श्री गुरु अष्टकम (Sri Guru Ashtakam)
गुरु अष्टकम गुरु को समर्पित एक भक्ति भजन है। कहा जाता है कि 8वीं सदी के महान संत और दार्शनिक आदि शंकराचार्य ने किसी व्यक्ति के जीवन में गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर करने के लिए इस भजन की रचना की थी। इस स्त्रोत में बताया गया है कि गुरु कितने तरह से अपने शिष्यों की रक्षा करते हैं। इतना ही नहीं वह आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए भी अपने शिष्यों की सहायता करते हैं। गुरु हमें सभी प्रकार का ज्ञान प्रदान करने के लिए हमेशा हमारे निकट होते हैं।
श्री गुरु अष्टकम का महत्व (Importance of Shri Guru Ashtakam)
यह स्त्रोत हमें गुरु की आवश्यकता को समझाता है और हमें अपने मन को गुरु के कमल चरणों में संलग्न करने की आवश्यकता को बतलाता है। गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण आध्यात्मिक लाभ का मार्ग है, यही संदेश इस गुरु अष्टक स्तोत्र में बताया गया है। गुरु अष्टक स्तोत्र को उस व्यक्ति द्वारा आत्मनिरीक्षण के रूप में समझा जा सकता है जिसने सांसारिक मामलों में वह सब हासिल कर लिया है जो वह हासिल कर सकता है और इस समझ तक पहुंच गया है कि गुरु के चरण कमलों के प्रति समर्पण की अनुपस्थिति बाकी सभी को बेकार बना देती है। ऐसे ईमानदार साधक के लिए, गुरु अंतिम श्लोक में, आश्वस्त शांति और स्थिरता के साथ, गंभीर प्रयास के लिए दिए गए आशीर्वाद के साथ प्रकट होते हैं।
श्री गुरु अष्टकम पढ़ने के फायदे (Benefits of reading Shri Guru Ashtakam)
- जो कोई भी गुरु के लिए इन आठ श्लोकों के इस संग्रह को पढ़ता है, अध्ययन करता है और गुरु के वचनों के प्रति समर्पित रहता है, चाहे वह एक पवित्र व्यक्ति, तपस्वी, राजा, नवजात या गृहस्थ हो, उसे अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त होती है।
- जिन व्यक्तियों को अपनी कड़ी मेहनत का कोई फल नहीं मिल रहा है उन्हें उस स्थिति से उबरने के लिए गुरु अष्टकम का पाठ करना चाहिए।
- वह धन्य है जो इस अष्टक को गुरु के लिए पढ़ता है, चाहे वह संत हो, राजा हो, कुंवारा हो या गृहस्थ हो। यदि उसका मन गुरु के वचनों में लग जाये तो उसे ब्रह्म प्राप्ति का महान उपहार मिल जायेगा।
श्री गुरु अष्टकम का हिंदी अर्थ (Hindi meaning of Shri Guru Ashtakam)
शरीरं सुरुपं तथा वा कलत्रं यशश्चारू चित्रं धनं मेरुतुल्यम् । मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किं ॥१
अर्थात - यदि शरीर सुंदर हो, पत्नी भी सुंदर हो और यश चारों दिशाओं में विस्तृत हो अर्थात फैला हुआ हो तथा मेरु पर्वत के समान अपार धन हो, किंतु आप का मन गुरु के चरण कमलों में नहीं लगता हो, तो इन सभी उपलब्धियों का क्या लाभ ?
कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादि सर्वं गृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम् । मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किं ॥२
अर्थात - आप के पास पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, भाई-बहन, घर सभी सगे संबंधी आदि हो लेकिन आप का मन गुरु के चरण कमलों में नहीं लगता हो, तो इन सब का क्या लाभ ?
षडंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति । मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किं ॥३
अर्थात - वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हो, कविता निर्माण की प्रतिभा हो, गद्य पद्य की रचना करते हो, परन्तु आप का मन गुरु के चरण कमलों में नहीं लगता हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ, क्या लाभ, क्या लाभ, क्या लाभ?
विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः । मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किं॥४
अर्थात - जिन्हें विदेशों में आदर मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और इस विचार के साथ कि ‘धर्म के कार्यों और आचरण में, कोई भी मेरे जैसा नहीं है’ पर फिर भी उसका मन गुरु के चरण कमलों में नहीं लगता हो तो इन सब का क्या लाभ, क्या लाभ, क्या लाभ, क्या लाभ?
क्षमामण्डले भूपभूपालवृन्दैः सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम् । मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किं ॥५
अर्थात - जिनका महानता और विद्वता के परिणाम स्वरूप पृथ्वी मंडल के सम्राटों और राजाओं के यजमानों द्वारा चरण कमलों की निरंतर सेवा करते हो, पर यदि उसका मन गुरु के चरण कमलों में नहीं लगता हो तो इन सब का क्या लाभ, क्या लाभ, क्या लाभ, क्या लाभ ?
यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात् जगद्वस्तु सर्वं करे सत्प्रसादात् । मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किं॥६
अर्थात - जिनका दान, प्रताप के कार्यों एवं कौशल का यश चारों दिशाओं में व्याप्त है, इन गुणों के पुरस्कार के रूप में सभी सांसारिक संपत्ति मेरी पहुंच के भीतर हैं, किंतु उनका मन गुरु के चरण कमलों में नहीं लगता हो तो इन सब का क्या लाभ, क्या लाभ, क्या लाभ, क्या लाभ?
न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ न कान्तासुखे नैव वित्तेषु चित्तम् । मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किं ॥७
अर्थात - जिनका मन न भोग, न योग, न अश्व, राज्य, न तो स्त्री के मनमोहक चेहरे से और न पृथ्वी की समस्त धन, संपत्ति से कभी विचलित न हुआ हो, पर यदि उसका मन गुरु के चरण कमलों में नहीं लगता हो तो इन सब का क्या लाभ, क्या लाभ, क्या लाभ, क्या लाभ ?
अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्घ्ये । मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किं ॥८
अर्थात - जिनका मन अपने घर में नहीं, अपने काम में नहीं, शरीर में नहीं, न ही अमूल्य चीजों में मन रहता है, पर यदि उनका मन गुरु के चरण कमलों में नहीं लगता हो तो इन सब का क्या लाभ, क्या लाभ, क्या लाभ, क्या लाभ ?
अनर्घ्याणि रत्नादि मुक्तानि सम्यक् समालिंगिता कामिनी यामिनीषु । मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किं ॥
अर्थात - अमूल्य मणि-मुक्तादि रत्न उपलब्ध हो, रात्रि में समलैंगिकता विलासिनी पत्नी भी प्राप्त हो, फिर भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाये तो इन सारे ऐश्वर्य-भोगादि सुखों से क्या लाभ?
गुरोरष्टकं यः पठेत्पुण्यदेही यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही । लभेत् वांछितार्थ पदं ब्रह्मसंज्ञं गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम् ॥
अर्थात - जो तपस्वी, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु-अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचनों में आसक्त है, वह पुण्यशाली शरीरधारी अपने इच्छितार्थ एवं ब्रह्म पद इन दोनों को प्राप्त कर लेता है यह निश्चित है।
- श्री शङ्कराचार्य कृतं!