द्वारकापुरी का रहस्य

द्वारकापुरी का रहस्य

जरासंध से युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण


सम्पूर्ण सृष्टि के पालनहार, गोपेश गिरिधारी श्री कृष्ण मनुष्य के जीवन का सार कहलाते हैं। उनकी महिमा, समस्त जगत के कण-कण में व्याप्त है। तभी तो कहा गया है, अपनी जीवन-चेतना को प्रज्ज्वलित और प्रकाशित करने के लिए, मनुष्य को सदैव श्री गिरिधारी की आराधना करनी चाहिए। देश के विभिन्न प्रांतों में, भगवान श्री कृष्ण को विभिन्न रूपों में पूजा जाता है। कोई द्वारकाधीश, तो कोई केशव, तो कोई मुरली मनोहर, हर भक्त को उसके आराध्य, एक अनूठे रूप में नज़र आते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं, कि भगवान श्री कृष्ण के इन सभी नामों के अलावा, उनको रणछोड़ के नाम से भी जाना जाता है?

यह सवाल सुनकर आपको लग रहा होगा, कि श्री गिरिधारी तो भगवान हैं, तो भला उन्हें युद्ध का मैदान छोड़ने की ऐसी क्या ज़रूरत आन पड़ी, जिससे उनका नाम रणछोड़ पड़ा? दरअसल, इस प्रश्न का उत्तर एक अत्यंत रोचक और रहस्यमय कथा में निहित है, जिसके बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं। यह कथा उस समय की है, जब जरासंध और कालयवन से मथुरा की रक्षा हेतु, श्री कृष्ण ने रणछोड़ कहलाना भी स्वीकार कर लिया था। इस कथा का वर्णन, श्रीमद भागवत पुराण में मिलता है। कथानुसार मगधराज जरासंध, मथुरा नरेश कंस के ससुर थे। उन्हीं की दो कन्यायों, अस्ति और प्राप्ति के साथ कंस का विवाह हुआ था।

जब श्री कृष्ण ने मथुरा नरेश कंस का वध कर दिया, तब उनकी दोनों पत्नियां अपने पितृगृह चली गयी और अपने पिता से, अपने पति की मृत्यु का विलाप करने लगीं। अपनी पुत्रियों को इस अवस्था में देख, मगधराज क्रोध से तिलमिला उठे और उन्होंने तत्क्षणात् अपनी 23 अक्षौहिणी सेना के साथ, मथुरा पर आक्रमण करने का निर्णय लिया। जब श्री कृष्ण ने देखा, कि जरासंध ने अपनी सेना के साथ मथुरा को चारों ओर से घेर लिया है, तब मन ही मन उन्होंने सोचा, “जरासंध ने अपने पास समस्त असुरों और दुराचारियों की सेना इकट्ठी कर ली है। मेरे इस अवतार की तो यही सार्थकता है, कि मैं असुरों का विनाश कर धरती पर पाप का बोझ हल्का कर दूँ। परंतु जरासंध को अभी मार देना सटीक सिद्धांत नहीं है, क्योंकि वह जीवित रहेगा तो और भी असुरों की सेना लाएगा और मैं उनका भी संहार कर, पापों का नाश करूंगा।”

यह सब विचार करते हुए, श्री कृष्ण ने अपने दाऊ बलराम से परामर्श किया और दोनों, अपने-अपने रथ पर बैठकर जरासंध से युद्ध करने निकल पड़े। श्री कृष्ण के सारथी, दारुक ने जैसे ही युद्ध शुरू होने से पहले पाञ्चजन्य शंख बजाया, तो शत्रुदल का हृदय भय से कांप उठा। इसके बाद, दोनों पक्षों के बीच घमासान युद्ध हुआ और श्री कृष्ण और बलराम ने मिलकर शत्रुओं का विनाश करना शुरू किया। युद्ध के अंत में 23 अक्षौहिनी सेना का सम्पूर्ण नाश हो गया और श्री कृष्ण ने सिर्फ़ जरासंध को ही जीवित छोड़ दिया। जरासंध लज्जा के मारे इस बात को सहन नहीं कर पाया, कि एक बालक ने उनपर दया दिखाई है। उन्होंने फ़िर से सेना इकट्ठी की और युद्ध के लिए प्रस्तुत हो गया।

यह सिलसिला 17 बार चला, जरासंध हर बार विशाल सेना के साथ आक्रमण करता और अंत में अकेला ही जीवित रहता। वह श्री कृष्ण या उनकी सेना का, बाल भी बांका नहीं कर पाता था। मगर जिस समय जरासंध 18वीं बार अपनी 23 अक्षौहिनी सेना के साथ आक्रमण करने वाला था, तब अचानक से उसकी सेना में नारद मुनि का भेजा हुआ कालयवन दिखाई पड़ा। यह देखते ही, श्री कृष्ण और दाऊ बलराम को चिंता हुई, कि कालयवन को पराजित करना असंभव है। तब उन दोनों ने आपस में यह विचार किया, कि इस बार युद्ध क्षेत्र में जाने से पूर्व, मथुरावासियों को किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचाना आवश्यक है।

अतएव अगर यह युद्ध हुआ, तो मथुरावासियों के प्राण संकट में पड़ जायेंगे। यह सब सोचते हुए, श्री कृष्ण ने तब समुद्र के भीतर एक ऐसा दुर्गम नगर बनवाना आरंभ किया, जिसकी हर दिशा बड़ी अद्भुत थी। भगवान विश्वकर्मा के विज्ञान और शिल्पकला की निपुणता से बना वह नगर, अत्यंत सुंदर था और विशाल था। उसमें सड़कें, चौराहें और गलियों का भी विभाजन किया हुआ था। उस नगर में अद्भुत सुंदर उद्यानों का मेला भी लगा हुआ था, जिनकी दीवारें मूल्यवान रत्नों से सुसज्जित थीं। नगर का सम्पूर्ण निर्माण हो जाने के बाद, श्री कृष्ण ने अपने स्वजन-संबंधियों को योगमाया की सहायता से उस नगर तक पहुँचा दिया। इसी सुंदर नगर को कालांतर में द्वारकापुरी के नाम से जाना गया।

भगवान कृष्ण के द्वारकापुरी निर्माण की इस रोचक कथा को सुनकर यह सीख मिलती है, कि युद्ध में हमेशा बल आवश्यक नहीं होता, बल्कि बुद्धि भी उतनी ही महत्वपूर्ण होती है। इसलिए, मनुष्य को अपने जीवन के किसी भी कठिन परिस्थिति में, धैर्य न खोते हुए बुद्धि का इस्तेमाल करना चाहिए। इससे मनुष्य किसी भी परिस्थिति से निकलने में सफल हो पाता है। अतएव, हमेशा बल का प्रयोग ना करें, बुद्धि से काम लें।

क्या आपको श्री कृष्ण द्वारा द्वारकापुरी के निर्माण की यह कथा अच्छी लगी? अगर हाँ, तो ऐसी ही और भी मनोरम कथाएं जानने के लिए बने रहिए Srimandir के साथ।

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