जिनका ऐतिहासिक महत्व है। राज्य के जिले अल्मोड़ा को उत्तराखंड की सांस्कृतिक नगरी के रूप में भी जाना जाता है। धार्मिक रूप से यहां कई पौराणिक व ऐतिहासिक मंदिरों के दर्शन किए जा सकते हैं। इनमें सबसे प्रमुख रूप से जागेश्वर मंदिर का नाम आता है। आज हम आपको इस मंदिर के बारे में बताएंगे कि जागेश्वर मंदिर कहां है, जागेश्वर मंदिर किस लिए प्रसिद्ध है, जागेश्वर मंदिर की कहानी क्या है और जागेश्वर धाम कैसे पहुंचे? अल्मोड़ा से 34 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है जागेश्वर धाम। यहां भगवान शिव को समर्पित मंदिरों का समूह है। इन समूहों में सबसे प्रमुख मंदिर है जागेश्वर महादेव मंदिर। यह भगवान शिव का पश्चिम मुखी मंदिर है, जहां महादेव की नागेश/जागेश्वर के रूप में पूजा की जाती है। मंदिर के गर्भगृह में स्थापित शिवलिंग 2 भागों में बंटा हुआ है, जिसमें बड़ा वाला हिस्सा भगवान शिव को और छोटा वाला भाग माता पार्वती को दर्शाता है। जागेश्वर धाम में छोटे-बड़े कुल 125 मंदिर हैं। यह धाम दुनिया में एक ही परिसर में स्थित सबसे बड़े मंदिरों के समूह में से एक है। मंदिर के आसपास का दृश्य काफी मनमोहक है। विश्व प्रसिद्ध मंदिरों में से एक जागेश्वर धाम का नाम मंदिरों के समूह व ज्योतिर्लिंगों के लिए इतिहास में भी दर्ज है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के द्वारा इस धाम को एक विरासत स्थल के रूप में माना जाता है।

मंदिर का इतिहास

जागेश्वर धाम के इतिहास की बात करें तो यह मंदिर करीब 2500 साल पुराना मंदिर बताया जाता है। यह एक ऐसा धाम है, जिसका नाम तो काफी प्रसिद्ध है, लेकिन इसके रहस्य को अब तक कोई भी नहीं जान सका है। पौराणिक कथाओं में भी इसका जिक्र किया गया है। यही नहीं, शिव पुराण, लिंग पुराण और स्कंद पुराण में भी उसका उल्लेख मिलता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, जागेश्वर धाम क्षेत्र में भगवान शिव जी और सप्त ऋषियों ने तपस्या की थी। इनके अलावा कई अन्य ऋषियों ने भी यहां तप और जप किया था। लगातार मंत्रों के जाप से मंदिर में स्थापित शिवलिंग जागृत अवस्था में है। इसी वजह से इस क्षेत्र को जागेश्वर धाम कहा जाने लगा। एक और कथा के अनुसार, जागेश्वर महादेव मंदिर का इतिहास पांडवों से भी जुड़ा हुआ है। माना जाता है कि पांडवों के समय यह मंदिर लकड़ियों से बना हुआ था, जिसे बाद में कुमाऊं के साहसी राजाओं ने पत्थरों से बनवाया था। कहते हैं कि उत्तर भारत में गुप्त साम्राज्य के दौरान हिमालय की पहाड़ियों के कुमाऊं क्षेत्र में कत्यूरी नाम के राजा थे। उन्होंने ही लकड़ी से बने इस मंदिर को पत्थर से बनवाया था। इसी वजह से इस धाम में बने मंदिरों के समूह में गुप्त साम्राज्य की झलक देखने को मिलती है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार, जागेश्वर धाम में बने मंदिरों के निर्माण की अवधि को तीन कालों में बांटा गया है। कत्यूरी काल, उत्तर कत्यूरी काल और चंद्र काल। पौराणिक कथाओं के अनुसार जब दक्ष प्रजापति का यज्ञ नष्ट होने के बाद, सती के शव को लेकर शिव विक्षिप्त से सारी सृष्टि में घूमने लगे। तब भगवान विष्णु ने अपने चक्र से सती के शव के 52 खंड कर दिए और जहां-जहां वे खंड गिरे, वहीं शक्तिपीठ बन गए। लेकिन उसके बाद भी भगवान शिव, यज्ञ की भस्म को सती का हिस्सा समझकर उसे अपने शरीर पर मलकर वनों में हजारों वर्षों तक तप करते रहे। इन्हीं वनों में वशिष्ठ आदि सप्तऋषि अपनी कुटिया बनाकर पत्नियों के साथ तप कर रहे थे। एक दिन ऋषि की पत्नियों ने अचानक सुगठित नील वर्ण शिवजी को देखा और वे अपनी सुध-बुध खो बैठीं और मूर्च्छित हो गईं, जिसे देखकर ​​ऋषि को मूच्छ्रित अवस्था में देखकर क्रोध से जलने लगे और उन्होंने उन्हें श्राप दिया कि तुम्हारा लिंग तुम्हारे शरीर से अलग होकर पृथ्वी पर गिर जाए। उसके बाद शिवजी ने अपने नेत्र खोले और बोले कि तुमने बिना मेरा दोष जाने मुझे श्राप दिया, माना कि संदेहजनक स्थिति में देखकर तुम सबने मुझे श्राप दिया, इस कारण मैं तुम्हारा मान रखूंगा, किंतु तुम सातों भी आकाश में तारों के साथ अनंत काल तक लटके रहोगे। श्राप के कारण शिवजी का लिंग पृथ्वी पर गिर पड़ा और जलता हुआ घूमने लगा। उसके ताप से पृथ्वी जलने लगी। ये देखकर ऋषि ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा ने कहा, कि ‘शिव के रुद्र रूप की उपासना करिए, तभी कोई हल निकलेगा।’ ऋषियों ने रुद्र की उपासना की। देवों, यक्षों, किन्नरों ने ऋषियों के साथ महादेव की अर्चना की और लिंग को योगेश्वर नाम दिया। यहीं से शिवलिंग के पूजन की परंपरा का प्रारंभ हुआ। यही योगेश्वर नाम जोगेश्वर में बदल गया।

