श्री कृष्ण और सुदामा

श्री कृष्ण और सुदामा

श्री कृष्ण और सुदामा की दोस्ती


श्री कृष्ण और सुदामा की दोस्ती

“आढ् यतो वापि दरिद्रो वा दुःखित सुखितोऽपिवा। निर्दोषश्च सदोषश्च व्यस्यः परमा गतिः॥”

अर्थात, चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या दोषयुक्त, एक मित्र ही मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा सहारा होता है। जब बात परम मित्रता की हो, तो जिस अनन्य उदाहरण की छवि हमारे मस्तिष्क में अंकित होती है, वह है भगवान श्री कृष्ण और सुदामा की अटूट मित्रता। प्रेम और मुक्ति के दाता परमब्रह्म कृष्ण की शक्ति अनंत है, लेकिन अपने मित्रों के लिए उनका स्वरूप उतना ही शांत व मनोरम था। श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता की मधुर गाथा, अत्यंत ही शुभकारी व अनन्य है, जिससे हम आपको अवगत कराने जा रहे हैं।

श्रीमद भागवत पुराण के अनुसार, श्री कृष्ण और सुदामा बाल्यावस्था में साथ गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त किया करते थे। उन दोनों की अटूट मित्रता का बंधन वहीं शुरू हुआ। परंतु जब शिक्षा ग्रहण की प्रक्रिया समाप्त हो गई, तो दोनों मित्रों को दुखी मन से एक दूसरे से विदा लेनी पड़ी। कालांतर में सुदामा बहुत बड़े पंडित ब्राह्मण बने, परंतु उनकी आर्थिक अवस्था बिल्कुल क्षीण थी। वे अत्यंत ज्ञानी, शांतचित्त व पराक्रमी थे, लेकिन किसी प्रकार का संग्रह नहीं करते थे। हर दिन पूजा-पाठ से जो कुछ उन्हें मिलता, वही घर ले आते और उसी में अपना गुज़ारा करते थे। उनके वस्त्र भी पुराने और फटे-चिटे थे और अत्यंत मुश्किल से वे अपने परिवार सहित अपना जीवन-यापन कर रहे थे।

अंत में एक दिन सुदामा की दुखी पत्नी उनके पास आईं और उनसे परिवार की दरिद्रता भरी अवस्था पर विलाप करने लगीं। भूख के मारे, वह भी अपने पति की तरह दुबली हो गई थीं। सहसा वह अपने पति से बोलीं, “स्वामी! जब स्वयं परम करुणावतार श्री कृष्ण आपके बाल-सखा हैं, तो आप हमारे परिवार की करुण अवस्था के बारे में उन्हें क्यों नहीं बताते? आजकल प्रभु का वास द्वारकापुरी में ही है और मुझे पूरा विश्वास है, जब उन्हें आपकी इस अवस्था का पता चलेगा, तो वे आपकी सहायता अवश्य करेंगे।” कई बार विनम्रता पूर्वक प्रार्थना करने के कारण, सुदामा उनकी बात मान कर द्वारका जाने के लिए तैयार हो गए। मन ही मन उन्होंने सोचा, कृष्ण से सहायता मांगना या ना मांगना विशेष बात नहीं। परंतु इस अवसर पर उन्हें अपने बाल-सखा के दर्शन हो जाएंगे, यह उनके जीवन का एक बड़ा लाभ है।

यह विचार करते हुए उन्होंने अपनी पत्नी से कहा, “प्रिये! अगर घर में भेंट देने योग्य कोई सामग्री है, तो उसे बांध दो। इतने वर्षों के बाद मैं कृष्ण से खाली हाथ तो नहीं मिल सकता हूँ।” ब्राह्मणी ने तब एक मुट्ठी चूड़ा एक पोटली में बांधकर अपने पति को दिया और वे द्वारका के लिए निकल पड़े। पूरे मार्ग में सुदामा बस यही सोचते हुए जा रहे थे, कि उन्हें कृष्ण के दर्शन प्राप्त होंगे या नहीं, और अगर होंगे भी तो कैसे? अंततः यह सब सोचते हुए, सुदामा द्वारका पहुंचे। वहां पहुंचते ही, सुदामा अन्य ब्राह्मणों के साथ यादवों के महल तक पहुंच गए, जहां जाने की अनुमति सबको नहीं होती। उस महल के बीचों-बीच श्री कृष्ण का सुसज्जित महल था, जिसमें प्रवेश करते ही सुदामा को ऐसा लगा, जैसे कि वे स्वर्गपुरी आ पहुंचे हो।

उस समय, श्री कृष्ण अपनी पत्नी रुक्मिणी के पलंग पर विराजमान थे। जैसे ही सहसा उनकी नज़र द्वार से प्रवेश करते ब्राह्मण पर पड़ी, वे दौड़ कर उनके पास पहुँचे और उन्हें गले लगा लिया। यह दृश्य मानो पुण्य मिलन का दृश्य था। श्री कृष्ण के कमल-नयन से अश्रु की धारा बहने लगी, और वे अपने प्रिय सखा से मिलकर अत्यंत आनंदित हुए। सुदामा के लिए भी, यह क्षण अत्यंत भावपूर्ण था, क्योंकि उन्हें आशा नहीं थी, कि श्री कृष्ण को इतने वर्षों बाद भी उनका स्मरण रहेगा। अत्यंत प्रेम से उनका स्वागत-सत्कार करने के बाद दोनों मित्र अपने पूर्वदिनों का स्मरण करने लगे। इस दौरान श्री कृष्ण ने सुदामा को गुरु की महत्वता का ज्ञान भी कराया।

श्री कृष्ण ने कहा, “प्रिय सखा! तुम्हें वे सारे क्षण याद होंगे, जब संदीपनी मुनि के आश्रम में हमें शिक्षा दी जाती थी। जब हर क्षण गुरु हमारी बाधा-विपत्तियों में हमारे साथ होते थे। मनुष्य का जीवन भी यही है प्रिय! उनके जीवन में गुरु स्वरूप में मैं ही हूँ। गुरु की ही कृपा से मनुष्य शांति का अधिकारी होता है।” इसके पश्चात कई दिनों तक सुदामा ने श्री कृष्ण के पास रहकर आनंद का उपभोग किया। उन्होंने पत्नी का दिया हुआ चूड़ा भी कृष्ण को दिया, जिसे उन्होंने बड़े प्रेम से खाया। इन सब के बीच सुदामा अपने सखा से मदद नहीं मांग पाए और अपने घर लौटने लगे। लेकिन परमात्मा तो सबके मन की बात जानते हैं, उन्होंने सुदामा के जीवन को ऐश्वर्यों से भर दिया। ऐसी थी दोनों की दिव्य मित्रता।

तो भगवान श्री कृष्ण और सुदामा की यह कथा हमें भी यही सीख देती है, कि मनुष्य का जीवन सच्ची मित्रता से और भी सुंदर बन जाता है। क्या आपको परम मित्रता की यह सुंदर कथा अच्छी लगी? अगर हाँ तो ऐसी ही और सुंदर कथाओं के बारे में जानने के लिए बने रहिए श्रीमंदिर के साथ।

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