महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र (Mahishasura Mardini Stotra)
महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र मां दुर्गा के एक स्वरूप मां भगवती का स्तोत्र माना जाता हैं। इसका पाठ करने से मां भगवती प्रसन्न होती हैं और अपने भक्तों के हर कष्ट को दूर कर देती हैं। माना जाता है कि अगर कोई व्यक्ति किसी समस्या से पीड़ित है तो उसे महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र का पाठ अवश्य करना चाहिए। मां भगवती पर विश्वास रखने वाले जीवन की हर समस्याओं से उभर जाते हैं। वैसे तो रोजाना ही इस स्तोत्र का पाठ करना अच्छा माना जाता है, लेकिन नवरात्रि में इसका पाठ करने से मां भगवती का विशेष आशीर्वाद प्राप्त होता है।
महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र किसने और क्यों लिखा ? (Who wrote Mahishasura Mardini Stotra and why?)
इस स्तोत्र को श्री आदि शंकराचार्य जी ने स्वयं लिखा है। महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र की उत्पत्ति के संबंध में एक कथा प्रचलित है, जोकि आदि गुरु के जीवन की एक घटना से जुड़ी है। कहा जाता है कि एक बार आदि गुरु शंकराचार्य जी अपने शिष्यों के साथ स्नान के लिए एक पतली गली से होकर मणिकर्णिका घाट (श्मशान घाट) जा रहे थे। रास्ते में एक स्त्री अपने मृत पति का सिर गोद में लिए बैठी रो रही थी। गली काफी पतली थी, जिस वजह से आगे जाने के लिए शव का हटाना आवश्यक था।
यह देख शंकराचार्य जी के शिष्यों ने उस स्त्री से उसके पति के शव को हटाकर रास्ता देने की प्रार्थना की, लेकिन स्त्री ने उसे अनसुना कर रोती रही। जिसके बाद खुद शंकराचार्य जी ने उससे शव हटाने का अनुरोध किया। उनका आग्रह सुन स्त्री बोली- हे संन्यासी! आप मुझसे बार-बार यह शव हटाने के लिए कह रहे हैं। आप इस शव को ही खुद हट जाने के लिए क्यों नहीं कहते? इसपर आचार्य जी ने कहा- हे देवी! आप शोक में यह भूल गईं हैं कि शव में स्वयं हटने की शक्ति नहीं है। जिसके बाद स्त्री ने कहा- महात्मन् आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष ब्रह्म ही जगत का कर्ता है। फिर शक्ति के बिना यह शव क्यों नहीं हट सकता ?
स्त्री की ऐसी गंभीर, ज्ञानमय, रहस्यपूर्ण बात सुनकर आचार्य जी वहीं बैठ गए, उन्हें समाधि लग गई। समाधि में अपने अंत: चक्षु से शंकराचार्य जी ने देखा कि स्त्री रूप में सर्वत्र आद्या शक्ति महामाया लीला विलाप कर रही हैं। आचार्य जी का हृदय अनिवर्चनीय आनंद से भर गया और उनके मुख से मातृ वंदना की शब्दमयी धारा स्तोत्र बनकर निकल गई। इस प्रकार से महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र की उत्पत्ति हुई।
महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र का महत्व (Importance of Mahishasura Mardini Stotra)
मान्यता है कि मां भगवती के महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र का पाठ करने से जातक के जीवन में आ रही परेशानियां दूर हो जाती हैं। जो व्यक्ति जीवन में शक्ति की कामना करता है, उसे इस स्त्रोत से मां भगवती की आराधना जरूर करनी चाहिए। मां भगवती की आराधना से बड़े से बड़ा कष्ट तुरंत दूर हो जाता है। शास्त्रों में भी कहा गया है कि जो व्यक्ति दिन में एक बार भी मां महिषासुरमर्दिनी स्रोत का पाठ कर लेता है, उसके जीवन में कभी कोई परेशानी नहीं आती।
महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र पाठ कैसे करें (How to recite Mahishasura Mardini Stotra)
