श्री विष्णु ने अपना पांचवां अवतार किस रूप में और क्यों लिया था? आज हम आपको इसके रोचक कथा के बारे में बताते हैं। कहते हैं कि श्री हरि ने अपना पांचवां अवतार एक वामन बालक के रूप में लिया था। वामन के रूप में अवतीर्ण होकर प्रभु ने एक ऐसा अद्भुत कार्य किया था कि सभी देवताएं उनके प्रति नतमस्तक हो गए थे। कहा जाता है कि श्री विष्णु का वामन अवतार उन्होंने भक्त प्रह्लाद के पौत्र राजा बलि के दर्प को चूर करने के लिए भी लिया था।
जब देवताओं से युद्ध करते हुए असुरों को मृत व पराजित होना पड़ा, तब दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने अपनी शक्तियों से उन सभी को पुनः जीवित कर दिया था। मगर जीवित होने के पश्चात तो जैसे, असुरों के अत्याचार की सारी सीमाएं अतिक्रमित होने लगी। राजा बलि ने भी शुक्राचार्य की कृपा से अपना जीवन लाभ किया था, इसलिए वह भी उनकी सेवा में लग गए। इस दौरान, राजा बलि की सेवा से प्रसन्न होकर शुक्राचार्य ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया।
दूसरी तरफ, पौराणिक मान्यता के अनुसार, असुरों के हर दूसरे दिन देवताओं पर किए गए अत्याचारों से माता अदिति अत्यंत दुखी हो गईं थीं। उन्होंने अपनी यह व्यथा अपने स्वामी कश्यप ऋषि को सुनाते हुए कहा, “हे स्वामी! मेरे तो सभी पुत्र मारे-मारे फिरते हैं और उन्हें इस अवस्था में देखकर, मेरा हृदय क्रंदन करने लगता है।” अपनी पत्नी की यह बात सुनकर, कश्यप ऋषि ने सोचा, इस व्यथा के समाधान के लिए तो अपना सर्वस्व प्रभु नारायण के चरणों में समर्पित कर, उनकी आराधना करना आवश्यक है। उन्होंने अदिति को भी ऐसा ही करने के लिए कहा। माता अदिति ने तब नारायण का कठोर तप किया और प्रभु भी माता के तप से प्रसन्न होकर उनके पुत्र के रूप में आविर्भूत हुए। अपने गर्भ से ऐसे चतुर्भुज प्रभु के अवतार से माता अदिति तो जैसे धन्य ही हो गईं। वहीं प्रभु ने अवतरित होते ही वामन अवतार धारण कर लिया था। इसके बाद, महर्षि कश्यप ने अन्य ऋषियों के साथ मिलकर उस वामन ब्रह्मचारी का उपनयन संस्कार सम्पन्न किया।
इसके बाद, वामन ने अपने पिता से शुक्राचार्य द्वारा आयोजित राजा बलि के अश्वमेध यज्ञ में जाने की आज्ञा ली। यह राजा बलि का अंतिम अश्वमेध यज्ञ था। वामन जैसे ही उस यज्ञ में पहुंचे राजा बलि ने उन्हें देखते ही उनका आदर सत्कार किया और उनसे दान मांगने का आग्रह किया। इस पर वामन ने राजा बलि से कहा, “हे राजन! आपके कुल की सूरते व उदारता जगजाहिर है। मुझे तो बस अपने पदों के समान तीन पग जमीन चाहिए।”
राजा बलि उन्हें यह दान देने ही वाले थे, तभी शुक्राचार्य ने उन्हें चेताया, “यह अवश्य ही विष्णु हैं। इनके छलावे में आ गए, तो तुम्हारा सर्वस्व चला जाएगा।” परंतु राजा बलि अपनी बात पर स्थिर रहे। उन्होंने वामन को तीन पद जमीन देने का निर्णय कर लिया। राजा बलि की यह बात सुनते ही वमानवतार श्री विष्णु ने अपना शरीर बड़ा कर लिया और प्रथम दो पदों में ही उन्होंने स्वर्गलोक और धरती को अपने नाम कर लिया। वामन के चरण पड़ने से ब्रह्मांड का आवरण थोड़ा उखर सा गया था एवं इसी स्थान से, ब्रह्मद्रव बह आया था जो बाद में जाकर मां गंगा बनीं। अब वामन ने बलि से पूछा, “राजन! तीसरा पद रखने का स्थान कहां है?” कोई दूसरा स्थान शेष ना रह जाने के कारण बलि ने प्रभु से कहा, कृपया आप अपना तीसरा पद मेरे शीश पर धारण करें।” वामन ने वैसा ही किया और इसके साथ ही राजा बलि, गरुड़ द्वारा बांध लिए गए। तब वमानवतार ने राजा बलि से कहा, “राजन! अगले मन्वन्तर में आप इंद्र बनेंगे, तब तक आप अपने परिवार और साथियों के साथ सुतल में वास करें।”
प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए, राजा बलि प्रहलाद समेत सभी के साथ सुतल चले गए और प्रभु का आदेश पाकर, शुक्राचार्य ने उस यज्ञ को पूरा किया। इसके पश्चात, ब्रह्मा ने वामन को उपेन्द्र पद प्रदान किया और वह इंद्र के अधीक्षक बन कर अमरावती में स्थापित हो गए।