अर्जुन को गीता ज्ञान

अर्जुन को गीता ज्ञान

अर्जुन को मिला गीता ज्ञान


हिंदू सनातन धर्म के साथ, पुराणों और धर्मग्रंथों का एक अत्यंत आत्मीय संबंध है। साथ ही, जब हम धर्मग्रंथों की बात करते हैं, तो जिस पवित्र ग्रंथ को मनुष्य के समग्र जीवन का सार माना जाता है, वह है ‘श्रीमद भगवद गीता’। करुणावतार भगवान श्री कृष्ण की श्रीमुख से निसृत हुई, इस पवित्र गीता में कुल 18 पर्व और 720 श्लोक हैं, जो मनुष्य के जीवन के सही अर्थ को समझाती हैं।

मगर क्या आप जानते हैं, कि श्री कृष्ण ने गीता का ज्ञान किसे, कहाँ और क्यों दिया था? अगर नहीं, तो आइए आज हम आपको इस तथ्य से अवगत कराते हैं।

कहते हैं, जब मनुष्य अपने विनाश के करीब आ जाता है, तो वह धीरे-धीरे अपना सब कुछ खोने लगता है। परंतु सारी चीज़ों में जो सबसे पहले उससे छिन जाता है, वह है उसका विवेक। लोभ, लालसा, मोह और अहंकार जैसे अवगुणों की चपेट में आ चुके मनुष्य को, तब सही और गलत का एहसास भी नहीं रह जाता। हस्तिनापुर के चंद्रवंशी कौरव-ज्येष्ठ दुर्योधन की अवस्था भी कुछ ऐसी ही थी। उन्होंने अपने जीवनकाल में एक के बाद एक ऐसी गलतियाँ की, जिससे भाई-भाई, गुरु-शिष्य और दोस्ती जैसे मधुर रिश्ते को अपमानित होना पड़ा और स्थिति महायुद्ध तक आ पहुंची।

जब कौरवों और पांडवों की सेनाएं आपस में भिड़ने के लिए कुरुक्षेत्र के मैदान पहुंचीं, तो दोनों तरफ़ योद्धाओं का चेहरा ही नज़र आ रहा था। एक तरफ़ गांडीवधारी अर्जुन और महाबली भीम, तो दूसरी तरफ़ सूर्यपुत्र कर्ण और अश्वत्थामा जैसे योद्धा। ऐसा प्रतीत हो रहा था, कि प्रकृति को भी आभास हो गया था, कि यह युद्ध कितना भयंकर होने वाला था।

इन सब के बीच अचानक से पार्थ का हृदय विचलित हो उठा। उन्हें लगने लगा, “कि मेरे विपक्ष में जिन योद्धाओं का चेहरा मैं देख पा रहा हूँ, वे सब तो मेरे अपने ही हैं। गुरु द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म, इन्होंने बचपन से मुझे प्रेम और जीवन की शिक्षा दी है। मैं भला अपने ही लोगों से युद्ध कैसे कर सकता हूँ?”

पांडव-श्रेष्ठ अर्जुन को युद्ध क्षेत्र में इस प्रकार शिथिल और विचलित देख भगवान श्री कृष्ण को यह आभास हुआ, कि अब अर्जुन को उनके वास्तविक स्वरूप से परिचित कराने का उपयुक्त समय आ गया है। तब उन्होंने समय को वहीं रोकते करते हुए, पार्थ को गीता के ज्ञान से अवगत कराया।

उन्होंने अर्जुन को बताया, कि सम्पूर्ण सृष्टि के सार एकमात्र वही हैं। उन्हीं की मर्ज़ी से यह युद्ध हो रहा है, क्योंकि धर्म की स्थापना के लिए यह युद्ध अत्यंत ज़रूरी हो चुका है। उन्होंने अर्जुन को यह भी बताया, कि मनुष्य का सबसे बड़ा और गहरा रिश्ता सिर्फ़ कर्मों से होना चाहिए। इसके अलावा जीवन के सभी रिश्तें क्षणिक हैं। इसके बाद अर्जुन के आग्रह का मान रखते हुए, उन्होंने अपना वास्तविक विशाल स्वरूप उन्हें दिखाया।

प्रभु का ऐसा स्वरूप देखकर, अर्जुन को यह एहसास हो गया, कि इस धर्मयुद्ध में स्वयं धर्म की उनके साथ है। अतः, उनका कर्तव्य है इस धर्मयुद्ध में निष्ठा के साथ हिस्सा लेना और विजय के लिए प्रयत्नशील रहना। भगवान श्री कृष्ण द्वारा दिए गए जिन उपदेशों की वर्तमान में भी प्रासंगिकता झलकती हैं, वैसे ही कुछ उपदेश हैं-

1. यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवती भारतः।
अभ्युथानम् अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

अर्थात, जब-जब इस धरती पर धर्म में ग्लानि होगी, जब भी धर्म का बंटवारा होगा, तब-तब परमात्मा अधर्म का विनाश करने हेतु धरा पर आएंगे यानी अवतार लेंगे। इसलिए मनुष्य को अधर्म की तरफ़ होने वाली आसक्ति से दूरी बनाए रखनी चाहिए।

2. परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम्
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥

अर्थात, भगवान श्री कृष्ण ने पार्थ से कहा, “इस धरती पर साधुओं के परित्राण और दुष्टों का विनाश करने के लिए, धर्म की स्थापना बहुत ज़रूरी है। और युग-युग में धर्म की स्थापना के लिए श्री हरि इस धरा पर अवतीर्ण अवश्य होंगे।”

3. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
अर्थात, भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “तुम्हारे कर्मों पर ही सिर्फ़ तुम्हारा अधिकार है, उससे मिलने वाले फलों पर नहीं। इसलिए फल की चिंता ना करते हुए, तुम्हें अपने कर्मों पर ध्यान लगाना चाहिए।” तभी तो प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्मों के प्रति आसक्त रहना चाहिए, नाकि उसके फल के प्रति।

4. नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत॥

अर्थात, मनुष्य की आत्मा को ना शस्त्रों से काटा जा सकता है और ना आग से जलाया जा सकता है। साथ ही, आत्मा कभी भी पानी और हवा से भी प्रभावित नहीं की जा सकती। इसलिए मनुष्य को सदैव, अपनी आत्मा को दृढ़ एवं शुद्ध रखना चाहिए।

भगवान श्री कृष्ण के गीता का उपदेश, हमारे समग्र जीवन यात्रा का एकमात्र सार है। गीता के इन उपदेशों से हमें भी यही सीख मिलती है, कि जीवन में कर्म से बड़ा हमारा कोई कर्तव्य नहीं है। इसलिए, हमें सदैव ही सत्कर्मों में खुद को लीन रखना चाहिए।

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