- मां भगवती के इस स्तोत्र का पाठ किसी भी दिन कर सकते हैं। हालांकि, रोजाना इस स्तोत्र का पाठ लाभदायी होता है।
- जिस दिन स्तोत्र का पाठ करने का संकल्प लें, उस दिन सुबह स्नान करके साफ कपड़े पहन लें।
- मां भगवती की प्रतिमा या फोटो के आगे घी का दीपक जलाकर पुष्प आदि अर्पित करें।
- इसके बाद महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र का पाठ शुरू करें। अपनी इच्छानुसार आप कितनी भी बार पाठ कर सकते हैं।
- पाठ समाप्त होने के बाद मां भगवती से अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए प्रार्थना करें।
महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र पाठ के लाभ (Benefits of reciting Mahishasura Mardini stotra)
- जीवन में किसी भी प्रकार की समस्या स्रोत के पाठ से दूर हो जाती है।
- मां भगवती के आशीर्वाद की प्राप्ति होती है।
- स्तोत्र का नियमित पाठ करने से मनुष्य के सभी संकट का विनाश होता है।
- पाठ करने से व्यक्ति को शक्ति, साहस और बल की प्राप्ति होती है।
- जो व्यक्ति दिन में एक बार भी स्तोत्र का पाठ करता है तो उसे मृत्यु के बाद स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
- जीवन सुखमय बनता है व घर परिवार में सुख शांति आती है।
यें गलतियां ना करें (Don't make these mistakes while Mahishasura Mardini stotra)
- बिना शुद्ध तन व मन के इस स्रोत का पाठ न करें।
- महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र पाठ करने से पहले मां भगवती की पूजा अवश्य करें।
- अगर किसी संकल्प को लेकर पाठ कर रहे हैं तो उसे रोजाना नियम से करें।
- पाठ को कभी भी बीच से न पढ़ें और न ही आधा अधूरा पढ़कर छोड़ें।
महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम् - अयि गिरिनन्दिनि (Mahishasura Mardini Stotram- Aigiri Nandini)
अयि गिरिनंदिनि नंदितमेदिनि विश्वविनोदिनि नंदनुते, गिरिवर-विंध्य-शिरोधि-निवासिनि विष्णु-विलासिनि जिष्णुनुते। भगवति हे शितिकण्ठकुटुंबिनि भूरि-कुटुंबिनि भूरि-कृते, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यक-पर्दिनि शैलसुते ॥1॥
सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते, त्रिभुवनपोषिणि शंकर तोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते। दनुज निरोषिणि दितिसुत रोषिणि दुर्मद शोषिणि सिन्धुसुते, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥2॥
अयि जगदंब मदंब कदंब वनप्रिय वासिनि हासरते, शिखरि शिरोमणि तुङ्ग हिमालय श्रृंग निजालय मध्यगते। मधु मधुरे मधु कैटभ गंजिनि कैटभ भंजिनि रासरते, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥3॥
अयि शतखण्ड-विखण्डितरुण्ड-वितुण्डित-शुण्ड-गजाधिपते, रिपु गजगण्ड-विदारण चण्ड पराक्रम शुण्ड मृगाधिपते। निजभुज-दण्डनिपातितखण्ड-विपातित-मुण्ड भटाधिपते, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥4॥
अयि रणदुर्मद-शत्रुवधोदित-दुर्धरनिर्जर-शक्तिभृते, चतुरविचार-धुरीणमहाशिव-दूत-कृत-प्रमथाधिपते। दुरित दुरीह-दुराशय-दुर्मति-दानवदूत-कृतांतमते, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥5॥
अयि शरणागत वैरि वधूवर वीरवार भयदायकरे, त्रिभुवन मस्तक शूलविरोधि शिरोधिकृतामल शूलकरे। दुमिदुमितामरदुंदुभिनादमहोमुखरीकृततिग्मकरे, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥6॥
अयि निजहुँ-कृतिमात्र-निराकृत-धूम्रविलोचन-धूम्रशते, समरविशोषित-शोणितबीज-समुद्भवशोणित-बीजलते। शिवशिव शुंभनिशुंभमहाहवतर्पितभूतपिशाचरते, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥7॥