मंदिर का महत्व

ऐसी मान्यता है कि कैलाश मानसरोवर मार्ग पर जाने वाले तीर्थयात्री जागेश्वर धाम में जरूर रुकते हैं। तीर्थ यात्रियों के लिए यहां रुककर भगवान शिव की पूजा करना और उनका आशीर्वाद लेना एक प्रथा है। माना जाता है कि देवाधिदेव महादेव यहां आज भी वृक्ष के रूप में मां पार्वती के साथ विराजते हैं। कहते हैं कि धाम परिसर में श्रद्धालुओं को भगवान शिव-पार्वती के युगल रूप के दर्शन होते हैं। यहां नीचे से एक और ऊपर से दो शाखाओं वाला विशाल देवदार का वृक्ष है। यह बहुत ही प्राचीन वृक्ष बताया जाता है। कहा जाता है कि जागेश्वर महादेव मंदिर में मांगी गई हर मन्नत पूरी हो जाती थी, जिसका लोगों ने दुरुपयोग करना शुरू कर दिया। एक बार यहां जगतगुरु आदि शंकराचार्य जी आए और उन्होंने वेद मंत्रों से बुरे कार्यों के लिए मांगी गई मन्नत पर रोक लगा दी।

मंदिर की वास्तुकला

पहाड़ी और देवदार के घने जंगलों के बीच स्थित जागेश्वर धाम की वास्तुकला काफी मनमोहक है। जागेश्वर धाम में छोटे बड़े 125 मंदिरों का समूह है, जिसका निर्माण लकड़ी या सीमेंट की जगह पत्थर की बड़ी-बड़ी शिलाओं से किया गया है। मंदिर के दरवाजों की चौखटों पर देवी-देवताओं की प्रतिमाएं देखने को मिलती है। मंदिरों के निर्माण में तांबे की चादर और देवदार की लकडी का भी प्रयोग किया गया है। मंदिरों की नक्काशी में प्राचीन भारतीय मंदिरों की झलक भी देखने को मिलती है। सबसे खास बात यह है कि गौर से देखने पर इस मंदिर की बनावट बिल्कुल केदारनाथ मंदिर की तरह लगती है। लेकिन भक्तों के मन में यह बात तो जरूर आती ही होगी कि आखिर 125 मंदिरों के समूहों के इस जागेश्वर धाम में किस किसका मंदिर है? तो हम आपको बताते हैं कि जागेश्वर धाम परिसर में स्थित मुख्य मंदिर जगन्नाथ, मृत्युंजय मंदिर, हनुमान मंदिर, सूर्य मंदिर, नीलकंठ मंदिर, नवग्रहों को समर्पित नवग्रह मंदिर, पुष्टि माता मंदिर, लकुलिसा मंदिर, केदारनाथ मंदिर, नवदुर्गा मंदिर और बटुक भैरव मंदिर सहित अन्य मंदिर स्थित हैं।

मंदिर का समय

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जागेश्वर मंदिर खुलने का समय

04:00 AM - 08:00 PM
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सुबह की आरती का समय

04:00 AM - 05:00 AM
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सांयकाल आरती का समय

06:00 AM - 07:00 PM

मंदिर का प्रसाद

जागेश्वर महादेव मंदिर में भगवान शिव को दाल, चावल व सब्जी का भोग लगाया जाता है। इसके अतिरिक्त भक्त भोलेनाथ को जल, बेलपत्र, फूल, दूध आदि भी अर्पित करते हैं।

यात्रा विवरण

मंदिर के लिए यात्रा विवरण नीचे दिया गया है

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