वराह अवतार की कथा

वराह अवतार की कथा

जानें भगवान ने क्यों लिया यह अवतार


दशावतार सीरीज के पहले अध्याय में हमने आपको श्री हरी के कूर्म अवतार के बारे में बताया। उसी प्रकार इस अध्याय में हम आपको श्री नारायण के तृतीय अवतार यानी वराह अवतार की कहानी बता रहे हैं। ऐसा कहा जाता है कि जगतपाल भगवान श्री विष्णु से प्रेम करना और बैर रखना दोनों ही मंगलप्रद होता है। जो भी प्रभु से निस्वार्थ प्रेम करता है, उसे तो बैकुंठ की प्राप्ति होती ही है। मगर जो प्रभु से शत्रुता करने का दुस्साहस दिखाता है, प्रभु उस पर भी भगवान अपनी दया की दृष्टि करते हुए उसे विष्णु लोक में जाने का सौभाग्य प्रदान करते हैं। तभी तो क्या खूब कहा गया है कि, श्रीहरि मनुष्य हृदय की समस्त भावनाओं से परे हैं। भगवान श्री विष्णु के दशावतारों में से उनका तीसरा अवतार भी ऐसी ही एक रोचक कथा बताता है | हिरण्याक्ष नामक एक दश्यू के अत्याचारों से पृथ्वी को मुक्ति दिलाने के लिए प्रभु ने वराह रूप में अवतार लिया था।

आज हम आपको इसी कथा के बारे में बताने जा रहे हैं। जब कश्यप ऋषि की पत्नी दिती की गर्भ से हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप नाम के दो जुड़वां शिशुओं ने जन्म लिया, तब समस्त पृथ्वी जैसे एक नकारात्मक ऊर्जा से भर गई। प्रकृति का हर कण जैसे यह दर्शाने लगा कि इन दो दैत्यों के अत्याचार से आगामी दिनों में पृथ्वी बहुत कंपित होगी। कहा जाता है, कि जो दैत्य पैदा होने के साथ ही बड़े हो जाते हैं, उनके उत्पात की कोई सीमा नहीं होती। यह दो जुड़वां भाई भी कुछ इसी प्रकार बड़े हो गए थे। दोनों भाइयों ने मिलकर, प्रजापति ब्रह्मा का कठोर तप किया और उनसे किसी भी मानव शरीर से मृत्यु ना प्राप्त करने का वरदान मांग लिया। बस फिर क्या था, ब्रह्मा से अजेयता व अमरता का वरदान प्राप्त कर, दोनों दैत्यों की स्वेच्छाचारिता और उद्दंडता की जैसे सभी सीमाएं खत्म हो गईं।

हिरण्याक्ष ने अब तीनों लोकों में विजय प्राप्त करने का निर्णय कर लिया और गदा लेकर इंद्रलोक की ओर चल पड़ा। सभी देवताओं को जब इस बात की सूचना मिली, तब वह सब इंद्रलोक छोड़ कर भाग गए। इंद्रलोक में किसी को ना पाकर, हिरण्याक्ष तब वरुण देव की नगरी विभावरी की ओर चला। वहां जाकर उसने वरुण देव को युद्ध के लिए ललकारा, वरुण देव अत्यंत क्रोधित हुए, लेकिन उन्होंने उस क्रोध को मन में दबाते हुए हिरण्याक्ष से कहा, आप इतने वीर योद्धा, मुझमें आपसे युद्ध करने की क्षमता कहां है? इस संसार में अगर किसी में आप से युद्ध करने की क्षमता है, तो वह श्री विष्णु हैं। आप उन्हीं के पास जाएं।”

वरुण देव की बात सुनकर, श्री हरि की खोज में हिरण्याक्ष, देवर्षि नारद के पास पहुंचा और तब देवर्षि ने उसे बताया कि श्री हरि अभी अपने वराह रूप में पृथ्वी को रसातल से निकालने के लिए गए हुए हैं। नारद की बात सुन, हिरण्याक्ष रसातल पहुंचा तो उसने देखा कि एक वराह अपने दांतों पर पृथ्वी को उठाए लिए जा रहा है। ऐसा विस्मयकारी दृश्य देख कर हिरण्याक्ष मन ही मन सोचने लगा कि कहीं यह वराह असल में विष्णु तो नहीं? सहसा उसने उस वराह से कहा, "अरे जंगली पशु! तू जल में कहां से आ गया है? मूर्ख पशु! तू इस पृथ्वी को कहां लिए जा रहा है? इसे तो ब्रह्मा जी ने हमें दे दिया है। तू मेरे रहते इस पृथ्वी को रसातल से नहीं ले जा सकता। तू दैत्य और दानवों का शत्रु है, इसलिये आज मैं तेरा वध कर डालूंगा।"

इसके बाद हिरण्याक्ष ने प्रभु से और भी कई तीखे शब्द कहे, लेकिन प्रभु अपने पथ से टस से मस न हुए। हिरण्याक्ष ने तब फिर कहा, अरे विष्णु! तू इतना कायर क्यों है, मैंने तुझसे इतने कटु शब्द कहे, फिर भी तुम मुझसे युद्ध नहीं कर रहा।” इतना कुछ सुनकर भी श्री हरि का ध्यान हिरण्याक्ष पर नहीं गया। एक बार पृथ्वी को अपने स्थान में स्थापित कर देने के पश्चात श्री विष्णु की नजर हिरण्याक्ष पर पड़ी। उन्होंने हिरण्याक्ष से कहा, “तुम तो अत्यंत बलवान हो। बलवान लोग प्रलाप नहीं करते, बल्कि कार्य करके दिखाते हैं। तुम इतनी बातें क्यों कर रहे हो? आओ मुझसे युद्ध करो।”

यह सुनते ही जैसे हिरण्याक्ष का खून खौल गया और वह भगवान विष्णु पर टूट पड़ा। प्रभु बड़ी आसानी से उस असुर के सभी शस्त्रों को नष्ट करते चले जा रहे थे। इसके बाद हिरण्याक्ष त्रिशूल लेकर विष्णु की ओर दौड़ पड़ा और प्रभु ने तब सुदर्शन चक्र का आह्वान किया। सुदर्शन चक्र के प्रकट होते ही, भगवान विष्णु ने उससे हिरण्याक्ष के त्रिशूल के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और इसके पश्चात उसके कानों पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया। यह थप्पड़ इतना तेज था कि हिरण्याक्ष की आंखें बाहर निकल आईं और वह निश्चेष्ट होते हुए जमीन पर धराशायी हो गया। इसके बाद उसी सुदर्शन चक्र से श्री हरि ने हिरण्याक्ष का वध करते हुए धरती पर उसके अत्याचारों पर सदा के लिए विराम लगा दिया। भगवान विष्णु के हाथों मारे जाने के कारण हिरण्याक्ष बैकुंठ चला गया और वहां के द्वार प्रहरी के रूप में अपना जीवन व्यतीत करने लगा।

इधर, अपने दांतों से जल पर पृथ्वी को स्थापित और हिरण्याक्ष का वध करने के पश्चात प्रभु के वराहावतार भी अंतर्ध्यान हो गए।

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