धनु-रनुसंगरणक्षण संगपरिस्फुर दंगनटत्कटके, कनक पिशंग-पृषत्क-निषंगरसद्भटशृंगहता वटुके। कृतचतुरङ्ग-बलक्षितिरङ्ग-घटद्बहुरङ्गरट-द्बटुके, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥8॥
सुरललनात तथेयित थेयित थाभिनयोत्तर नृत्यरते, हासविलास हुलास मयि प्रणतार्तजनेऽमितप्रेमभरे। धिमिकिट धिक्कट धिकट धिमिध्वनि घोरमृदंग निनादरते, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥9॥
जय जय जप्य जये जयशब्द परस्तुति तत्पर विश्वनुते, झणझण झिञ्झिमि झिंकृत नूपुरसिंजित मोहित भूतपते। नटितन टार्धन टीनटनायक नाटित नाट्य सुगानरते, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥10॥
अयि सुमनः सुमनः सुमनः सुमनः सुमनोहर कांतियुते, श्रितरजनी रजनी रजनी रजनी रजनी करवक्त्रवृते। सुनयन भ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमराधिपते, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥11॥
सहित महाहव मल्लम तल्लिक मल्लित रल्ल कमल्लरते, विरचित वल्लिक पल्लिक मल्लिक झिल्लिक भिल्लिक वर्ग वृते। सितकृत फुल्लि समुल्ल सितारुण तल्ल जपल्ल वसल्ललिते, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥12॥
अविरल गण्ड गलन्मद मेदुर मत्त मतङ्ग जराजपते, त्रिभुवन भूषण भूत कलानिधि रूप पयोनिधि राजसुते। अयि सुदती जनलाल समान समोहन मन्मथ राजसुते, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥13॥
कमल दलामल कोमल कांति कलाकलितामल भाललते, सकल विलास कलानिलयक्रम केलिचलत्क लहंसकुले। अलिकुल संकुल कुवलय मंडल मौलि मिलद्भ कुलालिकुले, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥14॥
करमुरली रववीजित कूजित लज्जित कोकिल मञ्जुमते, मिलित पुलिन्द मनोहर गुंजित रञ्जित शैलनि कुञ्जगते। निजगुण भूत महाशबरी गण सद्गुण संभृत-केलि-तले, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥15॥
कटि तट पीत दुकूल विचित्र मयूख तिरस्कृत चंद्र रुचे, प्रणत सुरासुर मौलिमणि-स्फुर दंशुल सन्नख चंद्ररुचे। जित कनकाचल मौलि पदोर्जित निर्झर कुंजर कुंभ कुचे, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥16॥
विजित सहस्र करैक सहस्र करैक सहस्र करैक नुते, कृत सुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनु सुते। सुरथ समाधि समान समाधि समाधि समाधि सुजा तरते, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥17॥
पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं स शिवे, अयि कमले कमला निलये कमला निलयः स कथं न भवेत्। तव पदमेव परंपद मित्यनु शील यतो मम किं न शिवे, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥18॥
कनकल सत्कल सिन्धुजलैरनु सिञ्चिनुते गुण रङ्गभुवं, भजति स किं न शची कुचकुंभ तटी परिरंभ सुखानु भवम्। तव चरणं शरणं करवाणि नतामर वाणि निवासि शिवं, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥19॥
तव विमलेन्दु कुलं वदनेन्दु मलं सकलं ननु कूलयते, किमु पुरुहूत पुरीन्दु मुखी सुमुखी भिरसौ विमुखी क्रियते। मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥20॥
अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्य मुमे, अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथाऽनुमितासि रते। यदुचितमत्र भवत्युररीकुरुता दुरुतापम पाकुरुते, जय जय हे श्री महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥21॥
स्तुतिमिमां स्तिमित: सुसमाधिना नियमतो यमतोsनुदिनं पठेत्। प्रिया रम्या स निषेवते परिजनोऽरिजनोऽपि च तं भजेत् ॥22॥
॥ महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र सम्पूर्णं॥